महिलाएं क्या अपने लिए सत्ता चाहती हैं?
८ अप्रैल २०२४केन्या का एक गांव है उमोजा. इस गांव में संबरू समुदाय की वे महिलाएं रहती हैं जो किसी ना किसी तरीके की लैंगिक हिंसा से पीड़ित रही हैं. यह गांव इसलिए भी अलग है क्योंकि यहां पुरुषों को आने की इजाजत नहीं है. सिर्फ महिलाओं को बसने की अनुमति देने वाला यह गांव क्या मातृसत्ता का उदाहरण है या पितृसत्ता से पीड़ित औरतों की अपनी एक अलग दुनिया बसाने की कोशिश?
नारीवाद के खिलाफ कई मिथक हैं. इनमें से ही एक मिथक कहता है कि नारीवाद का मकसद पितृसत्ता को हटाकर मातृसत्ता यानी औरतों की सत्ता स्थापित करना है. 2020 में पियू रिसर्च सेंटर के एक सर्वे के मुताबिक ज्यादातर अमेरिकी लैंगिक अधिकारों में तो भरोसा करते हैं लेकिन वे खुद को नारीवादी नहीं मानते. लैंगिक समानता का समर्थन करने और खुद को नारीवादी कहने वाले लोगों में हमेशा ही एक बड़ा अंतर रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह नारीवाद के खिलाफ मौजूद ये मिथक ही हैं.
क्या है मातृसत्ता?
मातृसत्ता का मतलब एक ऐसी व्यवस्था से है जहां एक मां या परिवार की सबसे उम्रदराज महिला के पास सारे अधिकार होते हैं. यह व्यवस्था एक परिवार से लेकर एक पूरे समुदाय में भी लागू हो सकती है. लेकिन ऐसी व्यवस्थाएं मौजूदा दौर में शायद ही कहीं नजर आती हैं. लैंगिक समानता की वकालत करनेवाला नारीवादी आंदोलन इस बात की मांग नहीं करता है कि समाज में सिर्फ महिलाओं की सत्ता होनी चाहिए. इस आंदोलन का मकसद पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध है, जो महिलाओं के साथ हो रही गैरबराबरी के लिए जिम्मेदार है.
क्या नारीवादियों को सच में पुरुषों से नफरत होती है?
स्वाती सिंह, उत्तर प्रदेश में महिला अधिकारों पर काम करनेवाली संस्था मुहीम की संस्थापक हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने बताया कि नारीवाद को लेकर हमारे समाज की समझ आज भी बेहद सतही है. उन्होंने कहा, "लोगों के लिए नारीवाद का मतलब सिर्फ पुरुषों से नफरत करना है. ऐसे में यह मिथक की नारीवाद मातृसत्ता लाना चाहता है मजबूत होगा ही." स्वाति सिंह का कहना है कि असल मायनों में नारीवाद का मातृसत्ता से कोई संबंध नहीं है. नारीवाद तो सभी के लिए बराबरी की बात करता है.
मातृसत्ता नहीं, बात बराबरी की
नारीवाद एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन है. इस आंदोलन की शुरुआत महिलाओं के लिए वोट, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, समान वेतन, हिंसा से बचाव जैसे बुनियादी अधिकारों की मांग के साथ हुई थी. चार अलग-अलग दौर से गुजर चुका यह आंदोलन आज भी समानता की मांग के साथ टिका हुआ है. नारीवादी आंदोलन की कोशिश पितृसत्तात्मक व्यवस्था को हटाकर लैंगिक रूप से समानता वाला समाज बनाने की रही है. एक ऐसा आंदोलन जो पावर यानी सत्ता को हर रूप में नकारता है.
शशांक क्वीयर और महिला अधिकारों पर काम करनेवाली संस्था हिमाचल क्वीयर फाउंडेशन के सह-संस्थापक हैं. वह बताते हैं, "यह मिथक कि नारीवाद मातृसत्ता चाहता है पुरुषों के कंट्रोल वाली ही विचारधारा है. इस मिथक के पीछे एक वजह सत्ता जाने का डर भी है. डर यह कि अगर महिलाओं को भी वे सभी विशेषाधिकार मिल गए जो पुरुषों के पास हैं तो क्या होगा? यहां पुरुष महिलाओं को एक विरोधी टीम की तरह देखते हैं."
महिलाओं की सत्ता का डर एक मिथक क्यों?
पिछले साल संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंटोनियो गुटेरेश ने कहा था कि लैंगिक समानता आने में अभी 300 साल और लगेंगे. साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि लैंगिक समानता हमारी आंखों के सामने से ओझल हो रही है क्योंकि पितृसत्ता भी पूरी ताकत के साथ यह लड़ाई लड़ रही है. पूरी दुनिया में महिला अधिकारों का हनन किया जा रहा.
अगर लैंगिक समानता से हमारा समाज इतनी दूर है तो ऐसे में महिलाओं की सत्ता का स्थापित होना महज एक मिथक नहीं है? शशांक मानते हैं कि नारीवाद के खिलाफ मौजूद इन मिथकों के पीछे पितृसत्तात्मक सोच से उपजती एक असुरक्षा की भावना भी है. लोग महिला अधिकारों पर बात तो करना चाहते हैं लेकिन एक तय सीमा के अंदर. पितृसत्तात्मक समाज में सबने नारीवाद के खिलाफ अपनी अलग-अलग परिभाषाएं गढ़ ली हैं.
क्या फेमिनिज्म में पुरुषों की कोई जगह नहीं है?
पुरुषों की तुलना में आज भी महिलाओं के पास कम संसाधन हैं. शिक्षा और रोजगार के अवसर बेहद सीमित हैं. महिला हिंसा उनके आगे बढ़ने के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट के रूप में आज भी मौजूद है. संयुक्त राष्ट्र के 2021 के आंकड़ों के ही मुताबिक हर 11 मिनट पर एक लड़की या महिला की हत्या उसके पुरुष रिश्तेदार द्वारा की गई. ये आंकड़े और तथ्य बताते हैं कि हम आज भी लैंगिक बराबरी से कितने पीछे हैं.
स्वाती कहती हैं, "हाल ही में मैं एक मीटिंग का हिस्सा थी जहां महिला अधिकारों पर काम कर रहे कुछ पुरुष भी आए थे. उनका तक यह मानना था कि नारीवाद कहीं ना कहीं मातृसत्ता स्थापित करने की बात तो करता है. नारीवाद की सीमित समझ और इससे जुड़े मिथक आंदोलन का नुकसान ही कर रहे हैं. आंदोलन के खिलाफ मौजूद यह मिथक शायद जरूर मातृसत्ता ले आएगा.”
नारीवाद एक जेंडर से सत्ता छीनकर दूसरे जेंडर को सौंपने या उत्पीड़न की एक व्यवस्था को हटाकर दूसरी व्यवस्था स्थापित करने की बात नहीं करता. इसके उलट नारीवादी आंदोलन उन सभी लोगों के समान अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है जिन्हें पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत दबाया गया है. यह विचारधारा सदियों से उत्पीड़ित जेंडर और समुदाय से आनेवाले लोगों की बेहतरी की मांग करती है. इस मिथक को दूर करने के लिए यह समझना जरूरी है कि किसी तरीके के उत्पीड़न के विरोध का मतलब सत्ता स्थापित करना नहीं है.