भारत में मधुमक्खियों को उजाड़ते पेपर कप
२० जून २०१८शिवागंगनम चंद्रशेखरन सड़क किनारे एक ठेले पर चाय पी रहे थे. तभी उनकी नजर फेंके गए कागज के कपों पर पड़ी. वह चौंक उठे. फेंके हुए कपों में कई मधुमक्खियां थीं. मदुरै कामराज यूनिवर्सिटी में प्लांट बायोलॉजी के प्रोफेसर मधुमक्खियों के इस व्यवहार से हैरान हुए.
उनके जेहन में कुछ सवाल उठे, ये कीट आखिरी फूलों की बजाए चाय के कपों में क्या कर रहे हैं? आखिर इनके व्यवहार में यह बदलाव क्यों आया? क्या व्यवहार में आया यह बदलाव प्राकृतिक रूप से परागण करने वाली मधुमक्खियों की मौत का कारण तो नहीं बन रहा है?
चंद्रशेखरन ने मधुमक्खियों के बारे में लिखी गई कई किताबें छान मारी. किताबों में उन्हें इन सवालों का कोई जवाब नहीं मिला. इसके बाद प्रोफेसर ने अपने छात्रों ने इस पर रिसर्च करने को कहा. उन्होंने दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में छह अलग अलग जगहें चुनीं. रिसर्च के दौरान पता चला कि मिठास के चक्कर में हर जगह चाय के कपों तक पहुंचीं मधुमक्खियां लौटकर अपने छत्ते में वापस नहीं पहुंचीं.
वे चाय, कॉफी, जूस या सॉफ्ट ड्रिंक्स के फेकें गए पेपर कपों में ही मारी गईं. इन पेयों में घुली चीनी ने मधुमक्खियों को आकर्षित किया. कीटों ने चीनी को वैकल्पिक आहार समझा. 30 दिन के भीतर ऐसे कपों में 25,211 मधुमक्खियां मरी हुई मिलीं.
डिस्पोजेबल कपों और मधुमक्खियां की मौत पर हुई रिसर्च के लीड ऑथर प्रोफेसर चंद्रशेखरन कहते हैं, "हर कप में मरी हुई मधुमक्खियां थीं, पांच से 50 तक. जिन जगहों पर भी शोध किया गया वहां हर जगह एक जैसा हाल था."
फूल बनाम डिस्पोजल कप
रिसर्च के दौरान चंद्रशेखरन ने देखा कि अगर मधुमक्खियों के सामने फूल और चीनी रखी जाए तो वे प्राकृतिक रूप से पुष्पों की तरफ जाती हैं. लेकिन शहरों में मधुमक्खियों के लिए प्राकृतिक आवास खत्म होता गया है. डिस्पोजेबल कपों का इस्तेमाल बहुत ही ज्यादा बढ़ चुका है. प्रोफेसर कहते हैं, "एक ही इलाके में दो तीन ठेले लगाए गए और वहां हर दिन 200 से 300 कप फेंके जाने लगे, ऐसा दो तीन महीने तक हुआ. मधुमक्खियों ने इस जगह की पहचान भोजन वाले इलाके के रूप में कर ली."
प्लास्टिक के प्रति बढ़ती जागरुकता के चलते भारत समेत दुनिया भर में पेपर कपों का इस्तेमाल काफी बढ़ा है. लेकिन चंद्रशेखरन को लगता है कि पेपर कप ही शायद मधुमक्खियों की मौत के जिम्मेदार हैं.
शोध के दौरान प्लास्टिक के कपों में कोई भी मरी हुई मधुमक्खी नहीं मिली. चंद्रशेखरन इसका कारण समझाते हैं, "कागज के कपों में अतिसूक्ष्म छिद्र होते हैं जिनमें मुलायम शुगर फंसी रह जाती है. ऐसा प्लास्टिक के कपों में नहीं होता." प्लास्टिक के कपों में शुगर कड़ी हो जाती है.
