सेबिट में आधुनिक तकनीक के रंग
८ मार्च २०१३इम्बार्क इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी नाम की भारतीय कंपनी के इस सिस्टम का नाम 'फाइंड एंड सिक्योर' है. जर्मन शहर हनोवर में लगे कंप्यूटर मेले में पहुंचे कंपनी के एमडी शैलेंद्र बंसल ने कहा, "यहां हमें अच्छी कामयाबी मिली है. यूरोप के ज्यादातर देशों से हमें ऑर्डर मिले. कुल मिलाकर हमें 40 देशों से ऑर्डर मिले. यहां आना वाकई अच्छा रहा."
1990 में आईआईटी रुड़की से इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने वाले बंसल इस बार सॉफ्टवेयर का अपटेड फोर वर्जन लेकर आए हैं. उनके मुताबिक इस सिस्टम को लगाने के बाद इंटरनेट के जरिए दुनिया में कहीं भी बैठे वाहन पर नजर रखी सकती है. गाड़ी कहां खड़ी है, कहां जा रही है, हर वक्त इसका सटीक पता चलता है. खास बात यह भी है कि इंटरनेट के जरिए सॉफ्टवेयर को कुछ निर्देश देने पर गाड़ी में तुरंत हरकत होती है. मालिक चाहे तो हजारों किलोमीटर दूर से ही गाड़ी को बिल्कुल जाम कर सकता है. एक बार गाड़ी जाम हुई तो फिर वह तभी चलेगी जब मालिक उसे स्टार्ट होने का निर्देश दे.
सेबिट मेले में इस बार दुनिया भर की 4,100 कंपनियों ने शिरकत की. ज्यादातर कंपनियों ने अपनी नई मशीनों और नई योजनाओं की झलक दिखाई. इन्हीं सबके बीच करीब 30 भारतीय कंपनियां भी मैदान में थी. उनके स्टॉल में न तो मशीनें थी और न ही फैंसी मॉडल. लेकिन जिस किसी को नए सॉफ्टवेयरों की दरकार थी, वो भारतीय कंपनियों के सामने से एक बार जरूर गुजरा.
साझा सहयोग पर जोर
'शेयर इकोनोमी' सेबिट 2013 की मुख्य थीम रही. कई कंपनियों के अधिकारियों के साथ मिलकर आगे बढ़ने का आह्वान किया, सहयोग को समय की जरूरत और जरूरी बताया. असल में अभी सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर, इंटरनेट, सोशल नेटवर्किंग और टेलीकम्युनिकेशन कंपनियां ग्राहकों या यूजर्स की जरूरत के मुताबिक काम कर रही हैं. बिजनेस एक्सपर्ट चाहते हैं कि कंपनियां अपनी जानकारियां साझा करें. ऐसा हुआ तो यूजर्स को बेहतर सेवाएं मिलेंगी और कंपनियां भी स्वस्थ रह सकेंगी.
शेयर इकोनोमी में युवाओं पर ध्यान देने पर जोर दिया जा रहा है. इंटरनेट के जरिए फिल्में, गाने या तस्वीरें ही नहीं बल्कि घंटों के हिसाब से कार, घर, साइकिल और मोटरसाइकिल जैसी चीजें भी शेयर करने का रास्ता बनाया जा रहा है. सेबिट के प्रमुख फ्रांक पोर्शेमन के मुताबिक ऐसा करना पर्यावरण के लिए भी बेहतर होगा.
कुछ कंपनियों में दूसरी तरह से शेयरिंग शुरू हो रही है, मसलन आईडिया शेयरिंग. जर्मनी की सबसे बड़ी टेलीकॉम कंपनी डॉयचे टेलीकॉम ने सिर्फ अपने कर्मचारियों के लिए सोशल नेटवर्क शुरू किया है. नेटवर्क में हर कर्मचारी कंपनी की नीतियों पर चर्चा कर सकता है. सराहना के साथ आलोचना के लिए भी जगह है. 42,000 कर्मचारी इससे जुड़े हैं. साथ ही 200 कर्मचारी ब्लॉग लिख रहे हैं.
डॉयचे टेलीकॉम के अधिकारी स्टेफान ग्राबमायर कहते हैं, "निर्देश दो और नियंत्रण में रखो, मैनेजमेंट का यह तरीका पुराने जमाने की बात हो चुकी है. इन दिनों मैनजरों को मध्यस्थ बनने की जरूरत है. टेलीकॉम के सोशल नेटवर्क में उन्हें सवालों के जवाब, सबके सामने देने होते हैं और कुछ मौकों पर आलोचना को स्वीकार भी करना पड़ता है. इस लिहाज से कहा जाए तो सोशल नेटवर्क सिर्फ एक सॉफ्टवेयर भर नहीं है. इसकी वजह से हमने बिल्कुल नए ढंग से संवाद करने और काम करने की शुरुआत की है."
