रोहिंग्या को बेचैन कर गया बोधगया
२३ जुलाई २०१३आतंकवादी हमले के दूरगामी असर को म्यांमार के रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय की पीड़ा से समझा जा सकता है जो इन दिनों विस्थापितों के रूप में भारत सहित तमाम देशों में दर दर भटक रहा है.
बोधगया में आतंकी हमले के बाद समूचे भारत में जहां सुरक्षा को लेकर चिंता दिखीं, वही दूसरी ओर हमले के पीछे रोहिंग्या मुस्लिमों की भूमिका संदेह के घेरे में आने के बाद देश भर में रह रहे इस समुदाय के मासूम परिवारों की जिंदगी में अचानक भूचाल आ गया है. दीन दुनिया से बेसुध अपनी जिंदगी की गाड़ी किसी तरह से पटरी पर लाने की जद्दोजेहद में लगे ये लोग सुरक्षा एजेंसियों के रडार में आ गए हैं.
कौन हैं रोहिंग्या मुस्लिम
रोहिंग्या वह मुस्लिम समुदाय है जो मूल रूप से म्यांमार का अराकान इलाके का है. लेकिन बौद्ध बहुल म्यांमार में दशकों से फौजी हुकूमत के जुल्मों से तंग आकर लाखों रोहिंग्या परिवार बांग्लादेश, भारत और सऊदी अरब सहित अनेक देशों में विस्थापित हो गए. एक अनुमान के मुताबिक म्यांमार की छह करोड़ की आबादी में तीन साल पहले तक 80 लाख रोहिंग्या मुस्लिम थे. लेकिन सांप्रदायिक दंगों के वजह से हाल के समय में 70 लाख रोहिंग्या मुसलमानों कों देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. अब महज 10 लाख रोहिंग्या अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं.
विस्थापन की विभीषिका
किसी तरह जान बचाकर भागे ये लोग अब एक साथ कई मोर्चों पर संघर्ष करने को विवश हैं. अपना घर बार छूटने की पीड़ा को हर क्षण महसूस करते इन परिवारों को पराए मुल्क में न सिर्फ अमानवीय हालात में रहने को मजबूर होना पड़ रहा है बल्कि दूसरे मोर्चे पर शरणार्थी का दर्जा पाने और अपनी पहचान को बरकार रखने की लड़ाई भी पड़ रही है. भारत में राजधानी दिल्ली के अलावा सबसे ज्यादा जम्मू, हरियाणा के मावात, यूपी के मथुरा, सहारनपुर और दक्षिण भारत में हैदराबाद सहित तमाम अन्य शहरों में लगभग दो लाख रोहिंग्या मुस्लिम वैध या अवैध विस्थापित के रूप में रह रहे हैं.
हाल ए दिल्ली
बोधगया हमले के बाद अचानक चर्चा में आए रोहिंग्या समुदाय की एक बस्ती का जायजा लेने पर इंसानियत पर ही सवाल उठने लगते हैं. दिल्ली में दो साल पहले बांगलादेश के रास्ते पहुंचे लगभग 100 लोग दक्षिणी दिल्ली के जैंतपुर गांव में रह रहे हैं. एक एनजीओ जकात फांउडेशन ने इन्हें पहले बदरपुर में रहने को जगह दी. दो साल में इनकी संख्या बढ़कर 200 होने पर जब यह जगह जरूरत से काफी छोटी हो गई तब इन्हें संगठन ने जैंतपुर गांव के बाहर लगभग 100 वर्गफुट की जगह में बसा दिया. समुदाय के मुखिया मोहम्मद हारुन बताते हैं कि किसी तरह यहां पर 50 परिवारों के 195 लोग दिन काट रहे हैं. ये सभी अराकान के बुसीडांग कस्बे से ताल्लुक रखते हैं. बुसीडांग में 47 बीघा जमीन सेना द्वारा छीने जाने के बाद दो गज जमीन में गुजर बसर कर रहे हारुन ने बताया कि पिछले कुछ दिनों से उनकी बस्ती पर पुलिस की चौकसी बढ़ने पर उन्हें बोधगया में हमले की जानकारी मिली. इसके बाद से ही एनजीओ के मालिक ने भी उन पर बस्ती खाली करने का दबाव बढ़ा दिया है. पुलिस के झंझट से बचने के लिए अब एनजीओ भी पल्ला झाड़ कर उन्हें बांगलादेशी शरणार्थी बताने लगा है..
