मंत्रियों के आयकर का बोझ जनता पर क्यों
१९ सितम्बर २०१९खबरों के मुताबिक उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के मंत्री भी टैक्स के बोझ से मुक्त हैं. आखिर जब आयकर विभाग पाई पाई पर नजर रखने का दावा करता है और आए दिन उसके छापों और अभियानों की खबरें आती रहती हैं और नागरिकों को समय पर टैक्स भरने की हिदायतें और मशविरे दिए जाते हैं तो ये बड़ी हैरानी की बात है कि यूपी जैसे बड़े राज्य के मंत्रियों का इतना लंबाचौड़ा अमला खजाने से निकालकर ही खजाने को भर रहा था! और ये सब हो रहा था करीब 40 साल पहले बने एक कानून के चलते. पिछले दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में खबर आने के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आदेश निकाला कि उक्त कानून को वापस लिया जाएगा और अब मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्री अपना टैक्स खुद भरेंगे.
यूपी में मंत्रियों पर ‘मेहरबानी' का ये कानून तो 1981 में बना था. उत्तराखंड ने 2000 में यूपी से अलग होकर भी इस कानून में बदलाव की जरूरत नहीं समझी. रिपोर्ट के मुताबिक हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में मंत्रियों को टैक्स माफी का कानून 1966 का है. और मध्य प्रदेश में 1994 से. पंजाब भी इन राज्यों में श्रेणी में ही रहता अगर पिछले साल तक मिलने वाली ये सुविधा खत्म ना कर दी जाती. 1947 के एक कानून में संशोधन कर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने मंत्रियों को टैक्स नहीं भरने की छूट हटा दी.
‘उत्तर प्रदेश मंत्री वेतन, भत्ते और विविध कानून, 1981' के तहत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और मंत्रियों के इनकम टैक्स का भुगतान अभी तक राजकीय कोष से किया जाता रहा है. पूर्व मुख्यमंत्री वीपी सिंह के कार्यकाल में बने इस कानून से अब तक 19 मुख्यमंत्री और करीब हजार मंत्री लाभान्वित हुए हैं. मीडिया में यूपी से जुड़े वरिष्ठ नेताओं और जानकारों के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक वीपी सिंह ने विधानसभा में तर्क दिया था कि अधिकतर मंत्री चूंकि गरीब पृष्ठभूमि से हैं और उनकी आय भी कम है इसलिए उनका आयकर सरकार को ही जमा करा देना चाहिए. वैसे उस कानून के तहत मंत्री और राज्यमंत्री के लिए एक हजार रुपये प्रति महीना का वेतन निर्धारित किया गया था. उपमंत्री के लिए साढ़े छह सौ रुपये थे. लेकिन ये तब की बात थी.
इन करीब 40 साल में यूपी के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों की आर्थिक स्थिति कैसी रही है, इसका एक मोटा सा अंदाजा तो चुनावी हलफनामे में दर्ज उनके ब्यौरों से ही हो जाता है जिनमें लाखों करोड़ों की चल-अचल संपत्तियों का उल्लेख देखा जा सकता है. और ये बात सिर्फ यूपी तक महदूद नहीं है. बेशक, त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार जैसे कुछ बड़े अपवाद देश में जरूर हैं. ना सिर्फ संपत्तियों में भारी वृद्धि की बात है, इन वर्षों में केंद्र हो या राज्य, सांसद हो या विधायक, प्रधानमंत्री हो या मुख्यमंत्री, सभासद्, मंत्री, राज्यमंत्री, उपमंत्री हों या दर्जाधारी सबके वेतन, भत्तों और अन्य मानदेयों से लेकर पेंशन तक में बेतहाशा वृद्धि हो चुकी है.
मिसाल के लिए तेलंगाना को लें. आंकड़े बताते हैं कि सबसे नये राज्य के मुख्यमंत्री की सैलरी इस देश के सभी मुख्यमंत्रियों और केंद्र के मंत्रियों तक से कहीं ज्यादा है, प्रति माह कुल चार लाख दस हजार रुपये! इसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री का नंबर आता है जिनका वेतन कुल तीन लाख नब्बे हजार रुपये प्रति माह बताया गया है. तीसरे नंबर पर यूपी के चीफ मिनिस्टर आते हैं जिन्हें वेतन भत्ते आदि सब मिलाकर हर माह तीन लाख पैसठ हजार रुपये मिलते हैं. सबसे कम वेतन पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्रियों की है, इनमें भी सबसे कम त्रिपुरा के मुख्यमंत्री को मिलता है, एक लाख रुपये से कुछ अधिक.
एक खबर के मुताबिक 2016 में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री और मंत्रियों का मूल वेतन 12 हजार रुपये से बढ़ाकर 40 हजार रुपये प्रति माह किया गया था. उपमंत्रियों और राज्यमंत्रियों का मूल वेतन 35 हजार रुपये किया गया. बतौर विधायक इन सब को सवा लाख रुपये के भत्ते अलग से मिलते ही हैं. अब उत्तराखंड जैसे अपेक्षाकृत छोटे और 19 साल पहले गठित राज्य को देखें जिस पर करीब 45 हजार करोड़ रुपए के कर्ज का बोझ बताया जाता है. वहां मंत्रियों और विधायकों, विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष आदि के वेतन भत्तों में 2017 में भारी वृद्धि की गई. मंत्रियों का मासिक वेतन 45 हजार से बढ़ाकर 90 हजार और विधायकों का वेतन दस हजार से बढ़ाकर तीस हजार कर दिया गया है. भत्ते और अन्य मानदेय अलग. विधानसभा क्षेत्र भत्ता ही 60 हजार से बढ़ाकर डेढ़ लाख हो गया और पेंशन भी दोगुनी- 20 हजार से बढ़ाकर 40 हजार. वैसे पिछले दिनों हाईकोर्ट के आदेश को नजरअंदाज करते हुए एक विवादास्पद अध्यादेश के जरिए उत्तराखंड सरकार पूर्व मुख्यमंत्रियों की आवास और बिजली पानी के बिल से जुड़े लाखों करोड़ों की देनदारी भी माफ कर चुकी है.
वेतन भत्ते बढ़ाना सरकारों का अधिकार है. विधानसभा उसे मंजूर करती है. लेकिन इस अधिकार के साथ कुछ दायित्व और नैतिक जवाबदेही भी जुड़ी हैं. पिछले करीब दो ढाई दशकों में वेतन भत्तों में भारी वृद्धि राज्यों में हुई है तो कुछ राज्यों के मंत्रियों पर कानून की ये ‘कृपा' क्यों जारी रहने दी गई. जाहिर है इसका कोई सीधा जवाब न सरकार के पास है न प्रशासन के पास न आयकर विभाग के पास. दूसरी ओर जवाब मांग सकने वाला विपक्ष या तो खुद भी उतना ही जिम्मेदार है या शिथिल, और जनता? वो ऐसे मुद्दों पर उदासीन ही नजर आती है.
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