सजा दो, मौत नहीं
२१ नवम्बर २०१२26/11 की चौथी बरसी से ठीक पहले उसकी आखिरी निशानी को खत्म कर दिया गया. पाकिस्तान के नागरिक अजमल कसाब को भारत में पुणे की जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया. भारत में जैसे दीवाली दोबारा मन गई हो लेकिन इस जश्न में सभी शामिल नहीं हैं. एक बड़ा तबका समझता है कि मृत्युदंड को लेकर ज्यादा संजीदा होने की जरूरत है क्योंकि यह प्रकृति के बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ है.
सुप्रीम कोर्ट की वकील और सामाजिक कार्यकर्ता नंदिता हकसर ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा, "मृत्युदंड मध्यकाल की सबसे खराब विरासत में से एक है. मौत की सजा नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह कभी भी समस्या को हल नहीं करती है."
चार साल बाद
अजमल कसाब उन 10 आतंकवादियों के गुट का हिस्सा था, जिसने 26 नवंबर, 2008 को भारत की वित्तीय राजधानी मुंबई पर समुद्र के रास्ते हमला बोला और तीन दिनों तक शहर में हिंसा का तांडव मचाए रखा. इस दौरान 166 लोग मारे गए और कसाब के नौ साथी भारत की कार्रवाई में मारे गए. घायल कसाब को पकड़ा गया, इलाज कराया गया, चार साल तक न्यायिक प्रक्रिया चली और उसके बाद फांसी की सजा दे दी गई.
तो क्या इस अपराध के लिए फांसी गलत सजा है, खास कर तब, जब भारत में इसका प्रावधान है. हकसर इसे बेतुका बताती हैं, "यह एक राजनीतिक फांसी है. हम असली मुद्दों से मुंह चुरा रहे हैं. क्या उन मुस्लिम संगठनों पर कोई कार्रवाई हो पाई, जो इन हमलों के पीछे हैं. उनके साथ कभी न्याय नहीं किया जा सका."
भारत में मृत्युदंड
भारत में मृत्युदंड है, पर मौत की सजा आम नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने 1983 के फैसले में सिर्फ दुर्लभों में दुर्लभ (रेयरेस्ट ऑफ रेयर) मामलों में फांसी की बात कही. उसके बाद इतनी कम फांसियां हुई हैं कि लोगों को नाम तक याद है. 1995 में शंकर ऑटो और उसके बाद 2004 में धनंजय चटर्जी को फांसी पर चढ़ाया गया.
इसके बावजूद निचली अदालतों में हर साल सैकड़ों लोगों को मौत की सजा सुनाई जाती है, जिस पर अमल नहीं हो पाता. पिछले 10 साल में भारत में लगभग 275 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई. कानून के मुताबिक ये लोग राष्ट्रपति से रहम की अपील कर सकते हैं और राष्ट्रपति के पास इस पर फैसला करने के लिए कोई समय सीमा नहीं होती. पर आम तौर पर घरेलू स्थिति भड़कने के डर से सरकार फांसी से दूर रहती है. हाल के समय में अंतरराष्ट्रीय दबाव भी काम आया है.
पाकिस्तान से तकरार
कसाब को लेकर सरकार के पास यह संकट नहीं था. उसे घरेलू स्तर पर विरोध का सामना नहीं करना पड़ा और पाकिस्तानी नागरिक के खिलाफ कार्रवाई से उसे समर्थन बढ़ने की ही उम्मीद है. भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दों में फंसी भारतीय सरकार के सामने मध्यावधि चुनाव का खतरा है और इस फैसले का उसे फायदा पहुंच सकता है. हालांकि हकसर इसे अलग मोड़ देती हैं, "कुछ दिनों पहले बाल ठाकरे का निधन हुआ और अब कसाब को फांसी. मैं दोनों मामलों को जोड़ कर देखती हूं. किस तरह लाखों लोगों का हुजूम सदमे में दिखने लगा और अब किस तरह लोग जश्न मना रहे हैं. यह बहुत राजनीतिक है. मैं ऐसे देश में पली बढ़ी हूं, जहां हिन्दू, मुस्लिम और सिख एक साथ रहे हैं. अब अगर मैं इसे अपना वही देश मानूं तो कितनी बेवकूफ होऊंगी."
घरेलू स्तर पर भले ही भारत बच जाए लेकिन पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों पर जरूर बनेगी. जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर और सामाजिक विश्लेषक सविता पांडे का कहना है, "पाकिस्तान ने हमेशा से कहा था कि उसका इन हमलों में कोई हाथ नहीं और ऊपरी तौर पर वह दिखाने की कोशिश करेगा कि इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. इसलिए हो सकता है कि इसका फौरी असर न दिखे. लेकिन कट्टरपंथी लोग आने वाले दिनों पर पाकिस्तान सरकार पर दबाव बढ़ाएंगे. ऐसे में दूरगामी परिणाम जरूर दिख सकता है."
भारत का कद
पांडे का कहना है कि फांसी के बाद भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि यह "दुर्लभों में दुर्लभ" मामला है और किसी आम शहरी को फांसी नहीं दी गई है, "भारत 1989 से सीमा पार आतंकवाद का शिकार रहा है और यह पहली बार है कि जब उसने इस मुद्दे पर कोई कार्रवाई करने का फैसला किया है. लेकिन मैं कहना चाहती हूं कि भारत को इससे आगे जाने की जरूरत है ताकि इसका तार्किक अंत हो."
पाकिस्तान की जेल में भारतीय नागरिक सरबजीत सिंह बंद है, जिसे फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है. कसाब की फांसी के बाद पाकिस्तान के अंदर उसे फांसी देने का दबाव बढ़ेगा. इधर, भारत में 2001 में संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी की अपील बढ़ने वाली है. हकसर गुरु की वकील भी हैं, जो कहती हैं, "अगर कसाब के दम पर अफजल गुरु को फांसी देने की बात चली, तो हम अपने ही कानून का नाश कर रहे होंगे क्योंकि गुरु को तो अपना बचाव करने का मौका भी नहीं मिला."
रिपोर्टः अनवर जे अशरफ
संपादनः ओंकार सिंह जनौटी