हिंद महासागर के देशों को रिझाने की कोशिश में भारत
२९ जनवरी २०२१बंगलुरु में 3 से 5 फरवरी को सालाना एयरो इंडिया 2021 प्रदर्शनी होगी. एयरो इंडिया को एशिया की सबसे बड़ी एयरोस्पेस प्रदर्शनी का खिताब हासिल है और इस लिहाज से यह रक्षा संबंधी मसलों और उपकरणों से जुड़ा एक महत्वपूर्ण मंच भी है. इस बार के एयरो इंडिया के दौरान 4 फरवरी को एक खास बैठक बुलाई गई है जो सामरिक लिहाज से बड़ी अहम है. यह बैठक है हिंद महासागर के रक्षा मंत्रियों की जिसमें भारत की ओर से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह शिरकत करेंगे. बैठक का मुख्य मुद्दा है " हिंद महासागर में शांति, सुरक्षा, और सहयोग में बढ़ोत्तरी” पर विचार विमर्श.
माना जा सकता है कि ये सारे रक्षा मंत्री दुनिया के सामने सफेद कबूतर उड़ाने की बातें भले ही करें लेकिन अंदरखाने कोशिश क्षेत्रीय सुरक्षा के गंभीर मसलों पर खुली और बेबाक बातचीत की होगी और यह अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है. भारत पहले से ही इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन और इंडियन ओशन नेवल सिम्पोजियम का सदस्य है. इसके अलावा भारत के हिंद महासागर के कई देशों के साथ त्रिकोणीय और बहुपक्षीय सहयोग के प्लेटफॉर्म भी हैं. इनमें इंडोनेशिया, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, फ्रांस, मालदीव जैसे प्रमुख देश हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत का यह निर्णय सीधे सीधे चीन से जुड़ा हुआ है. चीन और भारत के बीच पिछले कई महीनों से सीमा पर विवाद और सेनाओं के आमने सामने डटे होने से यह बात ज्यादा स्वाभाविक भी लगती है. हालांकि मीडिया में जो आम रहय बन गई है कि गलवान में चल रहा सीमा विवाद इस बैठक की वजह है, वह पूरी तरह सही नहीं है.
हिंद महासागर के देशों की यह बैठक भारत की दूरगामी नीतियों में बदलाव का नतीजा है. भारत को इस बात का अहसास हो चुका है कि अगर वक्त रहते चीन की कारगुजारियों को दुनिया के सामने नहीं लाया गया और एक सामरिक संयुक्त मोर्चे का निर्माण नहीं हुआ तो हिंद महासागर को दक्षिण चीन सागर बनने में देर नहीं लगेगी. हिंद महासागर में और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में नियमबद्ध आचरण, व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सम्मान सुनिश्चित करने के लिए भारत की अगुआई अब जरूरी हो गई है. भारत को यह भी बखूबी मालूम है कि अकेले इस काम को अंजाम देना भी मुश्किल है.
एक जमाना था जब दुनिया के किसी देश की हिंद महासागर में सैन्य उपस्थिति भारत को नागवार गुजरती थी. भारत ने हिंद महासागर को तटस्थ क्षेत्र घोषित करने के लिए बहुत कोशिशें भी की थी और उसमें भारत को सफलता भी मिली. हालांकि वह समय शीत युद्ध का था जब दुनिया दो धड़ों में बंटी हुई थी.
भारत की तत्कालीन नीति के पीछे दो और प्रमुख कारण थे. पहला तो यह कि अमेरिका के साथ भारत के संबंध काफी खराब थे. अमेरिका पाकिस्तान का इस हद तक कट्टर हिमायती था कि बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के वक्त 1971 में उसने अपना सातवां बेड़ा भेज कर भारत पर हमले की धमकी तक दे डाली थी. 1971 और 2021 में जमीन आसमान का फर्क है. आज अमेरिका और भारत के बीच खटपट भी किसी बुरे सपने की तरह लगती है. अमेरिका खुद आज भारत को हिंद महासागर और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में एक बड़ी भूमिका के लिये प्रोत्साहित कर रहा है. ऐसा सिर्फ डॉनल्ड ट्रंप और जार्ज डब्ल्यू बुश रिपब्लिकन राष्ट्रपति ही नहीं बल्कि बराक ओबामा और बिल क्लिंटन जैसे डेमक्रैट नेताओं के कार्यकाल में भी हुआ. माना जा रहा है कि नवनिर्वाचित सत्तासीन राष्ट्रपति जो बाइडेन के कार्यकाल में भी ऐसी ही व्यवस्था बनी रहेगी.
