सिंती और रोमा के नाजी नरसंहार की याद
भारत से आई बंजारा जातियां सिंती और रोमा 600 साल से अधिक से यूरोप में रहती हैं. नाजी जर्मनी में उनके साथ भारी भेदभाव हुआ, जबरन नसबंदी की गई और बहुतों को मार डाला गया. बाद में जर्मन समाज ने भी उनके उत्पीड़न को नकारा.
मातृभूमि की सेवा
बहुत से जर्मन सिंतियों ने सिर्फ प्रथम विश्वयुद्ध में ही नहीं, बल्कि 1939 के बाद नाजी सेना में भी लड़ाई लड़ी. 1941 में जर्मन हाई कमान ने सभी जिप्सियों और अर्ध जिप्सियों को नस्लवादी कारणों से सेना की सक्रिय सेवा ने निकालने का फैसला किया. अलफोंस लाम्पर्ट और उनकी पत्नी एल्जा को यातना शिविर आउशवित्स भेज दिया गया जहां उन्हें मार डाला गया
नस्ली नाप और रजिस्ट्रेशन
नर्स एवा जस्टिन ने सिंती और रोमा का विश्वास जीतने के लिए रोमानी भाषा सीखी. वैज्ञानिक नस्लवाद की विशेषज्ञ के रूप में उसने पूरे जर्मनी में घूम घूमकर लोगों के नाप लिए और "जिप्सी" तथा "अर्द्ध जिप्सी ब्रीड" का पूरा रजिस्टर तैयार किया. ये बाद में सिंती और रोमा के नरसंहार का आधार बना. उन्होंने पारिवारिक संबंधों और चर्च के रिकॉर्ड की जांच की.
गिरफ्तारी और कुर्की
1930 के दशक में सिंती और रोमा परिवारों को उनके घरों से निकालकर शहर के बाहर बाड़े में घिरे कैंपों में रहने को विवश किया गया. दक्षिण पश्चिमी जर्मनी के रावेंसबुर्ग कैंप की तरह कैंपों की सुरक्षा कुत्तों वाले पुलिसकर्मी करते थे. उन्हें कैंप से बाहर नहीं निकलने दिया जाता और बंधुआ मजदूरों की तरह काम करना पड़ता था. बहुतों की जबरदस्ती नसबंदी कर दी गई.
लोगों के सामने डिपोर्टेशन
मई 1940 में दक्षिण पश्चिमी जर्मन शहर आस्पैर्ग में सिंती और रोमा परिवारों को शहर की गलियों से होते हुए स्टेशन तक ले जाया गया और वहां से उन्हें सीधे नाजी कब्जे वाले पोलैंड में भेज दिया गया. बाद में एक पुलिस रिपोर्ट में लिखा गया कि उन्हें डिस्पैच करने की कार्रवाई बिना किसी बाधा के पूरी हुई. डिपोर्ट किए गए ज्यादातर लोग लेबर कैंपों में मारे गए.
स्कूल से आउशवित्स
कार्ल्सरूहे के एक स्कूल की 1930 के दशक की इस तस्वीर में कार्ल क्लिंग भी हैं. उन्हें 1943 में स्कूल से उठाया गया और आउशवित्स के "जिप्सी कैंप" में भेज दिया गया जहां वे नाजी नरसंहार के शिकार हुए. पीड़ित बताते हैं कि डिपोर्ट किए जाने से पहले स्कूलों में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता था और कई बार तो क्लास में शामिल भी नहीं होने दिया जाता था.
झूठी उम्मीद
नौ साल का हूगो होएलेनराइनर जब मवेशी गाड़ी में सवार होकर अपने परिवार के साथ 1943 में आउशवित्स पहुंचा तो उसने सोचा था, "मैं काम कर सकता हूं." कैंप के बाहर बोर्ड लगा था, "काम आजाद करता है." बाद में होएलेनराइटर ने बताया कि इससे उम्मीद बंधी थी. वह अपने पिता की मदद करना चाहता था ताकि वे सब आजाद हो सकें. लेकिन आउशवित्स भेजे गए सिर्फ 10 फीसदी लोग बचे.
बंदियों के साथ बर्बर प्रयोग
नाजी संगठन एसएस का कुख्यात डॉक्टर जोसेफ मेंगेले आउशवित्स में काम करता था. वह और उसके साथी बंदियों को कठोर यातना देते थे. वे बच्चों के शरीर की चीड़फाड़ करते, उन्हें बीमारियों का इंजेक्शन देते और जुड़वां बच्चों पर बर्बर प्रयोग करते. मेंगेले ने उनकी आंखें, शरीर के अंग और पूरे के पूरे शरीर बर्लिन भेजे. बाद में वह यूरोप से भाग गया और उस पर कभी मुकदमा नहीं चला.
Liberation comes too late
जब रूस की रेड आर्मी ने 27 जनवरी 1945 को आउशवित्स के यातना कैंप को आजाद कराया तो कैद में बच्चे बचे थे. सिंती और रोमा बंदियों के लिए आजादी की रात देर से आई थी. 2-3 अगस्त 1944 की रात को कैंप के प्रभारी अधिकारी ने सिंती और रोमा बंदियों को गैस चैंबर में भेजने का आदेश दिया था. अगले दिन "जिप्सी कैंप" से दो बच्चे रोते हुए बाहर निकले, उन्हें भी मार दिया गया.
नस्लवादी उत्पीड़न
नाजी यातना शिविरों को आजाद कराए जाने के बाद मित्र देशों की सेना और जर्मन अधिकारियों ने जिंदा बचे लोगों को नस्लवादी उत्पीड़न और कैद होने का सर्टिफिकेट दिया. बाद में उनसे कहा गया कि उन्हें अपराधों के लिए सजा मिली है और हर्जाने की उनकी मांग ठुकरा दी गई. हिल्डेगार्ड राइनहार्ट ने आउशवित्स में अपनी तीन छोटी बेटियों को खोया है.
मान्यता की अपील
1980 के दशक के आरंभ में सिंती और रोमा समुदायों के प्रतिनिधियों ने डाखाऊ के पूर्व यातना शिविर के सामने भूख हड़ताल की. वे अपने समुदाय को अपराधी बताने और नाजी यातना को मान्यता दिए जाने की मांग कर रहे थे. 1982 में तत्कालीन चांसलर हेल्मुट श्मिट ने पहली बार औपचारिक रूप से स्वीकार किया कि सिंती और रोमा समुदाय के लोग नाजी नरसंहार के शिकार हैं.
बर्लिन में स्मारक
2012 में बर्लिन में जर्मन संसद बुंडेसटाग के निकट नाजी उत्पीड़न के शिकार सिंती और रोमा लोगों के लिए स्मारक बना. ये स्मारक दुनिया भर के सिंती और रोमा के लिए भेदभाव के खिलाफ लंबे संघर्ष की निशानी है. इस समुदाय के लोगों को आज भी जर्मनी और यूरोप के दूसरे देशों में भेदभाव का शिकार बनाया जा रहा है.