भुखमरी और कुपोषण से घिरे भारत के लोग
१९ सितम्बर २०१७भुखमरी पर अपनी तरह की इस पहली रिपोर्ट "स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड, 2017" में बताया गया है कि कुपोषित लोगों की संख्या 2015 में करीब 78 करोड़ थी तो 2016 में यह बढ़कर साढ़े 81 करोड़ हो गयी है. हालांकि सन 2000 के 90 करोड़ के आंकड़े से यह अभी कम है लेकिन लगता है कि आगे बढ़ने के बजाय मानव संसाधन की हिफाजत के पैमाने पर दुनिया पीछे ही खिसक रही है. कुल आबादी के लिहाज देखें तो एशिया महाद्वीप में भुखमरी सबसे ज्यादा है और उसके बाद अफ्रीका और लातिन अमेरिका का नंबर आता है.
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट भुखमरी के कारणों में युद्ध, संघर्ष, हिंसा, जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदा आदि की तो बात करती है लेकिन नवसाम्राज्यवाद, नवउदारवाद, मुक्त अर्थव्यवस्था और बाजार का ढांचा भी एक बड़ा कारण है. आखिर उसके गिनाये कारणों की जड़ में भी तो कुछ है. लेकिन उस पर संयुक्त राष्ट्र चुप है. एशिया का एक बड़ा भूभाग गरीब और विकासशील देशों से बना है. ऐसे देश जिन्हें गुलामी से मुक्ति पाए ज्यादा समय नहीं बीता है. फिर भी इसी भूभाग में ऐसे देश भी हैं जो आर्थिक मोर्चे पर बड़ी ताकतों के समकक्ष माने जाने लगे हैं, जिनकी आर्थिक क्षमता के आगे बड़े बाजार नतमस्तक हैं. इन देशों में चीन, कोरिया, जापान और भारत शामिल हैं. बल्कि इनमें से चीन तो घोषित महाशक्ति है. अन्य चार देश सामरिक तौर पर विश्व के अग्रणी देशों में आ गये हैं. अंतरराष्ट्रीय जलवे के विपरीत, एशिया में भुखमरी की दर का विस्तार बताता है कि इस महाद्वीप की सरकारों की प्राथमिकताएं क्या हैं.
दुनिया के कुपोषितों में से 19 करोड़ कुपोषित लोग भारत में हैं. भारतीय आबादी के सापेक्ष भूख की मौजूदगी करीब साढ़े 14 फीसदी की है. भारत में पांच साल से कम उम्र के 38 प्रतिशत बच्चे सही पोषण के अभाव में जीने को विवश है जिसका असर मानसिक और शारीरिक विकास, पढ़ाई-लिखाई और बौद्धिक क्षमता पर पड़ता है. रिपोर्ट की भाषा में ऐसे बच्चों को ‘स्टन्टेड' कहा गया है. पड़ोसी देश, श्रीलंका और चीन का रिकॉर्ड इस मामले में भारत से बेहतर हैं जहां क्रमशः करीब 15 प्रतिशत और 9 प्रतिशत बच्चे कुपोषण और अवरुद्ध विकास के पीड़ित हैं. भारतीय महिलाओं के हाल भी कोई अच्छे नहीं. रिपोर्ट बताती है कि युवा उम्र की 51 फीसदी महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं यानी उनमें खून की कमी है.
भारत में कुपोषण से निपटने के लिए योजनाएं बनी हैं लेकिन उन पर सदाशयता और शिद्दत से अमल होता नहीं दिखता. महंगाई और खाद्य पदार्थों की कीमतों में उछाल ने गरीबों और निम्न आय के लोगों को असहाय बना दिया है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली हांफ रही है और मिड-डे मील जैसी आकर्षक परियोजनाएं भ्रष्टाचार और प्रक्रियात्मक विसंगतियों में डूबी हैं.
उधर किसान बिरादरी कर्ज और खराब मौसम की दोहरी मार में पिस रही है. बीज और खाद की उपलब्धता का रास्ता निजी कंपनियों से होकर जा रहा है, पानी सूख रहा है, खेत सिकुड़ रहे हैं, निवेश के जोन पनप रहे हैं, तेल और ईंधन की कीमतें उछाल पर हैं और लोग जैसे-तैसे बसर कर रहे हैं. इस दुर्दशा में उस अशांति, हिंसा और भय को भी जोड़ लीजिए जो कभी धर्म-जाति के नाम पर कभी खाने-पीने या पहनने-ओढ़ने के नाम पर बेतहाशा हो रही है.
कहा जा सकता है कि खराब तस्वीर बता रहे हैं. हाल इतना भी बुरा नहीं तो फिर ये आंकड़े गलत हैं? या वो दृश्य फर्जी हैं जो वहां से फूट रहे हैं जहां असली भारत बसता है? क्या किया जाना चाहिए से पहले इस चिंता को अपनी आगामी सक्रियता का आधार बनाना चाहिए कि हालत नहीं सुधरे तो सारी भव्यताएं, सारा ऐश्वर्य, सारी फूलमालाएं सूखते देर नहीं लगेगी और भूख और अन्य दुर्दशाएं हमें एक कबीलाई हिंसा में धकेल देंगी.
सरकारी योजनाएं दीर्घकालीन और सख्ती से लागू होनी चाहिए, सुनिश्चित क्रियान्वयन के लिए एक मुस्तैद पारदर्शी मशीनरी बनायी जाए, गैर-योजनागत मदों के खर्चों में कटौती हो, गरीबों से सब्सिडी न छीनी जाए, बैंकों को उन्हें राहत देने को कहा जाए, किसानों के लिए सस्ते और टिकाऊ संसाधन विकसित किए जाएं, अंधाधुंध शहरीकरण और निर्माण को बंद किया जाए, स्कूली बच्चों की शिक्षा में देहात, किसानी, गरीबी और पोषण से जुड़े विषय अनिवार्य किए जाएं, विशेषज्ञ दौरा करें, वंचित तबकों के बच्चों को पोषणयुक्त आहार के लिए केंद्र खोले जाएं, बीमार हों तो उन्हें सही समय पर सही इलाज मिल सके, लोगों में सामूहिकता और भागीदारी की भावना का विकास करने के लिए अभियान चलाए जाएं, खाते-पीते घरों के स्कूली बच्चों को फूड वेस्टेज के नुकसान के बारे में शिक्षित और जागरूक किया जाए.
महंगी दावतों और मध्यवर्गीय विलासिताओं पर अंकुश लगाया जाए, विज्ञापन कंपनियों को भी दिशा निर्देश दिए जाएं, होटलों और शैक्षिक संस्थानों, दफ्तरों, कैंटीनों, बैठकों, शादी और अन्य समारोहों और अन्य संस्थाओं में खाना बेकार न किया जाए. इस खाने के वितरण की हर राज्य में जिला स्तर पर और भी यथासंभव निचले स्तरों पर मॉनीटरिंग की व्यवस्था हो. इस तरह ऐसे बहुत से तरीके होंगे जो हम अपने समाज की बदहाली और कुपोषण से छुटकारे के लिए कर सकते हैं. आखिर में खुद से पूछना चाहिए कि क्या हम अशांत, अस्थिर, हिंसक और अस्वस्थ समाज चाहते हैं या उसे बदलना चाहते हैं?