इंटरनेट पर छाते बादल
वैसे इस वक्त इंटरनेट जगत में क्लाउड शेयरिंग की काफी चर्चा हो रही है. कई कंपनियां यूजर्स को 50 या 100 जीबी स्टोरेज सुविधा दे रही हैं. इसके लिए मासिक शुल्क लिया जा रहा है. क्लाउड की आदत डालने के लिए कुछ कंपनियां कम स्टोरेज क्षमता वाले क्लाउड फिलहाल मुफ्त दे रही हैं. क्लाउड शेयरिंग के तहत यूजर्स अपने वीडियो, ऑडियो, तस्वीरें या फिर कोई भी डॉक्युमेंट इंटरनेट पर अपलोड कर लंबे वक्त तक सुरक्षित रख सकते हैं. आम तौर पर अब ऐसा करने के लिए, बड़ी हार्ड डिस्क, एक्सटर्नल हार्ड ड्राइव, बड़ी पेन ड्राइव और डीवीडी की जरूरत पड़ती थी. इन उकरणों को हमेशा साथ भी रखना पड़ता था. क्लाउड शेयरिंग के तहत यूजर्स अपना डाटा किसी खास कंपनी के सर्वर में रखेंगे. फिर वे दुनिया में कहीं भी जाएं अगर वहां इंटरनेट कनेक्शन मिला तो वे डाटा फौरन हासिल कर सकेंगे.
भारतीय कंपनियां भी इस कारोबार में पैर डाल रही हैं, लेकिन घरेलू बाजार कांटो से भरा है. जयमाता इन्फॉर्मेटिक्स के सलाहकार कुशल ठक्कर कहते हैं, "क्लाउड मार्केट बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है, लेकिन भारत में इंटरनेट की स्पीड बड़ी समस्या है. क्लाउड तभी अच्छे से काम कर पाएगा जब इंटरनेट की स्पीड तेज हो. अगर आपको कोई चीज अपलोड करने में ही घंटों का समय लग रहा है तो झल्लाहट होनी स्वाभाविक है. ऐसे में भारत में क्लाउड मार्केट का बूम पर आना मुमकिन नहीं, इसमें काफी वक्त लगेगा."
दुनिया की शीर्ष 50 टेलीऑपरेटर कंपनियों में शुमार चीन की कंपनी श्वावेई भी क्लाउड शेयरिंग की मशीनें लेकर हनोवर पहुंची. कंपनी 6 पेटाबाइट स्टोरेज मशीन से क्लाउड शेयरिंग कंपनियों को लुभाना चाहती हैं. छह पेटाबाइट यानी छह करोड़ जीबी डाटा, यानी 80 साल तक लगातार रिकॉर्ड कर बनाई गई एचडी फिल्म को स्टोर करने की क्षमता. कंपनी के मार्केटिंग डायरेक्टर डेविड हू के मुताबिक, "हमारी मशीनों के लिए क्लाउड शेयरिंग आसान और सुरक्षित हो सकती है. एक्सर्टनल हार्ड ड्राइव या यूएसबी स्टिक जैसे उपकरण समय के साथ पुराने पड़ते हैं. उन्हें टूट फूट हो सकती है. क्लाउड शेयरिंग का फायदा यह है कि कंपनियां अपना कारोबार बढ़ाने के लिए लगातार नए उपकरण खरीदेंगी, नई तकनीक लाएंगी. ऐसे में यूजर्स का डाटा सुरक्षित रहने की ज्यादा संभावना रहेगी."
लेकिन क्लाउड शेयरिंग के सामने बड़ी चुनौती अलग अलग देशों के पायरेसी और कॉपीराइट कानून से लड़ने के साथ लोगों का भरोसा जीतने की भी है. धीरे धीरे विज्ञापनों की बाढ़ से उकता रहे इंटरनेट यूजर्स नहीं चाहते कि उनका डाटा मार्केटिंग कंपनियों को बेचा जाए. विज्ञापनों से होने वाली आय गूगल और फेसबुक जैसी नामी कंपनियों की रीढ़ है. दरअसल कई इंटरनेट कंपनियों के पास अपने यूजर्स की जानकारी का विशाल डाटा बैंक है, फिलहाल ये पर्सनल डाटा सोने का अंडा देने वाली मुर्गी से कम नहीं. लेकिन डर है कि सोने के अंडों के लालच में कहीं मुर्गी अनदेखी का शिकार हो कर मर न जाए.
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी, हनोवर
संपादन: महेश झा