रैंकिंग का झगड़ा या क्वालिटी बढ़ाने की बहस
२२ अप्रैल २०२०आईआईटी के प्रतिनिधियों का कहना है कि टाइम्स की रैंकिंग प्रक्रिया के मापदंडों और पारदर्शिता पर उन्हें यकीन नहीं है. भारत सरकार की एनआईआरएफ रैंकिंग में उच्च स्थानों पर आने वाले आईआईटी को टाइम्स की पिछली रैंकिंग में टॉप 300 में जगह नहीं मिली थी. शीर्ष प्रौद्योगिकी संस्थानों के इस फैसले से रैंकिंग संस्था, अकादमिक जगत के लोग, उच्च शिक्षा विशेषज्ञ हैरान हैं. टाइम्स ने इन संस्थानों से फैसला वापस लेने की अपील की है. उधर उच्च शिक्षा से जुड़े जानकारों को लगता है कि रैंकिंग से अलग होने का फैसला इन संस्थानों की अपनी कथित कमजोरियों पर पर्दा डालने की कोशिश है. उनके रवैये की आलोचना ये कहते हुए की गयी है कि अगर रैंकिंग से हटना ही है तो सारी रैंकिंग से क्यों नहीं हटते, क्यों वे दूसरी प्रतिष्ठित क्यूएस वैश्विक रैंकिंग प्रक्रिया में बने हुए हैं जहां उनकी स्थिति जरा बेहतर है, जबकि दोनों की पद्धतियों में बहुत मामूली सा फर्क बताया गया है. बात सिर्फ रैंकिंग में न शामिल होने के इस ताजा विवाद की नहीं है. जाने अनजाने देश के इन प्रमुख संस्थानों की नानुकुर ने पुख्ता तरीके से रैंकिंग के कारोबार और भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता और उनकी कमजोरियों को भी चर्चा में ला दिया है.
उच्च शिक्षा बनी कारोबार
20वीं सदी की शुरुआत से ही शैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता के तुलनात्मक अध्ययन होने लगे थे और उस आधार पर श्रेणीबद्ध भी किए जाने लगे थे. लेकिन आखिरी दशकों से शुरू हुई भूमंडलीकरण की हलचलों ने इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया. ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्थाओं के दौर में विश्वविद्यालयों के प्रदर्शन को रेखांकित करने के लिए ग्लोबल रैंकिंग का एक सहज स्वीकार्य सिस्टम खड़ा हो चुका है. आर्थिक उदारवाद ने उच्च शिक्षा में भी निवेश के दरवाजे खोले और उच्च शिक्षा एक भूमंडलीय कारोबार बना. विशेषज्ञों के मुताबिक क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग्स, विश्व के सर्वोच्च विश्वविद्यालयों का तुलनात्मक अध्ययन पेश करने का दावा करती है और इसी तरह टाइम्स हायर एजुकेशन भी विश्व के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की हर पैमाने पर मुकम्मल सूची मुहैया कराने का दावा करती है, लेकिन इन संस्थाओं के अपने अपने दावों के बावजूद वैश्विक रैंकिंग दुनिया भर में फैले उच्चशिक्षण संस्थानों के एक बहुत छोटे से अकादमिक हिस्से को ही मापने में सक्षम हो पाती हैं. इस बात को इन आंकड़ों से भी समझ सकते हैं कि दुनिया में टॉप 100 आंके जाने वाले विश्वविद्यालय, कुल उच्च शिक्षा संस्थानों के सिर्फ 0.5 प्रतिशत और कुल छात्रों के 0.4 प्रतिशत हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. टॉप 100 या 200 में से अधिकांश विश्वविद्यालय, पश्चिम के बड़े अमीर देशों में स्थित हैं खासकर अमेरिका और ब्रिटेन में. तो ऐसे में रैंकिंग की होड़ में पड़ना, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की तरह लगता है.
