मां बनने में बढ़ती मुश्किलें
१३ नवम्बर २०१३पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के कुछ विशेषज्ञों ने इस इलाज का खर्च कम करने के लिए ममता बनर्जी सरकार से सार्वजनिक-निजी क्षेत्र की भागीदारी (पीपीपी) के तहत इसे लाने की सिफारिश की है. कोलकाता में आयोजित एक सेमिनार में देश-विदेश से जुटे विशेषज्ञों ने मां बनने की समस्या और इससे जुड़े अलग अलग पहलुओं पर गहन विचार-विमर्श किया.
बढ़ती तादाद
भारत में अलग अलग कारणों से मां नहीं बन पाने वाली महिलाओं की तादाद लगातार बढ़ रही है. देश में लगभग 15 फीसदी महिलाएं इस समस्या से जूझ रही हैं. इसके लिए कई वजहें जिम्मेदार हैं. कहीं देर से शादी हो रही है तो कहीं करियर के चक्कर में संतान प्रथामिकता सूची में नीचे पहुंच जाती है. इलाज की समुचित और सस्ती सुविधाएं उपलब्ध नहीं होने की वजह से कई लोग आजीवन संतान के लिए तरसते रह जाते हैं. देश के खासकर हिंदीभाषी इलाकों में प्रगतिशीलता के तमाम दावों के बावजूद अब भी संतानहीनता को एक अभिशाप माना जाता है. संतानहीन महिलाओं को बांझ कहा जाता है और उनको आजीवन फब्तियां सुननी-सहनी पड़ती हैं. चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि बांझपन भी किसी दूसरी बीमारी की तरह है और तकनीक की प्रगति के चलते अब ऐसे ज्यादातर मामलों का इलाज संभव है. हालांकि अब भी कृत्रिम गर्भाधान के तरीके महंगे होने की वजह से यह आम लोगों की पहुंच से बाहर है.
किशोरावस्था से जागरुकता जरूरी
कोलकाता के सेमिनार में विशेषज्ञों की इस बात पर आम राय थी कि मां नहीं बन पाने की समस्या से निपटने के लिए किशोरियों में जागरुकता पैदा करना जरूरी है. कई छोटे-मोटे लक्षण आगे होने वाली बड़ी बीमारियों के संकेत होते हैं. समय रहते उनको पहचान कर मामूली इलाज से ही समस्या दूर हो सकती है. विशेषज्ञों ने इस संदर्भ में पोलिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम (पीसीओ) का जिक्र करते हुए कहा कि यह बीमारी बेहद मामूली है और किशोरावस्था में ही इसके लक्षण पहचान कर इसे दूर किया जा सकता है. अगर इसकी अनदेखी की गई तो आगे चल कर यह महिलाओं में बांझपन की वजह बन सकती है. मधुमेह और इस बीमारी के लिए शरीर का एक ही जीन जिम्मेदार है. इसलिए घर-परिवार में किसी को मधुमेह होने की स्थित में परिवार की युवतियों को अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए.
सेमिनार के आयोजक और बर्थ नामक फर्टिलिटी क्लीनिक के संचालक डा. गौतम खास्तगीर कहते हैं, इस समस्या से बचने के लिए जीवनशैली में बदलाव जरूरी है. वह इसके लिए कुछ हद तक माता-पिता को भी जिम्मेदार मानते हैं. उनका कहना है कि आजकल बच्चों का पालन-पोषण ऐसे तरीके से किया जाता है जिसमें उनको ज्यादा शारीरिक मेहनत नहीं करनी पड़ती. इसके अलावा युवा वर्ग में फास्ट फूड का प्रचलन भी तेजी से लोकप्रिय हो रहा है. इससे कई समस्याएं पैदा हो रही हैं.
लंदन विश्वविद्यालय में रिप्रोडक्टिव मेडिसिन की प्रोफेसर रीना अग्रवाल कहती हैं, "पीसीओ जैसी छोटी-मोटी समस्याएं शुरूआती दौर में आसानी से दूर की जा सकती हैं. लेकिन इनकी अनदेखी के नतीजे खतरनाक हो सकते हैं. पीसीओ से आगे चल कर गर्भाशय का कैंसर हो सकता है." स्त्री रोग विशेषज्ञ संजीव मुखर्जी कहते हैं, "समय पर इलाज नहीं कराने की स्थिति में आगे चल कर इससे गर्भधारण की दिक्कतों के अलावा कई अन्य समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं." विशेषज्ञों में इस बात पर आम राय थी कि जीवनशैली में बदलाव से आधी समस्याएं हल हो सकती हैं.
सार्वजनिक-निजी भागीदारी
बांझपन का इलाज करने वाले विशेषज्ञों ने पश्चिम बंगाल सरकार से बांझपन के इलाज को सार्वजनिक –निजी भागीदारी (पीपीपी) के दायरे में लाने का अनुरोध किया ताकि यह महंगा इलाज आम लोगों तक पहुंच सके. द बंगाल इनफर्टिलिटी एंड रिप्रोडक्टिव थेरेपी हास्पीटल (बर्थ) ने स्वास्थ्य राज्य मंत्री चंद्रिमा भट्टाचार्य को इस आशय का एक प्रस्ताव दिया है. बर्थ के चिकित्सा निदेशक डॉ.गौतम खास्तगीर कहते हैं, "हमने सरकार से महानगर से सटे इलाकों में स्थित अस्पतालों का वह हिस्सा देने को कहा है जिनका कोई इस्तेमाल नहीं होता. वहां ऐसे क्लीनिक शुरू किए जा सकते हैं. वह कहते हैं कि सरकार आधारभूत ढांचा मुहैया कराए तो हम डॉक्टर मुहैया करा सकते हैं." डॉ. खास्तगीर बताते हैं कि इस भागीदारी से बांझपन के इलाज का खर्च घट कर एक-तिहाई रह जाएगा. इससे गरीब तबके के लोगों को काफी फायदा होगा. स्वास्थ्य राज्य मंत्री चंद्रिमा ने इस पर विचार करने की बात कही है, "यह प्रस्ताव दिलचस्प है. सरकार इस पर गंभीरता से विचार करेगी." फिलहाल देश में और कहीं ऐसी व्यवस्था नहीं है. अगर बंगाल में इसकी शुरूआत हुई तो यह एक अनूठी पहल होगी.
रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता
संपादनः एन रंजन