तालाबंदी ने पेशा बदलने को मजबूर किया
७ अप्रैल २०२०गांव से शहरों में आकर लाखों लोग दिहाड़ी काम कर किसी तरह से अपना पेट भरते हैं. दिहाड़ी मजदूर, ठेले पर सामान बेचने वाले या फिर रिक्शा चलाने वाले, इन्हें पता ही नहीं होता है कि सरकार इनके हितों के लिए कौन-कौन सी योजनाएं चला रही हैं.
बिहार के गोपालगंज के रहने वाले रामू पिछले 25 साल से उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पंचर बनाने का काम करते आए हैं. रामू पंचर बनाकर कभी 300 तो कभी 500 रुपये कमा लेते थे, लेकिन कोरोना की महामरी ने धंधा बंद करा दिया. रामू के साथ उनके मां-बाप और भाई रहते हैं. ऐसे में सबके खाने-पीने का इंतजाम करने के लिए वह ठेले पर सब्जी बेच कर किसी तरह से गुजारा कर रहे हैं. रामू कहते हैं, "इस समय जिस गली में जा रहे हैं, वहां ठेलों की संख्या भी खूब बढ़ गई है, इस वजह से बिक्री भी ना के बराबर है. हम किसी तरह से जीवन चला रहे हैं."
लखीमपुर के रामदुलारे लखनऊ में दिहाड़ी मजदूरी करते थे. उनका भी काम बंद है और वह ठेले पर खीरा और फल बेच कर गुजर-बसर कर रहे हैं. वह कहते हैं, "बड़ी मुश्किल से मंडी से फल लाकर बेचने को मिलता है. सब साधन बंद हैं, हम गांव भी नहीं लौट सकते हैं. ऐसे में यहीं पर फल बेचकर अपना पेट पाल रहे हैं."
बलरामपुर के दनकू पान की दुकान चलाते थे. लेकिन इन दिनों वह ठेले पर दूध, ब्रेड और मक्खन बेच रहे हैं, वह कहते हैं कि दुकान बंद है और जिंदा रहने के लिए कुछ ना कुछ तो करना पड़ेगा. जब उनसे सरकारी योजना के लाभ के बारे में पूछा गया तो उन्होंने किसी योजना के बारे में जानकारी होने से इनकार कर दिया.
फुटपाथ और फेरी दुकानदारों को जागरूक करने के लिए काम करने वाले मथुरा प्रसाद कहते हैं, "सरकार की जरूरतमंदों के लिए अनेक योजनाएं चल रही हैं. लेकिन जानकारी के अभाव में इसका फायदा उन्हें नहीं मिल पा रहा है."
एए/एनआर(आईएएनएस)
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