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फिल्में ही मेरी महबूबा हैं: धर्मेंद्र

६ नवम्बर २०१०

बॉलीवुड के असली हीमैन बेशक धर्मेंद्र ही हैं. उनके बाद हिंदी फिल्मों में कोई हीमैन नहीं कहलाया. वैसे मारधाड़ वाली फिल्मों के अलावा उन्होंने बहुत सी दूसरी बेहतरीन और कलात्मक फिल्में भी दीं. डॉयचे वेले से खास बातचीत.

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तस्वीर: Mskadu

एक आदर्शवादी स्कूल शिक्षक पिता की संतान और किसान परिवार से संबंध रखने वाले धर्मेंद्र ने हिंदी फिल्म उद्योग में अपने बूते कामयाबी की सीढ़ियां तय कीं. वह सिनेमा को अपनी महबूबा मानते हैं. दीवाली के मौके पर एक निजी समारोह में शिरकत करने कोलकाता आए धर्मेंद्र ने अपने अतीत की यादें डॉयचे वेले के साथ बांटी. पेश है इसी बातचीत के प्रमुख अंशः

पंजाब में किसान परिवार से होने के बावजूद फिल्मों में कैसे आए?

मुझे बचपन से ही सिनेमा बेहद पसंद था. पिता स्कूल शिक्षक थे. पंजाब की मिट्टी मेरी सांसों में बसी थी. युवावस्था में मैं अपने आदर्श अभिनेताओं मोतीलाल और दिलीप कुमार की फिल्में देखने थिएटर जाता था. उनको अभिनय करते देख मेरे मन में भी अभिनेता बनने की इच्छा हुई. तो बस मैं फिल्मों में हीरो बनने का संकल्प लेकर पचास के दशक में मुंबई पहुंच गया.

उस समय आपको फिल्मों के लिए कैसा संघर्ष करना पड़ा?

उस समय फिल्मों में प्रवेश की राह बेहद मुश्किल थी. तब मनोज कुमार और शशि कपूर भी वहां अपनी किस्मत आजमा रहे थे. हमें इस दौरान काफी जिल्लत और शर्म भी झेलनी पड़ी. लेकिन हम फिल्मों में अपनी पहचान बनाने के लिए पक्का इरादा किए हुए थे. मुझे अब भी अच्छी तरह याद है कि हम लोग अपनी किस्मत चमकने के इंतजार में फिल्मिस्तान स्टूडियो में घंटों बेंच पर बैठे रहते थे. एक बार तो मैंने संघर्ष से तंग आकर फ्रंटियर मेल से पंजाब लौटने का मन बना लिया था. लेकिन मनोज कुमार ने मुझे रोक लिया और हिम्मत बंधाई. उन्होंने अपने तौर पर मुझे मानसिक तौर पर काफी मजबूती दी.

फिर पहला ब्रेक कैसे मिला?

वर्ष 1958 में महबूब स्टूडियो में फिल्मफेयर टैलेंट कॉन्टेस्ट के दौरान जाने-माने निर्देशक बिमल रॉय ने मेरी प्रतिभा को पहचाना. तब देवानंद बहुत बड़े कलाकार थे. उन्होंने मुझे अपने मेकअप रूम में बुला कर अपने साथ खाना खिलाया. उन्होंने कहा कि तुम्हारे भीतर काफी प्रतिभा है.

पहली बार हीरो कब बने?

वर्ष 1960 में अर्जुन हिंगरोनी ने दिल भी तेरा, हम भी तेरे में मुझे हीरो की भूमिका दी. वह बेहद मेहनती निर्देशक थे. बार-बार रीटेक के बावजूद वह धैर्य नहीं खोते थे और प्रदर्शन सुधारने के लिए प्रोत्साहित करते थे. वह फिल्म तो ज्यादा नहीं चली. लेकिन मेरा करियर चल निकला.

कोलकाता से आपकी कैसी यादें जुड़ी हैं?

मेरे लिए कोलकाता का मतलब सुचित्रा सेन हैं. इन दिनों उनसे बात तो नहीं हो पाती. लेकिन मेरे मन में हमेशा उनके लिए एक खास जगह रहेगी. वह एक सुंदर व्यक्तित्व वाली महिला और महान अभिनेत्री रही हैं. वह विश्वस्तरीय अभिनेत्री थी. मैंने ममता में उनके साथ काम किया था. वह मेरे करियर का एक यादगार मुकाम है.

इस फिल्म से जुड़ी कोई खास बात जो आपको अब तक याद हो?

हां, साठ के दशक में मैं ममता के प्रीमियर के लिए कोलकाता में था. जिस पंच सितारा होटल में ठहरा था वहां नए साल की पार्टी थी. मैं अपने कमरे से रात में लुंगी में ही निकल आया. लेकिन होटल प्रबंधन ने कहा कि मैं बिना कोट और टाई के पार्टी में नहीं जा सकता. तभी मैंने देखा कि किसी ने मुझे कोट पहना दिया. एक दूसरे व्यक्ति ने मुझे टाई बांध दी. इस तरह मैं लुंगी पर कोट पहन कर टाई बांधे पार्टी में गया.

आपने अपने लंबे करियर में अपने बेटों, बेटी और पत्नी हेमामालिनी के साथ भी काम किया है. अब आप हेमा जी के निर्देशन में भी काम कर रहे हैं. कैसा लगता है?

फिल्मों में काम करते समय हम रिश्ते भूल कर उस चरित्र में डूब जाते हैं. इसलिए काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती. निर्देशक और हीरो के बीच तो गुरू-शिष्य का रिश्ता होता है.

फिल्मों में काम करते आपको पचास साल पूरे हो गए हैं. कोई हसरत बाकी है?

अब भी किसी फिल्म की शूटिंग के पहले दिन मैं वैसे ही नर्वस रहता हूं, जैसा जीवन में पहली बार हुआ था. सिनेमा अब भी मेरी महबूबा है. इतने अरसे बाद भी मुझे लगता है कि मैं अब तक अपना श्रेष्ठ अभिनय नहीं कर सका हूं. आने वाली फिल्मों अमला पगला दीवाना और टेल मी खुदा में शायद मैं अपनी प्रतिभा से न्याय कर सका हूं. इसका फैसला तो दर्शक ही करेंगे.

इंटरव्यूः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः ए कुमार

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