बसा ली छोटी सी दुनिया
जैंतपुर की तरह दिल्ली में रोहिंग्या मुस्लिमों की तीन बस्तियां रोहिणी और खजूरी खास में हैं. छोटी सी बस्ती ही इनकी दुनिया बन गई है. रमजान से लेकर निकाह तक की रस्में इसी बस्ती में अदा हो जाती हैं. जमीन के छोटे से टुकड़े पर बसाई अपनी इस छोटी सी दुनिया में इनकी झोपड़ी भी छोटी है लेकिन दिल के सुकून के लिए तुलनात्मक रूप से बड़ी सी मस्जिद और स्कूल भी बस्ती का अभिन्न अंग है. एक नल 50 परिवारों की प्यास बुझाता है साथ ही एक दूसरे की दुख तकलीफ साझा करने का मौका भी देता है. हारुन बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संगठन ने इन्हें शरणार्थी का दर्जा दे दिया है. इनके लिए बीमारी में दवा या किसी अन्य परेशानी से बचाने का जरिया भी यूएनएचसीआर का वसंत कुंज स्थित दफ्तर ही है. हारुन बताते हैं कि बोधगया हमले से पहले तक पुलिस बस्ती में नहीं आती थी लेकिन हमले के बाद अब पूछताछ के लिए पुलिस का आना लगा रहता है. इतना ही नहीं मजदूरी कर या रिक्शा चलाकर गुजर बसर कर रहे इन लोगों को हमले के बाद काम देने से भी लोग कतराने लगे हैं. दरअसल अब तक इन्हें आसपास ही काम मिल जाता था. इनकी बस्ती भी बर्मा बस्ती के नाम से यहां जानी जाती है. बोधगया हमले के बाद इनकी पहचान पर लगे संदेह के धब्बे के कारण आसपास के लोग अब इन्हें काम देने से कतराने लगे हैं.
हिंदी फिल्में बनी मददगार
म्यांमार से किसी मुस्लिम देश की बजाए भारत आने का कारण पूछने पर बस्ती के सबसे सक्रिय सदस्य मोहम्मद जकारिया कहते हैं कि भारत में हिंदू और मुसलमान प्यार मोहब्बत से रहते हैं. यह बात उन्हें बचपन से पता थी. इस जानकारी का स्रोत म्यांमार में दशकों से बेहद लोकप्रिय रहने वाली हिंदी फिल्में हैं. जकारिया कहते हैं कि फिल्मों में देखा था कि हिंदुस्तान में किसी के लिए मजहब मुसीबत नहीं बनता है, इसीलिए वो बंग्लादेश या मलेशिया में टिकने के बजाए भारत आ गए. हिंदुस्तानी हुकूमत से मांग के सवाल पर वह कहते हैं कि हमें मरना मंजूर है लेकिन भारत से किसी और देश भेजने की बात मंजूर नहीं होगी. या तो म्यांमार जाएंगे या यहीं रहेंगे. मजे की बात है कि हिंदी फिल्में देखकर बड़े हुए ये लोग भारत आकर आसानी से हिंदी बोलना भी सीख गए हैं. सिर्फ महिलाओं को भाषाई दिक्कत होती है..
सू ची भी न कर सकीं मदद
समुदाय के एकमात्र शिक्षित सदस्य 26 साल के मोहम्मद अब्दुल्ला बताते हैं कि पिछले चुनाव में रोहिंग्या समुदाय ने एकजुट होकर लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सांग सूची को वोट दिया था. चुनाव बाद वह सरकार तो नहीं बना सकीं अलबत्ता फौजी हुकूमत की नजरों में रोहिंग्या समुदाय पहले से भी ज्यादा अखरने लगा. इसके बाद से उन पर जुल्मों का मानो पहाड़ ही टूट पड़ा हो. सू ची से कोई मदद मिलने की उम्मीद खत्म होने पर उन्हें देश छोड़ना पड़ा. अब्दुल्ला खुद गोली लगने के बाद किसी तरह जान बचाकर भारत पहुंचे. अब यहां आकर उन्होंने एक छोटे से झोपड़े को स्कूल का नाम देकर इसमें बच्चों को रोहिंग्या भाषा के साथ अरबी, उर्दू और हिंदी पढ़ाना शुरु कर दिया है.
विवाद का इतिहास
म्यांमार की सैन्य सरकार का मानना है कि रोहिंग्या बर्मा के मूल निवासी नहीं हैं. ये लोग ब्रिटिश हुकूमत के दौरान शरणार्थी के तौर पर अराकान क्षेत्र में बसाए गए थे. अब बौद्ध कट्टरपंथी इन्हें परेशान कर यहां से भगाने पर आमादा है. इतना ही नहीं 1982 में सैन्य सरकार ने कानून बनाकर इन्हें नागरिकता के अधिकार से भी वंचित कर दिया. इसके बाद भूस्वामित्व का अधिकार छीना गया फिर यात्रा की पूर्वसूचना देने और दो से ज्यादा बच्चे पैदा न करने का हलफनामा देने जैसे नियमों ने रोहिंग्या को फिर से भटकने पर मजबूर कर दिया.
ब्लॉग: निर्मल यादव, नई दिल्ली
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी