बुंदेलखंड के सूखे गांव में प्यास बुझा रहीं 'वाटर वीमेन'
२८ अगस्त २०१९चेहरे पर घूंघट है. वह एक बड़े थाली में बजरी को डालती हैं और अपने गांव में एक चेक डैम (बांध) के निर्माण में सहयोग करने के लिए घर से निकल जाती हैं. यह कहानी है मध्य भारत के बुंदेलखंड के एक गांव में रहने वाली किरण अहेरवाल की, जहां के लोग एक-एक बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं. वर्षों से पड़ रहे सूखे और पानी की कमी की वजह से अकसर उनके बच्चे भूखे रह जाते हैं. किरण कहती हैं, "लेकिन, मेरा लक्ष्य इन हालात को बदलना है."
महिलाओं ने खुद किया पूरे गांव की समस्या का समाधान
200 से अधिक गांवों में तीन महिलाएं अपने समुदाय के लोगों को वर्षा के पानी को इकट्ठा करने, कुओं को गहरा करने, तालाबों की खुदाई, चैक डैमों का निर्माण और हैंड पंपों की मरम्मत करने के लिए प्रेरित करती हैं. महिलाओं का कहना है कि उनके प्रयासों का नतीजा यह है कि सिंचाई सुविधा बेहतर हुई है, फसलें अच्छी तैयार हुई है और पीने का पानी बढ़ा है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब पानी लाने के लिए काफी कम दूर जाना पड़ता है.
अप्रैल में अपने गांव अग्रौथा में जल सहेली बनने वाली 28 वर्षीय किरण कहती हैं, "गर्मियों के मौसम में हमें पानी लाने के लिए पांच किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. जब वहां पर्याप्त पानी नहीं होता था, मैं अपने बच्चों के लिए न तो समय पर खाना बना पाती थी और न ही उन्हें खिला पाती थी. अब हमारी पानी की समस्या दूर होगी. हमारे गांव में पीने का पानी होगा. हम फिर से फसलें उगा सकेंगे."
बुंदेलखंड में पिछले दो दशक में 13 बार सूखा पड़ा है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था. यहां साल में 52 दिन बारिश होती थी. एक निजी मौसम पूर्वानुमान एजेंसी स्काईमेट वेदर के अनुसार 2014 के बाद से बारिश के दिन आधे से भी कम हो गए. ऐसा लगातार होने लगा. कृषि पर निर्भर क्षेत्र में फसल की पैदावार समाप्त हो गई और किसान नजदीकी शहरों में पलायन करने लगे.
महिलाओं, बच्चों समेत पूरे परिवार पर असर
स्थानीय जल संरक्षण विशेषज्ञों के अनुसार पानी की कमी का खामियाजा बच्चों और घर की महिलाओं को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ता है. समस्या बढ़ने के बाद बच्चों का स्कूल छूट जाता है और बाल विवाह बढ़ जाता है. ग्रामीण भारत में पानी लाना महिलाओं का पहला काम होता है. माथे पर चार-चार बर्तनों (घड़े की आकार का) में पानी भरकर संतुलन बनाए हुए चलती महिलाओं का दिखना आम बात है. ये महिलाएं इसी तरह अपने बच्चों को लेकर पानी की तलाश में दिन में कई बार मीलों चलती हैं. चेहरे पर घूंघट होने की वजह से कई बार पानी से भरे बर्तन गिर जाते हैं और उन्हें दोबारा भरना पड़ता है.
मानपुर गांव की एक 'जल सहेली' तारा कहती हैं, "हम पानी लाने में काफी थक जाते थे. नहाना और कपड़े धोना भी एक दिन के अंतराल पर करते थे. वह काफी खराब समय था." लेकिन वर्ष 2016 के बाद से हालात बदलने लगे. तारा और उनकी दो अन्य सहेलियों ने अपने गांव में जल संरक्षण की बात की. अपने समुदाय के दर्जनों लोगों को तालाब और कुएं की उड़ाही के लिए (गहरा करना) इकट्ठा किया. गांव में नए हैंडपंप लगाए गए. एक अन्य सहेली गीता कहती हैं, "अब बर्तन धोना, खाना बनाना, कपड़े धोना, नहाना, खेती करना और पशुओं की देखभाल करना बहुत आसान हो गया है. यदि पानी है तो सब कुछ है और नहीं है तो कुछ भी नहीं."
पारंपरिक ज्ञान, लिंग और जलवायु परिवर्तन पर शोध कर रही रीतू सोगनी कहती हैं, "ग्रामीण भारतीय महिलाएं प्राकृतिक संसाधनों की अच्छी प्रबंधक और रक्षक बनती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि वे अपने प्राकृतिक परिवेश के साथ काफी मिलीजुली होती हैं. वे जानती हैं कि किन समस्याओं से प्रतिदिन सामना होता है. इस आधार पर उनके पास समस्याओं का समाधान होता है."
