'भारतीय खाने से खुशी मिलती है'
१४ मार्च २०१३
इसी को दिखाती भारत की 'कलिनरी फिल्म' है 'जादू'. कलिनरी यानी रसोई से जुडा हुआ. यह एक ओर तो विदेशों में बस चुके भारतीय परिवारों और उनके बच्चों की कहानी है और साथ ही कहानी है खाने से प्यार करने वाले और अपना रेस्तरां चलाने वाले दो भाईयों की.
फिल्म में बड़े भाई की भूमिका निभाने वाले हरीश पटेल कहते हैं, "सभी भारतीय फिल्में एक तरह से कलिनरी सिनेमा है. कोई फिल्म ऐसी नहीं होती जिसमें खाने के बारे में बात नहीं की गई हो, या खाने के सीन नहीं हों. तो हर फिल्म ही एक तरह से कलिनरी सिनेमा हो जाती है. जादू करते समय मुझे खुशी इस बात की भी हुई कि एक्टिंग के साथ ही मुझे खाना बनाने का भी मौका मिल रहा है. मुझे खाना बहुत पसंद है और पूरी फिल्म उसी पर आधारित है. तो यह तो सोने पर सुहागा हो गया."
एनआरआई जीवन पर फिल्म
फिल्म इंग्लैंड में बस चुके दो भाइयों की कहानी है, जिनकी मां ने रेस्तरां की शुरुआत की. बड़ा भाई स्टार्टर्स बनाने में एक्सपर्ट है और छोटा भाई मेन कोर्स यानी खाना. मां की मृत्यु के साथ दोनों भाइयों में मतभेद हो जाता है और दोनों अपने अपने अलग रेस्तरां खोल लेते हैं. एक रेस्तरां में सिर्फ स्टार्टर बनते हैं और दूसरे में सिर्फ मेन कोर्स. इनके मतभेदों को दूर करने की कोशिश करती है फिल्म की हीरोइन यानी बड़े भाई की बेटी अमारा करण.
फिल्म के निर्देशक अमित गुप्ता, युवा अनिवासी भारतीयों की उस पीढ़ी में आते हैं जो विदेशों में पली बढ़ी है. विशुद्ध अंग्रेजी में बात करने वाले अमित बताते हैं, "मेरे परिवार का रेस्तरां है, तो खाना मेरे परिवार का अभिन्न हिस्सा रहा है. मेरी मां की छह बहनें हैं और सब अलग अलग तरह से खाना बनाती हैं. मैं रेस्तरां के साथ ही बड़ा हुआ हूं. हमेशा मैंने इसे अपने परिवार के केंद्र में देखा है. मुझे खाना बेहद पसंद है. जब भी मैं भारतीय खाने के बारे में सोचता हूं, मेरे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है."
फिल्मों में बजते पुराने भारतीय गाने, रेस्तरां में वही हिन्दुस्तानी आवाजें, एक ओर तो दिखाती हैं कि एनआरआई भले ही निजी और व्यावसायिक कारणों से भारत के बाहर जा कर बस गए हों लेकिन वहां का संगीत, वहां का खाना, वो भुला नहीं पाए हैं.
खाने की खूबसूरी
फिल्म की हीरोइन कही जा सकने वाली अमारा की भूमिका दिखाती है कि विदेशी संस्कृति में पले बढ़े बच्चे भी भारतीय स्वाद के साथ कितने गहरे जुड़े हुए हैं. अपनी दादी के स्वाद को याद करते हुए वह बताती हैं कि उन्होंने कौन से मसाले इस्तेमाल किए होंगे. फिल्म में उनके किरदार का एक ही सपना है कि उसकी शादी में उसके पिता और चाचा खाना बनाएं. एक दूसरे से नाराज भाइयों को कैसे मनाना है इसी पर पूरी फिल्म बनी है. अमित कहते हैं, "एनआरआई वैसे तो उस देश का हिस्सा बन जाते हैं जहां वे रहते हैं, लेकिन फिर भी आप भारतीय हैं क्योंकि आपके आसपास का माहौल ऐसा है. मैं लेस्टर में जहां रहता हूं वह इलाका बिलकुल भारतीय है."
फिल्म बनाते समय सबसे बड़ी चुनौती के बारे में अमित कहते हैं, "खाने को खूबसूरत दिखाना मेरे लिए बड़ी चुनौती थी. चूंकि मैंने फूड मूवी बनाई थी तो खाना अच्छा दिखना भी बहुत जरूरी था. मैं चाहता था कि परिवार और पारिवारिक माहौल भी एकदम सच्चा सा लगे. बीस साल पहले की समस्याओं को मैं नहीं उकेरना चाहता था, न ही मैं दिखाना चाहता था कि पति पत्नी को पीट रहा है या ऐसा कुछ. मैं आज की मुश्किलें दिखाना चाहता था. यह मेरे लिए एक बड़ी चुनौती थी."
इंग्लैंड का राष्ट्रीय भोजन
युवा, हैंडसम अमित गुप्ता बताते हैं, इंग्लैंड का राष्ट्रीय भोजन भारतीय डिश है. इंग्लैंड के लोगों को अगर पूछा जाए कि उनका फेवरेट खाना क्या है तो वे कहेंगे भारतीय. इंग्लिश फूड जैसी कोई चीज ही नहीं.
अमित गुप्ता पहले रेसिस्टेंट नाम की एक फिल्म बना चुके हैं जो दूसरे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में चलती है. फिल्म कुछ जर्मन सैनिकों के ब्रिटेन की एक घाटी में आने की कहानी है. इसे बाफ्टा के दौरान तीन श्रेणीयों में नामांकित किया गया था. बेस्ट अभिनेत्री का अवॉर्ड भी इसी फिल्म ने जीता.
एनआरआई दर्शकों के बारे में अमित कहते हैं, "विदेश में रहने वाले भारतीय फिल्मों के दीवाने हैं. और खाने के भी तो जब दोनों को मिला दिया जाए तो क्या बात होगी. यही सोच कर मैंने जादू बनाई."
फिल्म अमित गुप्ता के जीवन से गहरी जुड़ी है, क्योंकि उनका परिवार रेस्तरां से जुड़ा हुआ है वह इसी माहौल में बड़े हुए हैं. इतना ही नहीं फिल्म की पृष्ठभूमि लेस्टर में हैं और अमित भी इसी जगह से आते हैं. अमित कहते हैं यह फिल्म काफी पर्सनल है.
हिन्दी फिल्मों के दीवाने अमित को जब उनके फेवरेट डायलॉग के बारे में पूछा तो थोड़ा याद करते हुए उन्होंने कहा, "वो शोले का डायलॉग है न जिसमें अमिताभ बच्चन लेटा रहता है और हेमामालिनी बोलती जाती हैं... हां तेरा नाम क्या है बसंती... यह मेरा फेवरेट डॉयलॉग है."
रिपोर्टः आभा मोंढे
संपादनः ईशा भाटिया