खाने की कमी की चिंता को दूर कर सकता है यह मोटा अनाज
७ मई २०२२हमारी दुनिया किस तरह से आपस में जुड़ी हुई है इसका एक उदाहरण यह है कि यूक्रेन पर रूसी हमले का प्रभाव अफगानिस्तान, इथियोपिया और सीरिया जैसे देशों के लोग महसूस कर रहे हैं. ये देश खाने पीने की चीजों के आयात पर निर्भर हैं. रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की वजह से इन देशों में खाद्य असुरक्षा की चिंता गहराती जा रही है.
युद्ध से पहले तक यूक्रेन और रूस मिलकर पूरे विश्व में गेहूं की लगभग एक तिहाई और बाजरे की एक चौथाई मांगों को पूरा करते थे. साथ ही, दुनिया भर में इस्तेमाल होने वाले सूरजमुखी के तेल का दो तिहाई हिस्सा भी इन्हीं दोनों देशों से आता है. जाहिर है कि चिंता बढ़ने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं.
यूक्रेन ने 2022 के लिए अनाज की पैदावार का पूर्वानुमान जारी नहीं किया है, लेकिन इस सप्ताह चेतावनी दी है कि रूस के द्वारा काले सागर बंदरगाहों की नाकाबंदी से दसियों लाख टन यूक्रेनी अनाज बर्बाद हो सकता है. यूक्रेन की इस चेतावनी ने खाद्य असुरक्षा से जुड़ी चिंता बढ़ा दी है जिससे एशिया, अफ्रीका, और यूरोप प्रभावित हो सकते हैं.
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नाइजीरिया में एलेक्स एकवुमे फेडरल यूनिवर्सिटी के कृषि अर्थशास्त्री रॉबर्ट ओनीनेके का कहना है कि दुनिया पहले से ही इस तरह के संकट का सामना कर रही है. यह संकट "हर जगह बढ़ रहा है" और "यहां भी आ सकता है." ओनीनेके का कहना है कि अब समय आ गया है कि चावल और गेहूं जैसे लोकप्रिय अनाज के विकल्पों की तलाश की जाए. उनका मानना है कि बाजरा इस अनाज का एक विकल्प हो सकता है. वह कहते हैं, "बाजरा काफी ज्यादा पौष्टिक होता है, किसी भी तरह की जलवायु में पैदा किया जा सकता है, इसके उत्पादन में समय कम लगता है और यह कार्बन का भी कम उत्सर्जन करता है. इसे लोगों की नजर में लाने की जरूरत है.”
पुराने अनाज का नया युग
बाजरे का उत्पादन लगभग 3000 ईसा पूर्व से किया जा रहा है. माना जाता है कि यह उन शुरुआती फसलों में से एक है जब लोगों ने खेती शुरू की थी. लंबे समय से लाखों किसान मुख्य फसल के तौर पर इसका उत्पादन कर रहे हैं, खासकर भारत, चीन और अफ्रीका के कई हिस्सों में.
बाजरे में पर्याप्त मात्रा में आयरन, फाइबर और कुछ विटामिन होते हैं. इसलिए इसे ‘पोषक अनाज' भी कहा जाता है. दुनिया के करीब 130 से ज्यादा देशों में इसका उत्पादन होता है. हालांकि, इसके बावजूद अफ्रीका और एशिया के महज 9 करोड़ लोग ही मुख्य भोजन के रूप में इसका इस्तेमाल करते हैं. इसे अक्सर गरीबों का भोजन माना जाता है.
तुलनात्मक रूप से देखें, तो दुनिया की लगभग आधी आबादी चावल पर और एक तिहाई आबादी गेहूं पर निर्भर है. हालांकि, वर्ष 2023 को संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष के रूप में घोषित किया गया है. ऐसे में इस अनाज को लेकर लोगों की धारणा बदल सकती है. विशेषज्ञों का कहना है कि यह अच्छी बात होगी.
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यह अनाज ना सिर्फ स्वास्थ्य के हिसाब से सही है, बल्कि कठिन परिस्थितियों में भी इसका उत्पादन किया जा सकता है. जिस तरह से दुनिया जलवायु परिवर्तन का सामना कर रही है उस स्थिति में यह अनाज खाद्य असुरक्षा की चिंता को कम कर सकता है.
बाजरे का उत्पादन गर्म और सूखाग्रस्त इलाकों में भी किया जा सकता है. इसे गेहूं, धान या मक्के की तुलना में काफी कम पानी की जरूरत होती है. ओनीनेके कहते हैं, "इसके उत्पादन में समय भी काफी कम लगता है. बाजरे की कुछ फसल महज 60 से 90 दिनों के भीतर तैयार हो जाती है. धान की खेती के विपरीत बाजरे की खेती के दौरान बहुत कम या ना के बराबर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है.”
संयुक्त राष्ट्र ने इसके और फायदे बताते हुए कहा कि इसके उत्पादन में सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों की भी कम जरूरत होती है. साथ ही, यह मिट्टी की उर्वरता को भी बढ़ा सकता है.
क्या दुनिया बाजरे के ज्यादा उत्पादन के लिए तैयार है?
ओनीनेके कहते हैं कि मौजूदा स्थिति यह है कि एशिया और अफ्रीका में बाजरे का जितना उत्पादन किया जा रहा है वह स्थानीय मांगों को भी पूरा नहीं कर सकता है. वह कहते हैं, "अगर बाजरे के निर्यात को बढ़ावा देना है, तो देश की सरकारों को हस्तक्षेप करना होगा. सब्सिडी और सरकारी स्तर पर खरीद सुनिश्चित करके, बाजरे की खेती को आसानी से बढ़ाया जा सकता है.”
