इस महीने की शुरुआत में चीनी विदेश मंत्री वांग यी 11 दिनों तक दक्षिण पूर्वी एशिया के दौरे पर थे. इस दौरान जी - 20, चीन- आसियान बैठक, और लांचांग - मेंकांग बैठकों के साथ मलेशिया समेत पांच देशों का दौरा उन्होंने किया. इस दौरान कई दिलचस्प बयान भी आये और उन पर कूटनीतिक रस्साकशी भी हुई.
वांग यी का तूफानी दक्षिणपूर्वी एशियाई दौरा कई मामलों में महत्वपूर्ण रहा. इस यात्रा में उन्होंने म्यांमार जा कर एक तरह से वहां की सैन्य सरकार को एक कूटनीतिक जीवनदान दिया तो वहीं मलेशिया पहुंचने पर जोर वादों के निभाने से ज्यादा वादों के कागजी वजन पर रहा. थाईलैंड और फिलीपींस के दौरों में भी कमोबेश यही हाल रहा - खास तौर पर द्विपक्षीय संबंधों के लिहाज से. लेकिन इस यात्रा का वांग यी के लिए सबसे बड़ा मकसद था जी-20 की बैठक में शरीक होना.
एक अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय संगठन के तौर पर जी-20 ने बीते कुछ सालों में कई बड़े मकाम हासिल किये हैं. जी - 20 की एक बड़ी उपलब्धि तो यही रही है कि विकसित और तेजी से उभरते विकासशील देशों के बीच की वैचारिक खाई को पाटकर उन्हें साथ- साथ ले आने की बड़ी कवायद इसके जरिये भी तेज हुई है.
यह भी पढ़ेंः दक्षिण पूर्व एशिया के लिए सेहत, गरीबी, बेरोजगारी और चीन बड़ा मुद्दा
विश्व व्यवस्था और इसमें अपनी भूमिका को लेकर जी–20 के विकासशील देश क्या सोचते हैं इसकी एक बड़ी झलक तब देखने को मिली जब जी-20 के इस साल अध्यक्ष के तौर पर इंडोनेशिया ने रूस और यूक्रेन दोनों को बैठक में शिरकत करने का न्यौता भेज दिया. इसी बीच इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो यूक्रेन की यात्रा पर भी निकल पड़े. इंडोनेशिया की दिली इच्छा है कि वह रूस और यूक्रेन के बीच शांति बहाल करे और इसके लिए वह कोशिश भी कर रहा है.
वैसे ईमानदारी से देखा जाय तो यह काम चीन को करना चाहिए था. अगर चीन ऐसी कोई पहल करता तो एक जिम्मेदार महाशक्ति के तौर पर उसकी साख तो बनती ही, साथ ही अमेरिका ना सही यूरोप और यूक्रेन के लिए उसकी एक भरोसेमंद दोस्त की छवि में भी सुधार होता.
दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ. पिछले दिनों के बयानों और कूटनीतिक गतिविधियों से चीन ने साफ कर दिया है कि उसकी वफादारियां रूस से हैं. यही नहीं, चीन ने रूस और पश्चिमी देशों के बीच उपजे तनाव को अपने लिए सबक मानते हुए अमेरिका और पश्चिम से लोहा लेने की तैयारी भी चालू कर दी है.
वांग यी के दक्षिणपूर्व देशों में दिए कई बयानों में इसकी झलक साफ तौर पर देखने को मिली. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि जैसे - जैसे अमेरिका और चीन के बीच प्रतिद्वंदिता बढ़ी है, अमेरिका ने दक्षिणपूर्वी देशों के साथ सहयोग बढ़ाने पर भी काम किया है.
इंडो पैसिफिक इकनोमिक फ्रेमवर्क के लांच और उसमें 7 आसियान देशों की शिरकत चीन को रास नहीं आई है. आसियान का इंडो-पैसिफिक की ओर झुकाव भी उसने दबे मन ही स्वीकार किया है.
