लॉकडाउन से बंगाल में बदल रही है खान-पान की आदतें
२२ अप्रैल २०२०इसी वजह से बंगाल सरकार आम लोगों की भावनाओं को देखते हुए इन दोनों क्षेत्रों में ढील दे रही है. इसी के तहत राज्य की ममता बनर्जी सरकार ने मिठाई की दुकानों को पहले चार घंटे तक खोलने की अनुमति दी थी जिसे बीते सप्ताह बढ़ा कर आठ घंटे कर दिया गया. मिठाई में भी रसगुल्ले और संदेश के बिना बंगाल के आम परिवारों की दिनचर्या की कल्पना तक करना मुश्किल है. दुनिया भर में होने वाली तमाम प्रमुख घटनाओं के मौके पर यहां उसी स्वरूप में मिठाइयां बनती हैं. वह चाहे क्रिकेट विश्वकप हो या फिर फुटबाल विश्वकप. इसी तरह कोरोना के मौके पर इसी तरह के कोरोना संदेश बनाए गए हैं. लॉकडाउन के दौरान मछली की बढ़ती मांग और इस वजह से कीमतों में होने वाली वृद्धि पर अंकुश लगाने के लिए सरकार अब खुद ही ऑनलाइन मछलियां बेच रही है. इसके अलावा 20 अप्रैल के बाद मछुआरों को भी समुद्र में उतरने की अनुमति दे दी जाएगी. अकेले राजधानी कोलकाता में रोजाना औसतन साढ़े पांच सौ टन मछली की खपत होती है.
मछली की अहमियत
हिल्सा या इलिश मछली को आम बंगाली परिवार की शान माना जाता है. सीमा पार बांग्लादेश से आने वाली पद्मा नदी की इन मछलियों की खासकर बांग्ला नववर्ष के मौके पर भारी मांग रहती है. लेकिन कोरोना और लॉकडाउन की वजह से अंतरराष्ट्रीय सीमा सील होने के कारण वहां से मछलियां नहीं आ रही हैं. नतीजतन लोगों को स्थानीय हिल्सा मछलियों से ही संतोष करना पड़ रहा है. हिल्सा मछली एक पूरी कौम यानी बंगालियों के सामाजिक ताने-बाने और संस्कृति में काफी गहरी रची-बसी है.
यूं तो हिल्सा मछली ओडीशा और आंध्र प्रदेश में भी बड़े चाव से खाई जाती है, लेकिन पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और असम की बराक घाटी में बसे बंगालियों के लिए यह महज एक मछली नहीं, बल्कि इस कौम की सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान है. वैसे तो यह पड़ोसी बांग्लदेश की राष्ट्रीय मछली है, लेकिन इसके मूल में बंगाली ही हैं. यानी हिल्सा से बंगालियों का रिश्ता जन्म-जन्मांतर का है. माछ-भात यानी मछली-भात का जिक्र होते ही मन में बंगाल और बंगालियों की तस्वीर उभरती है.
मेहमानवाजी का प्रतीक
हिल्सा के प्रति जो आसक्ति बंगाल में है वह कहीं और नहीं है. शंकर छद्मनाम से लिखने वाले बांग्ला उपन्यासकार मणि शंकर मुखर्जी बताते हैं, "पहले आम बंगाली परिवार में हिल्सा खाना और घर आने वाले अतिथियों को खिलाना शान की बात समझी जाती थी. लेकिन अब दूसरों को खिलाना महंगा सौदा हो गया है.” वह बताते हैं कि डेढ़ से दो किलो वजन वाली हिल्सा सबसे अच्छी होती है. लेकिन इनकी कीमत एक हजार रुपए किलो से भी ज्यादा होती है और आपको इसके लिए पहले से विक्रेताओं को आर्डर देना होता है.
बंगाली हिंदू परिवारों में हिल्सा के बिना कोई भी शुभ काम पूरा नहीं होता. वह चाहे शादी-विवाह का मौका हो या फिर किसी पूजा या त्योहार का. बंगाली परिवार तो अपने बांग्ला नववर्ष पोयला बैशाख की सुबह की शुरूआत ही हिल्सा और पांता भात यानी रात भर पानी में भिगो कर रखे गए भात के साथ करता है. शादी के मौके पर वर पक्ष की ओर से वधू पक्ष को इलिस का जोड़ा उपहार दिए बिना बात ही नहीं बनती. हिल्सा की आवक और कीमतों में उतार-चढ़ाव आम बंगाली परिवारों की रोजमर्रा की बातचीत का अहम मुद्दा होता है. यह मुद्दा स्थानीय अखबारों और टीवी चैनलों पर भी अक्सर सुर्खियां बटोरता रहता है. इससे बंगाली जनजीवन और समाज में हिल्सा की अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है.