अमेरिका के साथ परवान चढ़ी दोस्ती के अलावा एक दूसरा बड़ा कारण है चीन की हिंद महासागर में बढ़ती उपस्थिति. बीते सात दशकों में चीन भारत के लिए जमीनी सीमा पर तो एक बड़ी चुनौती और खतरा रहा था लेकिन समुद्री मोर्चे पर भारत को अपनी मजबूत नौसेना और चीन की कमजोरी का फायदा मिला. हाल के वर्षों में यह परिस्थिति तेजी से बदली है. पिछले कुछ वर्षों में चीन ने तेजी से अपनी नौसेना का विकास किया है. सदी की शुरुआत से ही चीन का जोर हिंद महासागर में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने पर रहा है. चीन ने अक्सर इस बात पर भी जोर दिया है कि हिंद महासागर सिर्फ हिंदुस्तान का नहीं है. हालांकि भारत ने कभी यह कहा ही नहीं कि हिंद महासागर उसकी जागीर है. लेकिन भारत का हिंद महासागर में दबदबा रहा है इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है.
बहरहाल इस बयान से हिंद महासागर में भारत की मौजूदगी से चीन की झल्लाहट साफ दिखती है. बेल्ट एंड रोड परियोजना के तहत मैरीटाइम सिल्क रोड के जरिये चीन ने हिंद महासागर में अपनी स्थिति बहुत मजबूत कर ली है. चीन पिछले कई सालों से कहता आया है कि वह कोई उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी शक्ति नहीं है कि हिंद महासागर को सैन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करे. साथ ही यह भी कि हिंद महासागर में उसे सिर्फ सुगम और निर्बाध व्यापार और शांति चाहिए. हालांकि जिबूती में देश का पहला बाहरी सैनिक अड्डा बनाने के साथ ही चीन की इन खोखली बातों पर से पर्दा भी हट गया है. आज चीन ‘चेक बुक डिप्लोमेसी' और गरीब देशों में निवेश और तमाम खरीद फरोख्त के जरिये हिंद महासागर में मजबूत जगह बना चुका है. श्री लंका हो या मालदीव, सेशेल्स हो, मारिशस, म्यांमार या बांग्लादेश, चीन की बंदरगाहों और समुद्रतटीय इलाकों में दिलचस्पी असाधारण रूप से बढ़ी है. मालदीव और श्री लंका में चीन के असफल निवेशों के बाद से यह भी साफ हो चला है कि कर्ज के जाल की चीनी ‘डेट ट्रैप डिप्लोमसी' उसके लिए काफी कारगर हो रही है और मेजबान देश के लिए तबाही का सबब भी. हम्बनटोटा बंदरगाह इसका जीता जागता प्रमाण है.
इन सब के बीच भारत को यह भी अच्छी तरह मालूम है कि उसके लाख चाहने के बावजूद ना कोई देश उसकी नसीहतों को सुनेगा और ना इसे पसंद करेगा. ताकत और समृद्धि में भारत से मजबूत चीन उसकी किसी सलाह या धमकी को सुन ले ऐसा होना फिलहाल तो बहुत मुश्किल दिखता है.
ऐसे में हिंद महासागर के देशों को इकट्ठा करके इस पर चिंतन मनन करने की तरकीब भारत के लिए मददगार हो सकती है. और मान लें कि यह सफल ना भी हो तो इसमें नुकसान कोई नहीं. कम से काम कुछ समान विचारधारा वाले देश और नजदीक आ जायेंगे और दूर हैं वह खतरे की घंटियों को सुनकर शायद जाग ही जायें. जो भी हो, भारत के लिये हिंद महासागर अब सामरिक रूप से एक नया मोर्चा बनता दिख रहा है जिसमें चुनौतियां और खतरे तो हैं लेकिन सहयोग और दोस्ती के नए रास्ते भी.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
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