"मानव जीवन और पर्यावरण"
२२ मई २०१३प्रकृति ने पृथ्वी पर जीवन के लिये प्रत्येक जीव के सुविधानुसार उपभोग संरचना का निर्माण किया है. परन्तु मनुष्य ऐसा समझता है कि इस पृथ्वी पर जो भी पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, नदी, पर्वत व समुद्र आदि हैं, वे सब उसके उपभोग के लिये हैं और वह पृथ्वी का मनमाना शोषण कर सकता है. यद्यपि इस महत्वाकांक्षा ने मनुष्य को एक ओर उन्नत और समृद्ध बनाया है तो दूसरी ओर कुछ दुष्परिणाम भी प्रदान किये हैं, जो आज विकराल रुप धारण कर हमारे सामने खडे हैं. पृथ्वी पर प्रकृति शोभा के लिये पर्यावरण की सुरक्षा विकास का एक अनिवार्य भाग है. पर्यावरण की समुचित सुरक्षा के अभाव में विकास की क्षति होती है. इस क्षति के कई कारण हैं. यांत्रिकीकरण के फलस्वरूप कल-कारखानों का विकास हुआ. उनसे निकलने वाले उत्पादों से पर्यावरण का निरन्तर पतन हो रहा है. कारखानों से निकलने वाले धुएं से कार्बन मोनो ऑक्साइड और कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी गैसें वायु में प्रदूषण फैला रही हैं, जिससे आंखों में जलन, जुकाम, दमा तथा क्षयरोग आदि हो सकते हैं.
दिसम्बर 1984 की भोपाल गैस रिसाव त्रासदी के जख्म अभी भी भरे नहीं हैं. वर्तमान में भारत की जनसंख्या एक अरब से ऊपर तथा विश्व की छः अरब से अधिक पहुंच गई है, इस विस्तार के कारण वनों का क्षेत्रफल लगातार घट रहा है, 10 साल में लगभग 24 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र समाप्त हो गया है. नाभिकीय विस्फोटों से उत्पन्न रेडियोएक्टिव पदार्थों से पर्यावरण दूषित हो रहा है. अस्थि कैंसर, थायरॉइड कैंसर त्वचा कैंसर जैसी घातक बीमारियां हो रही हैं. उपयुक्त विवेचना से स्पष्ट है कि पर्यावरण सम्बन्धी अनेक मुददे आज विश्व की चिन्ता का विषय हैं.
ब्लॉग: अंक प्रताप सिंह
संपादनः आभा मोंढे