सिंधु के पानी में दरार से किसी का भला नहीं
२४ सितम्बर २०१६1947 में बंटवारे के बाद से भारत-पाक के बीच चार चीजों की आवाजाही को अत्यन्त तनाव भरे रिश्ते, चार चार युद्ध और उसके बाद रह रह कर युद्ध जैसे हालात भी रोक नहीं पाए हैं. पर अब पानी विवाद के केंद्र में आ रहा है.
भारत और पाकिस्तान के बीच झगड़ों के असर से बाहर रहीं चार चीजें हैं, संगीत, साहित्य, सिनेमा और पानी. संगीत और सिनेमा को लेकर तो इधर कुछ खटपट तीखी हुई है जो कभी कभी उग्र भी हो जाती है लेकिन पानी को लेकर आज तक इस स्तर का कुछ नहीं हुआ. लेकिन अब गीतों, कथाओं और परंपराओं वाली सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों का पानी, भारत और पाकिस्तान के बीच एक नये सवाल की तरह घिर आया है और वो सवाल ये है कि क्या भारत और पाकिस्तान के बीच ऐतिहासिक सिंधु जल संधि टूटने की कगार पर है? उड़ी हमले के बाद और भारत में जिस तरह से माहौल बना है, उसे देखते हुए अटकलें सुर्खियों में हैं कि भारत इस पानी के लिए हुए ऐतिहासिक समझौते को तोड़ कर आतंकवाद को प्रश्रय देने के मामले में पाकिस्तान पर दबाव बढ़ा सकता है. लेकिन इन मीडिया अटकलों के बीच एक बड़ा और बुनियादी सवाल भी है कि क्या इससे भारत को दूरगामी फायदा होगा या इससे पाकिस्तान को वो करारा झटका दे पाएगा जैसा वो चाहता है?
इन सवालों के जवाब की तलाश में सबसे पहले इस समझौते की पृष्ठभूमि में जाना होगा. दोनों देशों के भूगोल और कई महत्त्वपूर्ण सहायक नदियों के साथ बहती हुई करीब तीन हजार किलोमीटर लंबी सिंधु नदी पाकिस्तान के कराची में अरब सागर में जा मिलती है. 1960 में विश्व बैंक की निगरानी में दोनों देशों के बीच सिंधु नदी समझौता हुआ था. सिंधु जल समझौते के तहत सिंधु की तीन पूर्वी सहायक नदियों, सतलज, ब्यास और रावी के पानी पर भारत का अधिकार है और पश्चिमी सहायक नदियों, चेनाब, झेलम और सिंधु पर पाकिस्तान का हक है. सिंधु नदी जल विस्तार में भारतीय भूगोल में बहने वाली नदियों में कुल प्रवाह का एक बटा पांचवां हिस्सा आता है बाकी पाकिस्तान के पास है.
ये सारी नदियां उस कश्मीर से होकर बहती हैं जो दोनों देशों के बीच तनाव का विषय रहा है. लेकिन सिंधु समझौते में साफ लिखा है कि कश्मीर से उत्पन्न तनाव का पानी से कोई संबंध नहीं होगा. इस संधि के तहत दोनों देशों में एक सिंधु आयोग भी गठित किया गया है. दोनों देशों के सिंधु नदी कमिश्नर अपनी बैठकों के लिए 1965 और 1971 के युद्धों के दरम्यान भी मिलते रहे हैं. इससे अंदाजा लग सकता है कि ये समझौता तमाम किस्म की टकराहटों से कितना ऊपर और अलग है. ये विश्व का सबसे सदाशयी, सबसे कामयाब जल समझौता है जिसमें हिस्सेदारी का अनुपात और नदी के निचले छोर पर स्थित देश के लिए सुरक्षित कुल पानी की मात्रा के लिहाज से है. 1947 से आज तक ये अकेला समझौता है जिसे दोनों देशों ने न सिर्फ बनाए रखा है बल्कि छिटपुट विवादों का समाधान भी संधि के प्रावधानों के भीतर ही करते आए हैं.