महिलाओं के आसान नहीं जल सहेली बनना
कई महिलाओं के लिए पुरुषवादी और रूढ़िवादी क्षेत्र में जल सहेलियां बनना आसान नहीं है क्योंकि यहां सदियों पुराने रीति-रिवाज के अनुसार ही महिलाओं कि जिंदगी बंधी होती है. घर पर बीड़ी बना हर महीने करीब छह हजार रुपये कमाने वाली किरण कहती हैं, "मेरे पति नाराज हो गए और पूछा कि तुम बाहर क्यों जा रही हो? कहां घूमने जा रही हो? तुम्हें कोई पैसा भी नहीं दिया जा रहा है, ऐसे में जाने का क्या मतलब है? मैंने इस समूह में शामिल होने के लिए उनके सभी गुस्से और डांट को बर्दाश्त किया."
कई सहेलियों ने कहा कि उनके पति और ससुराल वालों ने पानी की स्थिति में सुधार नहीं होने के बाद बाहर जाने की इजाजत दी. वे कहती हैं कि घर पर काम पूरा हो जाने के बाद सभी महिलाएं सहेली के काम के लिए एक दिन में सिर्फ दो घंटे का समय निकालती हैं. इस समय का इस्तेमाल वे गांव के लिए जल संरक्षण योजना बनाने, स्थानीय परिषद की बातचीत में भाग लेने, सरकारी अधिकारियों से मिलने और कुओं और हैंड पंपों को ठीक करने के लिए सीखने में करती हैं. ये वो काम है जो पारंपरिक रूप से पुरुषों द्वारा किया जाता रहा है.
जल सहेली कार्यक्रम के पीछे काम करने वाली चैरिटी परमार्थ समाज सेवी संगठन के सचिव संजय सिंह कहते हैं, "महिलाएं घरेलू और ग्रामीण स्तर पर निर्णय ले रही हैं, जो कई जगहों पर अहम बदलाव ला रहा है. इस क्षेत्र में हैप्पीनेस इंडेक्स बढ़ा है." संजय सिंह की बातों से 60 वर्षीय किसान बिंद्रावन लोदी भी सहमत हैं. वे कहते हैं, "उनका चौखेड़ा गांव में काफी परेशानी में था. सहेली के प्रयास से ही सामुदायिक तालाब का जीर्णोद्धार हुआ. यह जगह पूरी तरह सूखा हुआ था. अब यहां खेती करने लायक पर्याप्त पानी है. पीने के पानी की समस्या अभी बरकरार है लेकिन अभी यह एक शुरुआत है."
और पलायन का क्या हाल
कभी घने जंगलों और हरे-भरे खेतों वाला बुंदेलखंड पानी की समस्या की वजह से बंजर हो रहा है. संजय सिंह कहते हैं, "चट्टानी क्षेत्र होने की वजह से वर्षा जल जमीन में नहीं जा पाता है." स्थानीय लोग कहते हैं कि जंगलों की कटाई की वजह से वर्षा में कमी आयी है और जलाशयों के पानी को कभी-कभी सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया गया. हालांकि सिविल सोसायटी और सरकारी एजेंसियों ने जल संरक्षण के प्रयास तेज कर दिए है लेकिन सिंह आगाह करते हैं कि जलवायु परिवर्तन के "खतरनाक" प्रभाव जैसे बेरोजगारी, कुपोषण और पलायन से निपटने के लिए पहले से ही काफी काम करने की जरूरत है.
बुंदेलखंड जल मंच के कार्यकर्ताओं द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार पिछले एक दशक में बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाके में रहने वाले पांच लोगों में से दो लोग शहरों में पलायन कर गए हैं. सिंह कहते हैं कि निजी निवेश, बड़े सरकारी बजट, पेड़ लगाने और जलवायु अनुकूल तकनीकों जैसे कि कम पानी वाली फसलों को उगाने से पलायन को रोकने में मदद मिल सकती है.
सहेली कहती हैं कि पलायन की वजह से भी वे कड़ी मेहनत कर रही हैं. वे यह सुनिश्चित करना चाहती हैं कि उनके बच्चे यहां रहें. उनकी बेटियों और बहुओं को पानी की चिंता नहीं करनी पड़े. किरण कहती हैं, "जब टीवी में हम विज्ञापन देखते हैं कि नल और झरनों से पानी बह रहा है तो सोचते हैं कि वाह, हमें भी शहर में जाना चाहिए. लेकिन यह एक झूठा सपना है. कम से कम हमारे लिए जिनके पास पैसे नहीं हैं. इसलिए यहां बदलाव करना ही बेहतर है. अगले पांच साल में हमारा गांव सुंदर हो जाएगा. आप हर जगह पानी देखेंगे."
आरआर/आरपी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
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