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सकारात्मक संकेत है अफस्पा का खात्मा

प्रभाकर मणि तिवारी
२४ अप्रैल २०१८

पूर्वोत्तर राज्य मेघालय में कोई 27 साल बाद सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) का खात्मा उग्रवाद से जूझ रहे समूचे इलाके के लिए एक सकारात्मक संकेत है. इसके खिलाफ मानवाधिकार संगठन दशकों से संघर्ष कर रहे थे.

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Indien allgemeine Bilder der indischen Armee
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky

केंद्र सरकार ने मेघालय के अलावा अरुणाचल प्रदेश के 16 में आठ थाना इलाकों से भी उक्त विवादास्पद कानून हटाने का फैसला किया है. इससे तीन साल पहले त्रिपुरा से इस अधिनियम को वापस लिया गया था. इलाके के मानवाधिकार संगठन अक्सर इसे काला कानून कहते रहे हैं. इसके तहत सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार मिले होते हैं.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अफस्पा से हालात सुधरने की बजाय और बिगड़े ही हैं. उग्रवादग्रस्त मणिपुर में तो इस कानून के दुरुपयोग के दर्जनों मामले सामने आते रहे हैं. इस कानून की आड़ में हुई फर्जी मुठभेड़ के मामलों की जांच फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में चल रही है. ऐसे में मेघालय में बीजेपी के सत्ता में आने के दो महीने के भीतर ही इस कानून को खत्म करना जहां इलाके में कानून व व्यवस्था की सुधरती हालत का संकेत देता है वहीं इससे पूर्वोत्तर में पैठ बनाने में जुटी बीजेपी की मंशा का भी खुलासा होता है.

क्या है कानून

सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) नामक यह कानून पूर्वोत्तर इलाके में तेजी से पांव पसारते उग्रवाद पर काबू पाने के लिए सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देने के मकसद से अस्सी के दशक में बनाया गया था. इसके तहत सुरक्षा बल के जवानों को किसी को गोली मार देने का अधिकार है और इसके लिए उन पर कोई मुकदमा भी नहीं चलाया जा सकता. इस कानून के तहत सेना किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट को हिरासत में लेकर उसे अनिश्चित काल तक कैद में रख सकती है. 11 सितंबर, 1958 को बने इस कानून को पहली बार नागा पहाड़ियों में लागू किया गया था जो तब असम का ही हिस्सा थी. उग्रवाद के पांव पसारने के साथ इसे धीरे-धीरे पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों में लागू कर दिया गया.

इस विवादास्पाद कानून के दुरुपयोग के खिलाफ बीते खासकर दो दशकों के दौरान तमाम राज्यों में विरोध की आवाजें उठती रहीं हैं. लेकिन केंद्र व राज्य की सत्ता में आने वाले सरकारें इसे खत्म करने के वादे के बावजूद इसकी मियाद बढ़ाती रही हैं. मणिपुर की महिलाओं ने इसी कानून के आड़ में मनोरमा नामक एक युवती की सामूहिक बलात्कार व हत्या के विरोध में बिना कपड़ों के सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया था और उस तस्वीर ने तब पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं. लौह महिला के नाम से मशहूर इरोम शर्मिला इसी कानून के खिलाफ लंबे अरसे तक भूख हड़ताल कर चुकी हैं. लेकिन मणिपुर में इसकी मियाद लगातार बढ़ती रही है. आखिर हार कर शर्मिला ने भी अपनी भूख हड़ताल खत्म कर दी थी.

Irom Chanu Sharmila
इरोम शर्मिलातस्वीर: picture-alliance/dpa

अब मेघालय के अलावा अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों से इस कानून को वापस लेने के बाद स्थानीय लोगों ने राहत की सांस ली है. मेघालय में यह कानून असम सीमा से लगे 20 वर्ग किलोमीटर इलाके में लागू था. असम के उग्रवादी संगठनों की बढ़ती गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए 27 साल पहले वर्ष 1991 में इसे लागू किया गया था. लेकिन तब के मुकाबले उग्रवादजनित हिंसा में 85 फीसदी कमी आने की वजह से ही सरकार ने राज्य से यह कानून खत्म करने का फैसला किया. इससे पहले वर्ष 2015 में 18 साल बाद त्रिपुरा से इसे खत्म किया गया था.