समझौते के तहत भले ही पश्चिमी नदियों पर सर्वाधिकार पाकिस्तान का है लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि भारत को उस पानी को छूने की कतई मनाही है. वो उसका सीमित उपयोग कर सकता है जैसे पीने के पानी के लिए, कृषि उपयोग के लिए, और रन ऑफ द रिवर बांध परियोजनाओं से बिजली उत्पादन के लिए. यानी ऐसे उपयोग जिनसे सिंधु नदी का प्रवाह बाधित या कम न होने पाए. पाकिस्तान ने कई मौकों पर बांध निर्माण को लेकर भारत पर अंगुली उठाई है और उस पर नदी के ऊपरी बहाव का फायदा उठाने का आरोप भी लगाया है, कुछ मौकों पर तो उसने संधि के तहत मध्यस्थ भी तलब कराए हैं लेकिन इन सबके बावजूद ये संधि कभी खटाई में नहीं पड़ी. जारी रही.
फिर भी सिंधु समझौता तोड़ने की बात ऐसा नहीं है कि पहली बार उठ रही है. दोनों देशों के कट्टरपंथी जमातें पानी को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की मांग उठाती रही हैं जैसे भारत में दक्षिणपंथी गुट पाकिस्तान को जाने वाला पानी रोकने की मांग कर बैठते हैं या पाकिस्तान के कट्टरपंथी तो "जल-जेहाद” की वकालत ही करने लगते हैं. 2001 में संसद पर हमले के बाद भी सिंधु जल समझौता तोड़ने की मांग भारत में जोरदार तरीके से उठी थी. उस समय वाजपेयी की अगुवाई मे एनडीए सरकार ही सत्ता में थी लेकिन इस मांग पर उसने तवज्जो ही नहीं दी. आज का युद्धोन्मादी तबका भी कुछ ऐसा चाहता है लेकिन सच्चाई ये है कि ये समझौता अपनी संरचना में कुछ ऐसा है कि इसे किसी भी देश के लिए तोड़ देना इतना आसान नहीं है. अगर ऐसा होता है तो इसके बहुत व्यापक और गहरे नतीजे हो सकते हैं.
पाकिस्तान नदी के बहाव के निचले मुहाने पर है लिहाजा अपनी जल सुरक्षा के लिए वो भारत पर निर्भर तो है. अगर चरमपंथियों की चली तो इससे नुकसान पाकिस्तान का होगा क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था बहुत हद तक कृषि पर भी निर्भर है, और भी कई आर्थिक लाभ जुड़े हैं. भारत भी पानी की सप्लाई काटने का जोखिम नहीं उठा सकता क्योंकि अव्वल तो ये कोई नहर जैसी स्थिति नहीं है, ये एक विशाल भूभाग में फैली विशाल नदी है. भारत की दूसरे पड़ोसी देशों के साथ भी जल संधियां हैं. भारत का फैसला उनके लिए गलत संकेत साबित हो सकता है. सिंधु नदी घाटी के विस्तार में रहने वाली एक बड़ी आबादी के लिए तो समझौते में जरा भी ऊंच-नीच जानलेवा साबित हो सकती है. भारत अगर पानी रोकता है तो उस पानी का बहाव वो कहां मोड़ेगा, कैसे उस अपार जलराशि को वो थामेगा जिसमें सहायक नदियों की जलसंपदा भी शामिल है. बांध बनाने, औद्योगिकीकरण करने से लेकर नागरिकों के विस्थापन तक, ऐसी कई पेचीदगियां हैं जो अर्थव्यवस्था में निरंतर सुधार के लिए जुगत लगा रही सरकारों के सामने बनी रहेंगी.
यह सच है कि भारत ने इस समझौते का पूरा इस्तेमाल नहीं किया है और उस अब तक जल संपदा का सिर्फ 20 प्रतिशत मिला है जबकि वह इससे ज्यादा का हकदार है. इसके लिए उसे बड़े जलाशय बनाने होंगे, लेकिन उसके बारे अब तक कभी सोचा नहीं गया है. भारत अपनी जरूरत के लिए पानी का भंडार बनाने की घोषणा कर भी पाकिस्तान पर दबाव बना सकता है. लेकिन सिंधु नदी समझौता ऐसा निराला समझौता है कि इससे भारत और पाकिस्तान अपने अपने स्तर पर लाभान्वित होते रहे हैं. अगर ये दोनों देश समझौते में सुधारों को जगह दें और सिंधु नदी के जल प्रबंधन को और बेहतर, पर्यावरण, आबादी और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आज की जरूरतों और दबावों के अनुरूप आधुनिक बनाने की कोशिश करें तो इससे होने वाले लाभ कई गुना बढ़ जाएंगे. फिलहाल ऐसा होने से तो रहा.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी