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समाज

क्यों दबाव में हैं फिल्म उद्योग के कलाकार

अजय ब्रह्मात्मज
१० अगस्त २०२०

भारत का हर सातवां व्यक्ति मनोरोग का शिकार है. बॉलीवुड के सितारे पेशे से अलावा और कई तनाव से जूझ रहे हैं. बढ़ती निराशा, हताशा, असुरक्षा और अनिश्चितता की वजह से तनाव में डूब रही प्रतिभाओं की स्थिति चिंताजनक है.

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Global Indian Film Awards
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Kittiwongsakul

कोरोना महामारी को रोकने के लिए पूर्णबंदी के बाद से मनोरंजन जगत की सारी गतिविधियां ठप हैं. अभी थोड़ी सुगबुगाहट हुई है. फिर भी तात्कालिक सख्त दिशानिर्देशों ने 65 साल से अधिक उम्र के कलाकारों और तकनीशियनों पर नयी पाबंदी लगा दी है. स्पष्ट निर्देश दिया गया कि इस दौरान शूटिंग की गतिविधियों में उम्रदराज कलाकारों और तकनीशियनों को संभावित संक्रमण की वजह से शामिल नहीं किया जा सकता. नतीजतन अनेक उम्रदराज कलाकार काम करने की चाहत और सक्रियता के बावजूद बेरोजगार हो गए हैं. साथ ही पूर्णबंदी के दौरान काम ठप होने से दिहाड़ी कलाकारों की मुसीबतें बढ़ गई हैं. उनकी आमदनी का सोता ही सूख गया है. हालांकि अब हाईकोर्ट ने इस रोक को हटाने का आदेश दिया है.  

पिछले दिनों सुप्रसिद्ध अभिनेत्री सुरेखा सीकरी के हवाले से उम्रदराज कलाकारों की असुरक्षा की खबरें आईं. सुरेखा सीकरी जरा परिचित नाम हैं. उनकी उम्र के सैकड़ों अनाम कलाकार काम पर लगी तात्कालिक पाबंदी से आर्थिक तंगी झेल रहे हैं. पूर्णबंदी के शुरूआती दौर में कुछ संपन्न कलाकारों और निर्देशकों ने उनकी मदद में हाथ बढाया. कलाकारों और तकनीशियनों की संस्थाओं और व्यक्तिगत संपर्क से आर्थिक मदद मिली, लेकिन उसकी निरंतरता नहीं बनी रही. ऊपर से कोविड-19 ने फिल्म इंडस्ट्री की अधिकांश गतिविधियों को पॉज मोड में ला दिया है. दिहाड़ी कलाकारों और मजदूरों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि काम पूरा करने के तीन महीनों के बाद उन्हें पारिश्रमिक मिलता है. मार्च में पूर्णबंदी लागू होने से उन्हें दिसंबर-जनवरी के बाद किए किसी काम का भुगतान नहीं हुआ है. मार्च से तो काम ही बंद है. प्रोडक्शन कंपनियों ने कोविड-19 की आड़ में पहले के पारिश्रमिक भी नहीं दिए. फिलहाल फिल्म इंडस्ट्री में छिटपुट गतिविधियां आरंभ हुई हैं. वहां सीमित संख्या रखने के दिशानिर्देश से सभी के लिए गुंजाइश नहीं बन रही है.

खत्म हो रही है कई लोगों की उम्मीदें

स्थिति भयावह है. इस अंधेरे में अनेक हस्तियां बेआवाज बिलख रही हैं. उनमें से कुछ अपनी प्रतिष्ठा और कद की वजह से मदद के लिए हाथ भी नहीं पसार सकतीं. लगभग सात महीनों से आमदनी नहीं होने से जमा पूंजी समाप्त हो रही है. इधर कुछ महीनों में मुंबई से सैकड़ों-हजारों की तादाद में कलाकार और तकनीशियन अपने गांव, कस्बों और शहरों को लौट गए हैं. पूर्णबंदी में वापस गए फिल्म बिरादरी के नामालूम सदस्यों की कहीं कोई गिनती भी नहीं हुई है. उनके शुरू के एक-दो महीने तो इस आस में कटे कि पूर्णबंदी के बाद गतिविधियां फिर से शुरू हो जाएंगी, लेकिन तीसरे महीने के बाद व्याप्त अनिश्चितता ने उन्हें डेरा-डंडा उठाने के लिए मजबूर किया. असुरक्षा जारी है. इसी बीच सुशांत सिंह राजपूत की खबर आई.

Filmstill | Schauspieler Sushant Singh Rajput im Film Chhichhore
सुशांत सिंह राजपूततस्वीर: picture-alliance/Everett Collection

सुशांत सिंह राजपूत की असामयिक और अस्वाभाविक मौत ने फिल्म इंडस्ट्री समेत पूरे देश को स्तब्ध कर दिया. अभी आत्महत्या या हत्या की गुत्थी उलझ गई है. मुंबई पुलिस की आरंभिक तहकीकात से असंतुष्ट प्रशंसकों और राजनीतिक हलकों के शोर से मामला सीबीआई के हाथों में चला गया है. सीबीआई की जांच होने और निष्कर्ष आने में समय लगेगा. राजपूत की आकस्मिक मौत के बाद से ही नेपोटिज्म, आउटसाइडर, मानसिक तनाव, और निराशा की भी चर्चा बढ़ गयी है. हर व्यक्ति अपने एजेंडा से उनकी मौत की व्याख्या कर रहा है. उनका इलाज कर रही साइकेट्रिस्ट तक का बयान आया. उस बयान के पहले ही जाहिर हो चुका था कि राजपूत मानसिक तनाव से गुजर रहे थे. उनका इलाज चल रहा था. सामान्य रूप से मनोरंजन जगत और विशेष रूप से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में पिछले कुछ समय से तनाव और निराशा पर खुलकर बातें होने लगी हैं. दीपिका पादुकोण डिप्रेशन से निकलने के बाद मुहिम चला रही हैं. अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं और मनोरोग विशेषज्ञ भी इस दिशा में कार्यरत हैं. निश्चित ही इधर जागरूकता आई है, लेकिन अब भी तनावग्रस्त व्यक्तियों और व्यापक समाज का रवैया इस संकट के प्रति बहुत अधिक नहीं बदला है.

हर सातवां मनोविकार का शिकार

एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में हर सात में से एक व्यक्ति किसी न किसी मनोरोग या मनोविकार से ग्रस्त है. 2017 के इस सर्वेक्षण के अनुसार देश में यह संख्या 19 करोड़ 73 लाख है. देश की 14.7 फीसदी आबादी तनावग्रस्त है. सामान्य जीवन की यह स्थिति है, लेकिन उनके उपचार के मद में सरकार अपने बजट का 1% भी खर्च नहीं करती. अभी कोविड-19 में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की बिगड़ी हालत सामने आ गई. मनोरोग तो वैसे भी चिंताजनक नहीं माना जाता है, क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से यह जानलेवा नहीं लगता. मनोरंजन जगत की बात करें तो हर चार-पांच व्यक्ति में से एक व्यक्ति किसी न किसी मनोविकार से पीड़ित मिलेगा. सभी की समस्याएं अलग हैं. टीवी और फिल्म इंडस्ट्री के क्षेत्र में होड़ इतनी जबरदस्त है कि एक तो मुश्किल से कामयाबी मिलती है और अगर मिल भी गई तो उसे संभाले रहना उससे बड़ी चुनौती होती है. राजपूत के मामले में यह संकेत मिलता है कि उन्हें दरकिनार और नजरअंदाज किया जा रहा था. फिल्म इंडस्ट्री के अंदरूनी घेरे से यह तिरस्कार,अपमान और विरोध पिछले तीन दशकों में सभी आउटसाइडर को झेलना पड़ा है. इरफान खान और मनोज बाजपेयी का उदाहरण सामने है. दोनों की प्रतिभाओं से नाइत्तफाकी नहीं हो सकती, लेकिन दोनों को आज की स्थिति तक पहुंचने में कठिन संघर्ष करना पड़ा है. लगभग सभी इस चक्की में पिसे हैं.

