भारत में समलैंगिकों का जीवन अब भी मुश्किलों में
१५ फ़रवरी २०१९हरियाणा की एक सड़क किनारे मौजूद ढाबे में बाबू राम भोषने और उनके छह साथी किसी समलैंगिक या ट्रांसजेंडर को काम पर रखने की बात पूछने पर ठहाका मार कर हंस पड़ते हैं. तगड़ी मूंछों वाले 62 साल के राम भोषने ने हंसते हुए ककहा, "मैं अपना व्यापार चलाऊं या इस बात की चिंता करूं कि लोग मेरे बैरों से फ्लर्ट कर रहे हैं." राम भोषने के ढाबे पर ज्यादातर ट्रक चलाने वाले, खेतों में काम करने वाले किसान और आसपास के गांव से लोग आते हैं. उनका कहना है, "अगर किन्नर और समलैंगिक पुरुष यहां होंगे तो मेरे सारे ग्राहक भाग जाएंगे. वे इन सब चीजों के लिए तैयार नहीं हैं."
विशेषज्ञों का कहना है कि समलैंगिक लोगों पर फिकरे कसना भारत के लिए कोई अनोखी बात नहीं. बड़ी आर्थिक तरक्की करने के बावजूद भारत मोटे तौर पर एक रुढ़िवादी समाज है जहां समलैंगिकता और शादी से पहले यौन संबंधों पर लोगों की त्यौरियां चढ़ जाती हैं.
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत के 6 करोड़ छोटे और मध्यम दर्जे के उपक्रमों से ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में हैं. जीडीपी में इनकी हिस्सेदारी करीब 30 फीसदी है.
भोषने के गोल्डी वैष्णव रेस्तरां के अलावा दर्जन भर से ज्यादा जगहों पर जब इस बारे में पूछा गया तो उनका जवाब एक जैसा ही मिला. या तो उन्हें नए कानून के बारे में पता नहीं है या फिर वो इसकी परवाह नहीं करते. समलैंगिकों के अधिकार के लिए काम करने वाले प्रमुख कार्यकर्ता अशोक कवि का कहना है कि शहर हो या दूरदराज के इलाके, ज्यादातर फर्मों में तो अभी लैंगिक समानता ही दूर की कौड़ी है तो समलैंगिकों के लिए नीति लागू करने के बारे में क्या कहा जाए. कवि का कहना है, "इन जगहों पर महिलाएं ही नहीं हैं तो आपको ट्रांसजेंडर कहां से मिलेंगे? अगर कोई लड़के में स्त्री जैसे गुण होंगे तो उसकी मुश्किल हो जाएगी."
कवि का कहना है कि यह तब तक नहीं होगा जब तक हम यह ना मान लें कि एक जहलीला, मर्दाना वातावरण चारों तरफ है और अपनी शिक्षा व्यवस्था के जरिए जब तक हम इसे बदलना ना सीख लें."
भारत में करीब 5.5 करोड़ समलैंगिक रहते हैं, इसके बावजूद बाजार उनकी क्षमताओं का इस्तेमाल करने में सिर्फ भेदभाव की वजह से नाकाम रहा है. यही वजह है कि बड़ी कंपनियों ने इन नीतियों को लागू करना शुरू कर दिया है. इनमें समलैंगिक जोड़ों के लिए इंश्योरेंस पॉलिसी से ले कर, लैंगिक उदासीन बाथरूम, लिंग बदलने के ऑपरेशन के लिए छुट्टियां और कर्मचारियों को इसके लिए तैयार करना भी शामिल है. गोदरेज इंडिया कल्चर लैब के प्रमुख परमेश शाहानी कहते हैं, "कॉर्पोरेट भारत ने यह जान लिया है कि आप चाहे जिस नजरिये से भी देखें हर कोई लंबे समय के लिए नियुक्ति चाहता है और उनके लिए समावेशी होना सचमुच जरूरी है. वे लोग समलैंगिकता से डरने वाली कंपनियां नहीं चाहते."
वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि समलैंगिकता के डर की वजह से भारत को हर साल 31 अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है. शाहानी को तुरत फुरत गांवों और छोटे शहरों में स्थिति बदलने की उम्मीद तो नहीं लेकिन बड़े कंपनियों की देखादेखी आने वाले वक्त में वहां भी बदलाव की उम्मीद जरूर है.
मुंबई की गोदरेज, टाटा और ललित हॉस्पिटैलिटी ग्रुप जैसी फर्में लंबे समय से समलैंगिक नीतियां चला रही हैं वो भी तब से जब कि समलैंगिकता पर कानूनी पाबंदी थी. बाकी कंपनियां भी इन नीतियों को धीरे धीरे अपना रही हैं. ललित होटल चेन चलाने वाले परिवार के केशव सूरी कहते हैं, "एक कारोबारी मालिक के तौर पर मुझे लगता है कि इन नीतियों का होना बहुत जरूरी है, जिसके बड़े कारोबारी मायने भी हैं."
ऐसा भी नहीं कि सारे छोटे कारोबारी इसके खिलाफ ही हैं. रॉयटर्स के संवाददाताओं ने कम से कम तीन ऐसे कंपनियों का दौरा किया जो इन नीतियों को लागू करने के पक्ष में हैं लेकिन आर्थिक संसाधनों की कमी और कर्मचारियों की नाराजगी के डर से इसे लागू नहीं कर पा रही हैं. बहुत से लोग इनके खिलाफ झंडा लेकर खड़े हैं और किसी भी कीमत पर इन नीतियों का विरोध करने पर अमादा हैं.
कवि कहते हैं कि समलैंगिक समुदाय के लोगों को अकसर अपने ही परिवार में हिंसा झेलनी पड़ती है. परिवार के लोग उन्हें मार पीट कर अपने जैसा बनाना चहते हैं ताकि सामाजिक संतुलन बना रहे. इनसे बचने के लिए और अपने समाज से जुड़ने के लिए ट्रांसजेंडर और समलैंगिक शहरों का रुख करते हैं. बहुतों ने तो भारत छोड़ने का ही फैसला किया है.
एनआर/ओएसजे (रॉयटर्स)