चंद्रशेखरन के शोध के बाद भारत सरकार की नेशनल बायोडायवर्सिटी अथॉरिटी के संबंदम शांडिल्यन ने पेपर कपों के असर पर रिसर्च की. शांडिल्यन ने नीलगिरी बायोस्फेयर रिजर्व में पेपर कपों के असर की जांच की. इस दौरान एक मामला ऐसा भी आया जब आठ घंटे के भीतर डिस्पोजल कपों से भरे एक कूड़ेदान में 800 से ज्यादा मरी हुई मधुमक्खियां मिली. शांडिल्यन कहते हैं, "अगर एक चाय के ठेले के पास इतनी मधुमक्खियां मरती हैं, तो सोचिए पूरे भारत में क्या हाल होगा. यह चेतावनी है. यह मधुमक्खियों की धीमी मौत का कारण है."
मधुमक्खियों के लिए घातक कीटनाशकों पर बैन
दूसरा शोध करने वाले शांडिल्यन कहते हैं, "हमें एक लंबे शोध की जरूरत है क्योंकि अगर इन मक्खियों की संख्या गिरती रही तो इसका असर जंगल और कृषि उत्पादकता पर पड़ेगा."
दुनिया भर में जितना भी परागण होता है, उसका 80 फीसदी श्रेय पालतू और जंगली मधुमक्खियों को जाता है. इंसान के आहार में शामिल 100 में से 70 फसलों का परागण यही कीट करते हैं. उनकी मदद से ही दुनिया को 90 फीसदी पोषण मिलता है. बात साफ है कि अगर मधुमक्खियां उजड़ी तो इंसान को खाने के लाले पड़ जाएंगे. मधुमक्खियां, भौंरे, तितलियां और कई किस्म के कीट फूलों का परागण करते हैं. सफल परागण के बाद ही अंकुरण होता है.
भारत में मधुमक्खियों और इसी प्रजाति से जुड़ी मक्खियों का विस्तृत डाटा मौजूद नहीं है. लेकिन देश भर में मधुमक्खी पालक इन कीटों की घटती संख्या से परेशान हो रहे हैं. बुरे हालात सिर्फ भारत में ही नहीं हैं. दुनिया भर के वैज्ञानिक मधुमक्खियों की घटती संख्या को "कालोनी कोलेप्स डिसऑर्डर" कह रहे हैं.
मधुमक्खियों की घटती संख्या के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं. प्राकृतिक आवास का घटना, कीटनाशकों का इस्तेमाल, जलवायु परिवर्तन, शहरीकरण के बाद अब कागज के कप भी इस सूची में शुमार हो चुके हैं.
विनाश का संकेत है कीटों की घटती संख्या
इन शोधों के बाद तमिलनाडु में कई जगहों पर स्थानीय प्रशासन ने कागज के कपों पर प्रतिबंध लगा दिया है. लोगों से कांच, स्टील या मिट्टी के कप इस्तेमाल करने की अपील भी की जा रही है. इससे कूड़ा भी कम होगा और मधुमक्खियों को भी फायदा मिलेगा.
एक कंपनी में बतौर सलाहकार काम करने वाले मारुवर कुझाली कहते हैं, "मुझे इस बारे में कुछ भी पता नहीं था. लेकिन अब मैं जानता हूं कि मैं कभी कागज के कपों का इस्तेमाल नहीं करुंगा."
लेकिन चंद्रशेखरन नहीं चाहते कि कागज के कपों का इस्तेमाल पूरी तरह बंद हो जाए और फिर से प्लास्टिक के कप दिखने लगें. फिलहाल वह लाल रंग के प्रति मधुमक्खियों के व्यवहार की जांच कर रहे हैं. मधुमक्खियों में लाल रंग के प्रति संवेदनशील फोटोरिसेप्टर नहीं होते, जिसकी वजह से वे लाल रंग बहुत स्पष्ट रूप से नहीं देख पाती हैं. हो सकता है कि इस रंग की मदद से कोई रास्ता निकले. हो सकता है कि कागज के लाल कप मधुमक्खियों को बचा लें.
शारदा बालासुब्रमण्यम/ओएसजे