Indien Schauspieler Manoj Bajpai
प्रकाश झा और अमिताभ बच्चन के साथ मनोज वाजपेयीतस्वीर: picture-alliance/dpa

मनोरंजन जगत में शीर्ष पर जगह कम है और वहां पहुंचने के इच्छुक बहुत ज्यादा हैं. इरफान ने 20 साल पहले के एक इंटरव्यू में इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि यहां ‘टैलेंट से नहीं, नेटवर्किंग से काम मिलता है'. यह नेटवर्क बनाने में बाहरी प्रतिभाओं की उम्र कट जाती है और वे मुख्य भूमिकाओं के योग्य उम्र गंवा देते हैं. कुछ दशक पहले तक समाज में मनोरंजन जगत में आने की ऐसी ललक नहीं थी. अभी हर गांव, कस्बे और शहर से दस-बीस युवा मनोरंजन जगत में आने को उत्सुक रहते हैं. विभिन्न राज्यों में अन्य पेशों की तरह उनके लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था नहीं है. नतीजतन तैयारी में वक्त लगता है. मनोरंजन जगत के ग्लैमर और पैसों के साथ मिलने वाली लोकप्रियता और पहचान उन्हें लुभाती है. भारतीय समाज में मनोरंजन जगत की छोटी कामयाबी भी सेलिब्रिटी स्टेटस दे देती है. चंद प्रतिभाएं यह हासिल भी कर लेती हैं, लेकिन उसके बाद के झंझावातों को संभालने के लिए उनके पास नैतिक, आध्यात्मिक और भावनात्मक संबल नहीं होता. लोकेषणा उन्हें अनजान भंवरजाल में फंसाती है. एकबारगी आई लोकप्रियता और समृद्धि भटकाव का कारण भी बनती है. आरंभिक कामयाबी बनाए ना रख पाने का तनाव और भी ज्यादा होता है. यह कई बार व्यसन, मनोरोग और अन्य व्याधियों के रूप में जाहिर होता है.

भावनात्मक असुरक्षा का क्या उपाय

अगर पिछले सालों में हुई आत्महत्याओं का अध्ययन करें तो पाएंगे कि सभी भावनात्मक रूप से असुरक्षित और कमजोर थे. लगभग सभी मध्यवर्गीय परिवारों और छोटे शहरों से आई प्रतिभाएं थीं. अधिकांश कामयाबी और पहचान के बाद वे अपने ही परिजनों से कट जाते हैं. परिवार के सदस्यों से तालमेल धीरे-धीरे घटता और खत्म हो जाता है. कलाकार की चिंताएं और मुश्किलें सामान्य परिवार नहीं समझ पाता और सुदूर शहरों में होने की वजह से वे समय पर उचित मदद भी नहीं कर पाते. इसके अतिरिक्त मशहूर और समृद्ध होते ही अधिकांश कलाकारों पर परिवार की अतिरिक्त और अनावश्यक जिम्मेदारियां लाद दी जाती है. नए रिश्तेदार निकल आते हैं और उनकी जरूरतें हमेशा मुंह खोले खड़ी रहती हैं. अनेक कलाकार इस वजह से भी नाते-रिश्तेदारों से कटने लगते हैं.

मनोरोग विशेषज्ञ अपनी तई आगाह कर रहे हैं, लक्षण, बचाव और उपचार पर बातें की जा रही है, लेकिन कोविड-19 के कहर से पसरी उदासी से मुश्किलें कम नहीं हो रही हैं. ऊपर से मनोरंजन जगत की छवि धूमिल करने की अप्रत्यक्ष कोशिशें जारी हैं. वर्तमान राजनीति और सत्ता में बैठी शक्तियों को मनोरंजन जगत की स्वछंदता, स्वतंत्रता और निरपेक्षता नागवार गुजर रही है. पूरी कोशिश है कि नकेल कस दी जाए और उन्हें काबू में लाया जाए. मनोरंजन जगत में कामयाब व्यक्ति निहायत अकेला होता है. हालांकि इस अकेलेपन से उबरने के इंतजाम भी उनके पास होते हैं, लेकिन कई बार लालसा और सुविधाओं का चक्रव्यूह में उन्हें अभिमन्यु बना कर छोड़ देता है. छोटे-मोटे कलाकार से लेकर पॉपुलर स्टार तक इसके शिकार होते हैं.

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