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मोबाइल की वजह से गायब हो जाएंगी गौरैया

२५ जून २०१०

चील, बाज़, गिद्ध और गरुड़ ही नहीं, गौरैया भी अब भारत में लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है. जलवायु परिवर्तन नहीं, मोबइल फ़ोन का चस्का इस चिड़िया की चहचहाहट के चुप हो जाने का प्रमुख कारण बन गया है.

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मानव विकास की बलि चढ़ती गौरैयातस्वीर: AP

एक समय था, जब भोर होते ही गौरैयों की चहक के साथ शहरों और गांवों में दिन की चहल पहल शुरू होती थी. अब वह शुरू होती है मोबाइल फ़ोन प्रेमियों की बातचीत के साथ.

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तस्वीर: AP

वैसे तो पूरी दुनिया में गौरैयों की संख्या तेज़ी से घट रही है. इस तेज़ी से कि पक्षी संरक्षण के लिए ब्रिटेन की रॉयल सोसायटी ने गौरैये को अब उस लाल सूची में शामिल कर लिया है, जो दिखाती है कि पक्षियों की कौन कौन सी प्रजातियां विलुप्त हो जाने के ख़तरे का सामना कर रही हैं. लेकिन, आश्चर्य की बात यह है कि इस सोसायटी के अनुसार भारत में भी वह विलुप्त हो जाने के भारी ख़तरे में है.

केरल में कोलम के एसएन कॉलेज में जूलॉजी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर सैनुद्दीन पट्टाझी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं कि नया अध्ययन यही दिखाता है कि भारत के केरल सहित कई हिस्सों में गैरैयों की संख्या लगातार घट रही है. शहरी इलाकों में उसने चिंताजनक रूप ले लिया है. कारण कई हैं. सबसे बड़ा "अवैज्ञानिक कारण है मोबाइल फ़ोन टावरों का तेज़ी से बढ़ना."

डॉक्टर पट्टाझी ने 2009-2010 में केरल में इस समस्या का खुद अध्ययन किया है. उन्होंने पाया कि रेलवे स्टेशनों, अनाज के गोदामों और रिहायशी बस्तियों में गौरैयां अब लगभग नहीं मिलतीं. कारण हैं कि कारों के लिए सीसारहित (अनलेडेड) पेट्रोल से पैदा होने वाले मीथाइल नाइट्रेट जैसे यौगिक, जो उन कीड़ों मकोड़ों के लिए बहुत ज़हरीले होते हैं, जिन्हें गौरैयां चुगती हैं. खेतों और बगीचों में ऐसे कीटनाशकों का बढ़ता हुआ उपयोग, जो गौरैयों के बच्चों लायक कीड़ों मकोड़ों को मार डालते हैं. घास के खुले मैदानों का लुप्त होते जाना, आजकल के भवनों और मकानों की पक्षियों के लिए अहितकारी बनावट और जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान का बढ़ना भी.

Symbolbild Hand Spatz
तस्वीर: picture-alliance / dpa

लेकिन डॉक्टर पट्टाझी की सबसे चौंकाने वाली खोज यह है कि इमारतों की छतों पर मोबाइल फ़ोन कंपनियों के बढ़ते हुए एंटेना और ट्रांसमीटर टावर गौरैया चिड़ियों की घटती हुई संख्या का आजकल मुख्य कारण बनते जा रहे हैं. उनका कहना है, "ये टॉवर रात दिन 900 से 1800 मेगाहर्ट्ज फ्रीक्वेंसी का विद्युतचुंबकीय विकिरण (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन) पैदा करते हैं, जो चिड़ियों के शरीर के आर पार चला जाता है. उनके तंत्रिकातंत्र और उनकी दिशाज्ञान प्रणाली को प्रभावित करता है. उन्हें अपने घोंसले और चारे की जगह ढूंढने में दिशाभ्रम होने लगता है. जिन चिड़ियों के घोंसले किसी मोबाइल फ़ोन टॉवर के पास होते हैं, उन्हें एक ही सप्ताह के भीतर अपना घोंसला त्याग देते देखा गया."

पट्टाझी यह भी कहते हैं कि वह समय भी बहुत लंबा हो जाता है, जो अंडों के सेने के लिए चाहिए. उनका कहना है, "एक घोंसले में एक से आठ तक अंडे हो सकते हैं. उन्हें सेने में लिए आम तौर पर 10 से 14 दिन लगते हैं. लेकिन जो अंडे किसी मोबाइल फ़ोन टॉवर के पास के किसी घोंसले में होते हैं, वे 30 दिन बाद भी पक नहीं पाते."

डॉक्टर पट्टाझी ने अपनी खोजों के आधार पर 2009 में भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संरक्षण संघ (IUCN) को भी लिख कर अनुरोध किया कि गौरैये को सदा सदा के लिए लुप्त हो जाने से बचाया जाए. भारत सरकार की प्रतिक्रिया यह रही कि उसने गौरैयों की संख्या में गिरावट का सर्वेक्षण करने के लिए एक तीन वर्षीय परियोजना शुरू करने का आदेश दिया है.

रिपोर्टः पीटीआई/राम यादव

संपादनः ए जमाल