राष्ट्रीय रैंकिग्स इस लिहाज से ज्यादा व्यापक डाटा उपलब्ध कराती हैं लेकिन विश्वसनीयता और पारदर्शिता का विवाद तो बना ही रहता है. दुनिया के अधिकांश देशों में प्रकाशन संस्थानों और कारोबारी संस्थाओं की व्यावसायिक और सरकारों के विभिन्न स्तरों पर रैंकिंग्स की जाती है. लेकिन बात जब आखिरकार दाखिले की आती है तो उस स्थिति में एक ही मंत्र कारगर साबित होता है और वो है, जहां एडमिशन मिल जाए वही अच्छा है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ऑल इंडिया हायर एजुकेशन सर्वे, 2018-19 के मुताबिक देश में 993 विश्वविद्यालय और करीब चालीस हजार महाविद्यालय हैं. 385 निजी विश्वविद्यालय हैं. उच्च शिक्षा में करीब चार करोड़ विद्यार्थी हैं, इनमें से करीब 49 प्रतिशत लड़कियां हैं. उच्च शिक्षा में दाखिला पाने वाले छात्रों की दर यानी ग्रॉस एनरोलमेंट रेशियो (जीईआर) बढ़कर 26.3 प्रतिशत हो गया है. और विदेशी छात्रों की संख्या 47,427 है.
सुधारों का दबाव
वैश्विक हो या राष्ट्रीय, शैक्षणिक रैंकिंग्स को लेकर सवाल उठते ही रहे हैं और उन्हें किसी न किसी पहलू या अधिकांश पहलुओं के आधार पर कमजोर या अधूरा माना जाता है और उन्हें बाजार का एक हथकंडा भी कहा जाता है. शिक्षा के फैलते बाजार में निवेश और मुनाफे के एक उपयोगी और लाभदायक टूल की तरह, जिसमें रैंकिंग करने वालों और संस्थानों के अपने अपने फायदे जुड़े हुए हैं. अगर भारत के ये प्रौद्योगिकी संस्थान रैंकिंग्स से अलग होने का साहस करें तो ये कदम गौरतलब हो सकता है लेकिन एक से हटकर दूसरी संस्था की रैंकिंग में बने रहना, ये बात हजम नहीं होती. फिर ये सवाल उभरना स्वाभाविक ही है कि ये संस्थान अपने प्रदर्शन पर चिंतित हैं या रैंकिंग की प्रविधि पर? क्या उन संस्थानों को, जो किसी तरह की रैकिंग से बाहर हैं, किसी भी तरह की टॉप कहलाने वाली देसी-विदेशी सूचियों से बाहर हैं, उन्हें बंद हो जाना चाहिए? ऐसे देशों में जहां बहुमत युवा अभी भी उच्च शिक्षा पाने की संभावना से वंचित हैं, शिक्षा संस्थानों को इस लायक बनाना होगा कि वहां और ज्यादा छात्रों को दाखिला मिल सके और साथ ही स्तरीय शिक्षा भी मिल सके.
2013 में यूनेस्को ने उच्च शिक्षा में रैंकिंग्स के उपयोग और दुरुपयोग को लेकर 300 पेज की एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें रैंकिंग्स से जुड़े आकर्षण को लेकर आगाह भी किया गया था कि सिर्फ वर्ल्ड क्लास कहलाने या लंबी कूद लगाने या सरपट सीढ़ियां चढ़ जाने की संस्थानों की परस्पर होड़ या लालच की वजह से उच्च शिक्षा की महत्ती भूमिका, उद्देश्य और मिशन की अनदेखी ही होती है. रैंकिंग्स के जरिए अपनी प्रतिष्ठा के प्रसार और अपने संभावित लाभों के लिए संस्थान अपना मिशन न बदलें, लक्ष्यों को निर्धारित करने या प्रदर्शन को परखने के लिए उन्हें ही एकमात्र या प्राथमिक सूचक न बनाएं, और रैंकिंग बढ़ाने के लिए डाटा के साथ छेड़छाड़ न करें. होना ये चाहिए कि संस्थान या विश्वविद्यालय को एक यथार्थपरक रणनीति और प्रदर्शन का फ्रेमवर्क बनाना चाहिए. गुणवता सुधार के लिए रैंकिग्स का उपयोग करना चाहिए, जवाबदेही निर्मित करनी चाहिए और अतिशयोक्तिपूर्ण प्रचार पर रोक लगानी चाहिए. इस दिशा में छात्रों और अभिभावकों को भी सूचना में साझीदार बनाना चाहिए. अगर प्रदर्शन में सुधार की बात है तो वैकल्पिक प्रविधियां, पद्धतियां और प्रक्रियाएं भी हैं. बात यही है कि कौन सा रास्ता चुना जाता है. रैंकिंग्स का लुभावना और चमकदार रास्ता या फिर कड़ी मेहनत, प्रतिस्पर्धा और अंदरूनी मरम्मत का पेचीदा, लंबा और धूल भरा रास्ता.
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