यह भी पढ़ेंः दक्षिण चीन सागर ौर पश्चिमी प्रशांत में तैनात रहेगी भारत की नौसेना
दक्षिण प्रशांत द्वीपसमूह देशों के साथ सुरक्षा समझौता करने में ऐन वक्त पर चूके चीन को अब यह डर सता रहा है कि कहीं दक्षिणपूर्वी एशिया के आसियान देशों के साथ भी संबंधों में अमेरिका को लेकर रस्साकशी ना चल पड़े.
वैसे तो यह चलन नया नहीं है लेकिन चीन को अब शायद इस बात का ज्यादा गहरा एहसास हो रहा है. शायद यही वजह थी कि वांग यी जहां भी गए वहां यह कहते नजर आये कि वो एक दोस्त की हैसियत से दक्षिणपूर्व के दौरे पर आये हैं.
दोस्ताना संबंधों पर जोर के साथ-साथ वह यह कहना नहीं भूले कि अमेरिका शीत युद्ध की मानसिकता से ग्रसित देश है और इस क्षेत्र के देशों को बांटना चाहता है. ताइवान को लेकर उपजी सामरिक चिंताओं ने कहीं ना कहीं चीन को खासा परेशान कर रखा है. इंडोनेशिया में फॉरेन पालिसी कम्युनिटी ऑफ इंडोनेशिया की ओर से आयोजित अपने लेक्चर में अभी उन्होंने अमेरिका पर कई बार तंज कसा.
बहरहाल, "दोस्त” चीन ने अनजाने में आसियान की महीनों से की गई कोशिश को भारी चोट तब पहुंचाई जब वांग यी म्यांमार के साथ बातचीत में लग गए. वैसे बहाना तो सातवीं लान्चांग-मेकांग मंत्रिस्तरीय वार्ता का था.
जब एक ओर आसियान के 9 देश म्यांमार को अपनी बैठकों से बायकाट कर रहे हैं और मलेशिया के विदेशमंत्री सैफुद्दीन अब्दुल्ला आंग सान सू की की नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट से बात कर रहे हैं, तो ऐसे में वांग यी का म्यांमार जाना निस्संदेह इन प्रयासों को चोट पहुंचाता है.
आसियान का सबसे बड़ा और ताकतवर पड़ोसी होने के नाते चीन पर जिम्मेदारियां काफी हैं. आर्थिक मोर्चे पर चीन कमोबेश ये जिम्मेदारियां निभाता भी है. हालांकि जब मुद्दा मानवाधिकारों, म्यांमार में लोकतंत्र बहाली, दक्षिण चीन सागर में शांतिपूर्वक ढंग से विवाद सुलझाने और छोटे-बड़े देशों के साथ समान व्यवहार का आता है तो दोस्ती या तो सिर्फ स्वार्थ साधने में बदल जाती है या दादागीरी में. आसियान के तमाम देश इससे परेशान होते हैं और अमेरिका, भारत, जापान, आस्ट्रेलिया और यूरोपीय देशों से उम्मीद करते हैं कि चीन की आक्रामकता या संकीर्ण स्वार्थ-साधना से निपटने में उन्हें मदद मिलेगी.
वांग यी की 'दोस्ताना' यात्रा में यूं तो कोई खामी नहीं है लेकिन चीन के लिए बड़े-बड़े वादों और बातों का समय निकलता जा रहा है. अगर चीन चाहता है कि इंडो-पैसिफिक में उसके खिलाफ अमेरिका और अन्य देश लामबंदी ना करें और दक्षिणपूर्व एशिया के देश इन बवालों में शामिल ना हों तो उसे एक शांतिपरक और जिम्मेदार दोस्त की भूमिका निभानी पड़ेगी. जितनी जल्द इन बातों को अमली जामा पहनाया जाय चीन और क्षेत्रीय शांति के लिए उतना ही अच्छा.
(डॉ. राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के आसियान केंद्र के निदेशक और एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं. आप @rahulmishr_ ट्विटर हैंडल पर उनसे जुड़ सकते हैं.)