कीमतों पर लगाम की कोशिश
यह कहना ज्यादा सही होगा कि बाजारों में हिल्सा की कमी और कीमतें बंगाल के लिए ‘राष्ट्रीय समस्या' बन जाती है. हिल्सा एक तैलीय मछली है. इसमें ओमेगा-3 फैटी एसिड भरपूर मात्रा में होता है. बंगाली लोग इस मछली को पचास से भी ज्यादा तरीकों से पका सकते हैं और हर व्यंजन का स्वाद एक से बढ़ कर एक होता है. कोलकाता के विभिन्न होटलों और रेस्तरां में बांग्ला नववर्ष और दुर्गापूजा के मौके पर आयोजित हिल्सा महोत्सवों में उमड़ने वाली भीड़ से इसकी लोकप्रियता का अंदाजा मिलता है.
लॉकडाउन के दौरान मछली की कीमतों में अचानक बेतहाशा वृद्धि को ध्यान में रखते हुए राज्य मत्स्य विकास निगम ने इसकी ऑनलाइन बिक्री के लिए एक एप्प लांच किया है. मत्स्य पालन मंत्री चंद्रनाथ सिन्हा बताते हैं, "हमें कीमतों में वृद्धि की शिकायतें मिली थीं. इसलिए हमने इसकी ऑनलाइन बिक्री का फैसला किया. परिवहन के साधन नहीं होने की वजह से मछली की कीमतें बढ़ गई थीं. मांग ज्यादा थी और सप्लाई कम. अब मोबाइल एप्प के जरिए मछली खरीदनों वालों के घर बैठे इसकी डिलीवरी मिल रही है.” दरअसल, कोलकाता में मछली की मांग का बड़ा हिस्सा आंध्र प्रदेश से आने वाली मछलियों से पूरा होता है. लेकिन लॉकडाउन की वजह से वहां से इनका आना ठप है.
मिठाई का बाजार
बंगाल के लोगों का मिठाई प्रेम भी किसी से छिपा नहीं है. इस राज्य को रसगुल्ले का जन्मस्थान कहा जाता है. कुछ साल पहले इस मुद्दे पर पड़ोसी ओडीशा के साथ उसकी लंबी कानूनी लड़ाई चली थी. लेकिन बाद में बंगाल के रसगुल्ले को जीआई टैग मिल गया था. लॉकडाउन की वजह से पहले सप्ताह के दौरान मिठाई की दुकानें बंद हो जाने की वजह से जहां पहली बार रसगुल्ला और संदेश जैसी लोकप्रिय मिठाइयां बाजारों और आम बंगाली के घरों से गायब हो गईं थी, वहीं इसके चलते रोजाना औसतन दो लाख लीटर दूध नालों में बहाना पड़ रहा था. लॉकडाउन के चलते इन दुकानों के बंद होने से डेयरी उद्योग को रोजाना 50 करोड़ का नुकसान झेलना पड़ रहा था.
उसके बाद मिठाई निर्माताओं के संगठन पश्चिम बंग मिष्ठान व्यवसायी समिति ने राज्य सरकार को पत्र लिख कर मिठाई की दुकानों को लॉकडाउन से छूट देने की अपील की थी. बंगाल में मिठाई की लगभग एक लाख दुकानें हैं. समिति के सचिव जगन्नाथ घोष कहते हैं, "वर्ष 1965 में तत्कालीन प्रफुल्ल चंद्र सेन सरकार ने बंगाल में घरेलू उद्योग के तौर पर चीज और मिठाई के निर्माण पर पाबंदी लगाई थी. तब इस उद्योग को भारी नुकसान सहना पड़ा था. हम चाहते हैं कि मिठाइयों को भी जरूरी वस्तुओं की सूची में शामिल कर लिया जाए.” कोलकाता की जोड़ासांको मिल्क मर्चेंट्स सोसायटी के सचिव राजेश सिन्हा ने भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को पत्र भेज कर इस मामले में हस्तक्षेप की अपील की थी. उसके बाद ही सरकार ने पहले इन दुकानों को चार घंटे खोलने की अनुमति दी थी जिसे अब बढ़ा कर आठ घंटे कर दिया गया है.
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