हिन्दी सिनेमा मतलब शाहरुख
१५ अप्रैल २०१३.थोड़ी देर में काले रंग की कार रुकी, और सैकड़ों मुंह एक साथ खुल गए, शाहहह..रुख. पहली पहली बार जर्मनी आए शाहरुख खान हैरान रह गए. उन्होंने ख्वाबों में भी नहीं सोचा था कि जर्मनी में उनका कुछ ऐसा स्वागत होगा. अगले दिन डॉयचे वेले से मुलाकात के वक्त शाहरुख जर्मन अखबारों की सुर्खियां समझने की कोशिश कर रहे थे. जर्मन भाषा तो नहीं पढ़ पाए, लेकिन तस्वीरों से समझ गए. कल बर्लिन फिल्म समारोह में स्वागत, आज मीडिया में ऐसा कवरेज, "जर्मन लोगों को जिस तरह मैं पसंद आया हूं, मैं सोचने लगा हूं कि मैं जर्मन हूं या ये लोग भारतीय हैं."
फिल्मों की तकनीक
तमाम तकनीकी श्रेष्ठता और उपकरणों के बावजूद जर्मन फिल्में सीमित दायरे से आगे नहीं निकल पाई हैं. फिल्मों की शुरुआत इतिहास की कहानियों से होती है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब सिनेमा समृद्ध हो रहा था, तो जर्मन अपने इतिहास पर रो रहे थे. नाजी काल और हिटलर के नाम से उन्हें नफरत थी. अमेरिका से फिल्में आने लगीं, जो शानदार तकनीक से बन रही थीं. हॉलीवुड ने भाषाई दीवार तोड़ी. जर्मनी फिल्मों की डबिंग की सबसे बड़ी जगह बनने लगा.
यह संयोग ही था कि शाहरुख खान ऐसे दौर में उभरे, जब भारतीय सिनेमा ईस्टमैन कलर और 70 एमएम के पर्दे से बाहर निकला. कहानी से इतर भारतीय फिल्में तकनीक के मामले में विदेशी फिल्मों की कतार में खड़ी होने लगीं. बिना तकनीकी गुणवत्ता के विदेशों में फिल्में बेच पाना आसान नहीं. शाहरुख की फिल्में यहां फिट हो गईं. जर्मनी की जानी मानी एंकर और भारतीय फिल्मों पर बारीकी से नजर रखने वाली मोनिका जोन्स ने भारत और जर्मनी में कई बार शाहरुख खान से फिल्मों पर चर्चा की है. उनका कहना है, "हो सकता है कि बाजीगर या डर तकनीकी रूप से उतनी अच्छी न हो, जितनी कभी खुशी कभी गम या मैं हूं ना थी. लेकिन जब जर्मन टेलीविजन ने इन फिल्मों को दिखाना शुरू किया, तो लोगों ने इन्हें तकनीकी रूप से जबरदस्त पाया. वे पश्चिमी दर्शकों की सभी मांगें पूरा कर रही हैं, जो दिल से इन फिल्मों को अपना रहे हैं."
दिल से....
जर्मनों के लिए हर चीज बेहद गंभीर मुद्दा है और वे हर मुद्दे पर गंभीर चर्चा करना चाहते हैं. बॉलीवुड की फिल्में दिमाग से नहीं, दिल से बनती हैं. शाह रुख की फिल्में आम तौर पर नाच गाने और परिवार के आस पास सिमटी रहती हैं और डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने माना कि यही उनकी कामयाबी की वजह बनी, "सिनेमा में या गानों में जरूरी नहीं है कि लोग हमें समझें. जरूरी है कि लोग हमें महसूस करें और यहां आकर मुझे लगने लगा है कि जर्मन लोगों ने हमारी फिल्मों को बहुत प्यार से महसूस किया है."
कोई आठ साल पहले 2005 में पहली बार शाहरुख की कोई फिल्म जर्मन में डब करके दिखाई गई. फिर तो आरटीएल पर हर हफ्ते कोई न कोई हिन्दी फिल्म दिखाई जाने लगी. कोलोन, म्यूनिख और बर्लिन के सिनेमाघरों में हिन्दी फिल्में लगने लगीं. जोन्स के मुताबिक शाहरुख ने जर्मनों में जज्बात जगाए, "उन्होंने हमें रोने का मौका दिया. उन्होंने सही जगह पर वार किया. जर्मन आम तौर पर अपनी भावनाओं को छिपा लेते हैं. और यह बड़ा सेहतमंद रहा कि उस जगह पर अचानक किसी ने वार कर दिया."
शाहरुख के अलावा
आठ साल पहले जो उबाल था, वह धीरे धीरे ठंडा पड़ा. जुनून कम हुआ है. लेकिन शाहरुख ने जर्मनी में हिन्दी फिल्मों के रास्ते खोले हैं. भारतीय फिल्म उद्योग को विशाल उद्योग माना जाने लगा है. अब दूसरी फिल्में आने लगी हैं. विषय वस्तु बदल गई है. इनमें भारत की अलग तस्वीर दिखती है. जर्मनी की जानी मानी फिल्म पत्रकार और बर्लिनाले फिल्म समारोह की चुनाव समिति से जुड़ी डोरोथी वेनर बताती हैं, "जर्मनी में शाह रुख की जो फिल्में आ रही थीं, वे पारिवारिक फिल्में थीं और अब जो फिल्में आ रही हैं, वे थोड़ी अलग हैं. अब यहां कुछ फिल्म समीक्षक कहने लगे हैं कि वे तो बॉलीवुड फिल्में थी ही नहीं."
तो क्या यह शाहरुख का जलवा है, या फिर उनकी जगह कोई भी भारतीय स्टार जर्मनी में इस खाने को भर देता, वेनर बताती हैं कि यह सवाल इतना जटिल है कि "यूरोप की चार यूनिवर्सिटी में इस पर रिसर्च चल रही है." उनका मानना है कि आने वाले वक्त में समीकरण बदल सकते हैं क्योंकि शाहरुख खान की फिल्में फ्लॉप हो रही हैं और लोकप्रियता में सलमान खान आगे निकल रहे हैं. इसके अलावा "शाहरुख खान की उम्र भी बढ़ रही है."
रिपोर्टः अनवर जे अशरफ
संपादनः निखिल रंजन