भारत के भरोसे अफगान मरीज
२९ नवम्बर २०१३दिल्ली के एक अस्पताल में बिस्तर पर लेटे 56 साल के मुहम्मद नबी ने अपनी गर्दन की तरफ इशारा करते हुए बताया, "अफगान डॉक्टर ने ट्यूमर बताया और फौरन ही ऑपरेशन कर दिया." इसके बाद उनके दोस्तों ने उन्हें भारत में इलाज कराने की सलाह दी. दिल्ली के डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें कभी ट्यूमर था ही नहीं. लसिका ग्रंथि के कारण बनी गांठ थी जो थोड़ी सूज गई थी. जाहिर है इस बात से नबी काफी मायूस हैं और अफगान डॉक्टरों पर नाराज भी. उन्होंने बताया कि यह अफगानिस्तान में आम बात है. इस ऑपरेशन में बहुत सारा समय और पैसे भी खर्च हुए. वह काफी कमजोर भी हो गए हैं, लेकिन उन्हें उम्मीद है कि अब भारत में वह दोबारा सेहतमंद हो सकेंगे.
स्वास्थ्य के लिए सफर
भारतीय अस्पतालों में अफगान चेहरे दिखना इन दिनों कोई हैरानी की बात नहीं. कुछ अपने साथ अनुवादक लेकर चलते हैं. दिल्ली के लाजपत नगर और साकेत या मालवीय नगर जैसे इलाकों में इनका दिख जाना आम है. लाजपत नगर में तो अफगानों की बढ़ रही तादाद के चलते इसे लोग छोटा अफगानिस्तान भी कहने लगे हैं. अस्पताल भी अपने यहां बढ़ रही मरीजों की भीड़ के हिसाब से इंतजाम पर ध्यान दे रहे हैं.
भारत में अफगानिस्तान के उपराजदूत अशरफ हैदरी ने बताया कि लगभग 1000 अफगान हर रोज भारत आ रहे हैं. इनमें से 70 फीसदी इलाज के लिए आते हैं. हृदय रोग, मस्तिष्क, हड्डी और महिला रोगों से संबंधित मरीजों की तादाद सबसे ज्यादा है.
हैदरी ने बताया इनमें से ज्यादातर के अफगान डॉक्टरों के साथ अनुभव खराब रहे हैं. आम धारणा यह है कि वहां डॉक्टरों के लिए मरीज की सेहत से ज्यादा पैसे की अहमियत है. उन्होंने बताया, "अफगानिस्तान में चिकित्सा व्यवस्था की कमी है. उसका स्तर बहुत नीचे है. कई ऑपरेशन तो वहां किए ही नहीं जा सकते." अफगानिस्तान के स्वास्थ्य मंत्रालय से मिले आंकड़ों के अनुसार इलाज के लिए मरीजों के बाहर जाने के कारण अफगानिस्तान को हर साल 24 करोड़ डॉलर का नुकसान हो रहा है.
पैसों और भाषा की दिक्कत
अफगान नागरिकों के लिए भारत आना आसान नहीं. थकान के अलावा इसमें बहुत सारा पैसा भी जाता है. हवाई जहाज का टिकट, होटल में रहने और खाने पीने पर खर्च और अनुवादक रखने के अलावा इलाज पर हजारों की चपत अलग से. ज्यादातर वे ही मरीज इलाज के लिए भारत आ पाते हैं जो आर्थिक रूप से मजबूत हैं.
नबी अपने साथ अपने एक रिश्तेदार को लेकर आए जो हिन्दी बोल सकता है. इससे अनुवादक पर खर्च होने वाला पैसा बच गया. उन्होंने कहा, "अगर यह नहीं होता तो हम एक दूसरे की बात समझ ही नहीं पाते."
अनुवादकों को फायदा
भूपिंदर एक अनुवादक हैं. उनका अस्पताल के साथ करार है. भूपिंदर ने बताया हर महीने वह इस काम से करीब 35 हजार रुपये कमा लेते हैं. वह इस काम से खुश हैं. उन्होंने बताया जिस अस्पताल के साथ वह काम कर रहे हैं वहां हर हफ्ते लगभग 150 से 200 मरीज पहुंचते हैं.
हुमा अपने 12 साल के बेटे के इलाज के लिए पूरे परिवार के साथ दिल्ली आई हुई हैं. अफगानिस्तान में डॉक्टर बच्चे के टॉन्सिल्स निकालने की सलाह दे रहे थे क्योंकि उसका अक्सर गला खराब रहता है. उन्होंने बताया, "उन्होंने(डॉक्टरों ने) उसे दस तरह की एंटीबायोटिक्स दीं जिनसे वह कमजोर होता चला गया." भारतीय डॉक्टरों ने हुमा को बताया कि उनके बेटे को एलर्जी है. जब से इलाज शुरू हुआ है बच्चे की हालत में काफी सुधार है.
सुधार की जरूरत
हुमा बच्चे को पड़ोसी देश ईरान या पाकिस्तान भी ले जा सकती थीं लेकिन दूसरे अफगान लोगों की तरह उन्हें भारतीय डॉक्टरों पर ज्यादा भरोसा है. हालांकि अफगान मीडिया में इस बात कि आलोचना भी हो रही है. उन्होंने बताया हाल ही में वहां टीवी पर दिखाया जा रहा था कि भारत में अफगान मरीजों के साथ धोखाधड़ी की बहुत संभावना है इसलिए बेहतर है कि वे अफगानिस्तान में ही इलाज कराएं.
उत्तरी अफगानिस्तान के फरयाब प्रांत की गुलनाश बताती हैं कि ज्यादातर लोग भारतीय इलाज से खुश हैं क्योंकि भारतीय डॉक्टरों के पास इलाज के ज्यादा बेहतर तौर तरीके हैं. वह दिल्ली अपने भाई के इलाज के सिलसिले में आईं.
संयुक्त प्रयास
गुलनाश को लगता है अफगान डॉक्टरों को भारत में पढ़ाई करनी चाहिए. उन्होंने कहा, "तब फिर हमें इलाज के लिए भारत आने की जरूरत नहीं होगी, इसके अलावा हमारी अर्थव्यवस्था भी बेहतर हो सकेगी."
दोनों देश भी इस बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं. पिछले कुछ समय से भारतीय अस्पताल अफगान डॉक्टरों को प्रशिक्षण हासिल करने के अवसर भी दे रहे हैं. अफगानिस्तान में स्वास्थ्य मंत्रालय ने हाल में एलान किया कि वे स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र को बेहतर बनाने की योजना तैयार कर रहे हैं. जब तक कुछ ठोस कदम नहीं उठाए जाते अफगान मरीजों की उम्मीदें भारतीय डॉक्टरों पर टिकी हैं.
रिपोर्ट: वसलत हसरत नजीमी/ एसएफ
संपादन: ए रंजन