बाजरे की खेती बढ़ने का मतलब है कि इसके प्रसंस्करण के साधनों में भी वृद्धि करनी होगी. भारत सबसे ज्यादा बाजरे का उत्पादन करने वाले देशों में से एक है. 1960 के दशक में यहां हरित क्रांति हुई. उस समय अकाल से निपटने के लिए, फसलों के उत्पादन पर दी गई सब्सिडी और बड़े पैमाने पर हुए कृषि औद्योगीकरण से चावल और गेहूं को फायदा हुआ. बाजरे के प्रसंस्करण के लिए जो बुनियादी ढांचा चाहिए वह आज भी मौजूद नहीं है.
भारतीय बाजरा अनुसंधान संस्थान के निदेशक विलास टोनपी ने कहा कि संतुलन बनाए रखने के लिए मोती और फिंगर जैसी बाजरे की प्रजातियों पर ध्यान देना चाहिए. इन्हें कम प्रसंस्करण की जरूरत होती है.
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उन्होंने कहा, "गेहूं के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले बुनियादी ढांचे में एक छोटा बदलाव करके इन मोटे अनाजों का प्रसंस्करण किया जा सकता है. हमें भूसी वाले छोटे अनाज के प्रसंस्करण के लिए बुनियादी ढांचे का भी विकास करना चाहिए."
भारत में जैव विविधता से जुड़ी गैर-लाभकारी संस्था एम एस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन के मानवजाति वनस्पति विज्ञानी डॉक्टर ईडी इजरायल ओलिवर किंग ने कहा कि बाजरे के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी सब्सिडी और सहायता की जरूरत होगी. ओलिवर किंग इसे ‘चार चरणों वाली रणनीति' के रूप में परिभाषित करते हैं.
वह कहते हैं, "उच्च किस्म के बीजों को चुनने के लिए बीज के संरक्षण का प्रयास किया जाना चाहिए. फसल के आनुवंशिक रूपों की जांच करने के लिए बड़े पैमाने पर खेती की जानी चाहिए. प्रसंस्करण की तकनीक में बदलाव करना चाहिए. साथ ही, वैश्विक स्तर पर होने वाले फूड फेस्टिवल के जरिए इस अनाज को लेकर आम लोगों के मन में जो छवि बनी हुई है उसे बेहतर बनाया जाना चाहिए.”
सभी को साथ लेकर चलना
बेंगलुरु स्थित संगठन द मिलेट फाउंडेशन के संस्थापक द्विजेंद्र नाथ गुरु एक वकील हैं और स्थायी खाद्य प्रणालियों से जुड़े मामले को लेकर काम करते हैं. वह कहते हैं कि सिर्फ एक तरह के अनाज की खपत को दूसरे के साथ इस तरह बदलना सही फैसला नहीं है. इससे फसल की निर्भरता का एक नया मोनोकल्चर पैदा होगा. वह कहते हैं, "हम अदूरदर्शी यूरोपीयन संस्कृति पर केंद्रित नीति लागू नहीं कर सकते जो विकासशील देशों को उनके हिस्से के अनाज से वंचित करती है.”
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क्विनोआ भी एक तरह का अनाज है जिसमें काफी ज्यादा मात्रा में पोषक-तत्व होते हैं. एफएओ के मुताबिक, संयुक्त राष्ट्र ने 2013 को अंतर्राष्ट्रीय क्विनोआ वर्ष घोषित किया था. इसके बाद, दक्षिण अमेरिका के इस पारंपरिक फसल का उत्पादन एक तिहाई से अधिक बढ़ गया. एंडियन क्षेत्र में क्विनोआ लंबे समय से स्थानीय तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली फसल थी. अचानक से इस क्षेत्र के आर्थिक और सामाजिक ढांचे में बदलाव होने लगा.
फसल की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए, किसानों ने जल्दी-जल्दी इस फसल का उत्पादन करना शुरू कर दिया. इससे जमीन को उर्वर होने का कम समय मिला. नतीजा ये हुआ कि कई जगहों पर फसलों को काफी ज्यादा नुकसान हुआ. इससे ना सिर्फ मिट्टी की उर्वरता पर असर पड़ता है, बल्कि घरेलू खाद्य सुरक्षा को भी खतरा है.
गुरु ने यह भी कहा कि बाजरा किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करना जरूरी है. उन्होंने कहा, "ऐसा ना होने पर किसानों की जगह सिर्फ बिचौलियों को फायदा होगा.” वेट्टावलन मणिकंदन भी इस बात से सहमत हैं. वह तमिलनाडु में एक कृषि संघ के अध्यक्ष हैं, जहां सरकार बाजरे के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए तैयार है. वह कहते हैं, "हम अपने गांव में बाजरा करीब 8 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बेचते हैं, वहीं इसी बाजरे को पैक करके और ब्रांड का नाम लगाकर शहरों के सुपरमार्ट में करीब 80 रुपये प्रति किलो बेचा जाता है.”
मणिकंदन का मानना है कि दुनिया में बाजरा की मांग बढ़ने से शुष्क जमीन के साथ-साथ उपजाऊ जमीन पर भी इसकी खेती बढ़ेगी. बेहतर गुणवत्ता वाली फसल अच्छी मात्रा में पैदा होगी. इससे इस अनाज को लेकर लोगों के मन में जो छवि बनी है वह भी दूर हो सकती है.
ओलिवर किंग कहते हैं कि बाजरे को लेकर लोगों की जो धारणाएं थीं वह काफी पहले से ही बदलनी शुरू हो गई हैं. आने वाले समय में यह धारणा और बदलेगी. उन्होंने कहा, "तकनीक और बाजरे से बनने वाले खाद्य उत्पादों में सुधार के साथ, बाजरा उत्पादन अंतत: पूरी दुनिया में खाद्य सुरक्षा को मजबूत बना सकता है.”