उग्रवाद में कमी

फिलहाल असम के अलावा नागालैंड और मणिपुर और अरुणाचल के कुछ इलाकों में अब भी यह कानून लागू है. मेघालय के मामले के बाद अब इन इलाकों से भी इस कानून को वापस लेने की उम्मीदें बढ़ गई हैं. दो दशक पहले के मुकाबले पूर्वोत्तर में अब उग्रवाद उतार पर है. वर्ष 2000 में इलाके में जहां उग्रवाद की 1963 घटनाएं हुई थीं वहीं 2017 में यह घट कर 308 रह गईं. इसी तरह वर्ष 2000 में उग्रवादी हिंसा में 907 नागरिकों की मौत हुई थी जबकि बीते साल इन घटनाओं में महज 37 लोगों की मौत हुई. इसके साथ ही सुरक्षा बल के जवानों की मौतों के मामलों में भी भारी कमी आई है.

दरअसल, तीन साल पहले त्रिपुरा से इस कानून के खात्मे ने दूसरे राज्यों को भी इस दिशा में पहल करने की प्रेरणा दी है. वहां सरकार ने अफस्पा की बजाय राज्य पुलिस की अगुवाई में उग्रवादविरोधी अभियानों को तरजीह दी थी. हालांकि शुरुआती दौर में पुलिस पर भी वैसे ही आरोप लगे जैसे पहले अर्धसैनिक बलों व सेना के जवानों पर लगते थे. बावजूद इसके वहां से इस कानून के खात्मे के बाद उग्रवाद में लगातार गिरावट दर्ज की गई है.

Indien Wahlen in Tripura, Meghalaya & Nagaland
बीजेपी की जीततस्वीर: DW/P. Mani Tiwari

असम में यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (अल्फा) के बढ़ते असर की वजह से अफस्पा लागू किया गया था. लेकिन अब अल्फा के दो गुटों में बंट जाने और उसकी गतिविधियां काफी हद तक कम हो जाने की वजह से असम से इस कानून के खात्मे की संभावना बढ़ गई है. इस मामले में त्रिपुरा और अब मेघालय से सबक लेकर सरकार असम में भी यह कानून खत्म करने का फैसला कर सकती है.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि दरअसल अफस्पा का खात्मा दोतरफा जीत है. सुरक्षा बलों के नजरिए से यह पैसला उग्रवाद के स्तर में भारी गिरावट का संकेत है तो स्थानीय लोगों के नजरिए से यह फैसला एक काले कानून का खात्मा है. अब असम व नागालैंड में भी बीजेपी की सरकारें हैं. दोनों राज्यों   में उग्रवादी संगठनों के साथ शांति बहाली की प्रक्रिया तेजी से सकारात्मक रूप से आगे बढ़ रही है. ऐसे में देर-सबेर केंद्र सरकार इन दोनों राज्यों के अलावा मणिपुर से भी इस कानून को खत्म करने का फैसला ले सकती है. खासकर असम में उग्रवाद की घटनाओं में भारी कमी के चलते वहां से कम से कम कुछ जिलों में अफस्पा खत्म करने का फैसला शीघ्र हो सकता है. पूर्वोत्तर के उग्रवाद पर करीबी निगाह रखने वाले मणिपुर के एस.दोरेंद्र सिंह कहते हैं, "केंद्र के इस फैसले की सराहना की जानी चाहिए. इसका असर दूसरे राज्यों पर भी पड़ेगा." वह कहते हैं कि इलाके से अफस्पा का पूरी तरह खात्मा पूर्वोत्तर को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करने में अहम भूमिका निभा सकता है. इससे लोगों में पनपी अलगाव की भावना को दूर करने में भी काफी मदद मिलेगी.