सबक नहीं सीखा भारत ने
२ दिसम्बर २०१४भोपाल त्रासदी से पहले और बाद में मध्य प्रदेश सरकार और भारत सरकार ने जिस तरह से अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड के प्रति उदारता और पीड़ितों के प्रति निर्ममता दिखाई, उस पर यकीन करना मुश्किल है. हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों के कारण उत्पन्न स्थिति के बारे में कहा गया था कि जीवित बचे लोग मरने वालों से ईर्ष्या करेंगे क्योंकि उनका जीवन मौत से भी बदतर होगा. यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से हुए जहरीली गैस के रिसाव से 2 दिसंबर, 1984 की रात को हजारों लोगों मारे गए, लेकिन जो जिंदा हैं वे आज भी इस विभीषिका को भुगत रहे हैं. आज भी पैदा होने वाले अनेक शिशु जन्म से ही किसी न किसी गंभीर बीमारी या विकलांगता का शिकार हैं.
1984 में सरकार ने मरने वालों की संख्या 3,787 बताई थी. 2008 में मध्य प्रदेश सरकार की कार्य योजना में यह संख्या लगभग 16,000 दी गई थी. गैस पीड़ितों को मुआवजा देने वाली अदालत ने पीड़ितों की संख्या 5.73 लाख मानी थी. लेकिन गैस पीड़ितों के कल्याण के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता कहते हैं कि इस त्रासदी में कम से कम 23,000 व्यक्ति मारे गए हैं और लाखों व्यक्तियों का जीवन इसके कारण नरक बन गया है. उनके लिए यह त्रासदी कभी न खत्म होने वाले दुःस्वप्न की तरह है.
भारतीय राज्य की प्रतिक्रिया सचमुच स्तब्धकारी रही है. यूनियन कार्बाइड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वारेन एंडरसन को गिरफ्तार किया गया, लेकिन रातोंरात उन्हें जमानत दिलवा कर सरकारी सुरक्षा में दिल्ली हवाई अड्डे लाया गया और वे आराम से अमेरिका पहुंच गए जबकि उन पर और उनकी कंपनी पर भारतीय कानून के तहत मुकदमा चलना चाहिए था. सरकार ने उनके प्रत्यावर्तन की भी कोई कोशिश नहीं की. यूनियन कार्बाइड के कुछ कर्मचारियों और अध्यक्ष केशव महेन्द्रा पर मुकदमा चला और उन्हें दो साल की सजा हुई, लेकिन उन्हें तत्काल जमानत पर रिहा भी कर दिया गया.
कानूनन यूनियन कार्बाइड पर कारखाने के रख-रखाव, बची हुई अनुपयोगी सामग्री को वहां से हटाने और कारखाने की सफाई की पूरी जिम्मेदारी थी. लेकिन स्थिति यह है कि आज भी बंद कारखाने में टनों जहरीले रसायन पड़े हुए हैं और वे भूमिगत पानी के साथ मिलकर आसपास रहने वाले लोगों की खाने-पीने की चीजों में जहर घोल रहे हैं. लेकिन सरकारी एजेंसियों को कोई परवाह नहीं है. तीस साल बाद भी कारखाने की सफाई नहीं की गई है क्योंकि अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि यह किसकी जिम्मेदारी है, और इस बारे में मुकदमें आज भी अदालतों में हैं.
1989 में भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड के साथ अदालत के बाहर एक समझौता कर लिया जिसके तहत कंपनी ने 47 करोड़ डॉलर का मुआवजा देना स्वीकार किया. क्योंकि गैस त्रासदी से प्रभावित लोगों की संख्या लगभग छह लाख है, इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रति व्यक्ति कितना मुआवजा मिल सका है. इसके अलावा त्रासदी के शिकार लोग आज भी अस्पतालों के चक्कर लगा रहे हैं. यूनियन कार्बाइड कारखाने की सफाई न होने के कारण तीस साल बाद भी लगातार फैल रहे प्रदूषण के कारण अचानक होने वाले गर्भपात की तादाद में तीन गुनी बढ़ोतरी हो गई है. कैंसर की बीमारी के भी बढ़ने की खबर है.
क्या इस त्रासदी से किसी ने कोई सबक लिया? सरकार और उसकी एजेंसियों की संवेदनशून्यता और लापरवाही को देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता कि किसी ने भी कोई सबक सीखा है. जब तक कारखाने और उसके आसपास के पूरे इलाके की वैज्ञानिक तरीके से सफाई नहीं की जाती और प्रदूषण को फैलने से रोका नहीं जाता, तब तक असहाय नागरिकों का जीवन उसी तरह बर्बाद होता रहेगा जैसा पिछले तीस सालों में होता आया है.