भारत और चीन की रस्साकशी में फंसा श्रीलंका
२० फ़रवरी २०२१श्रीलंका के बाह्य संसाधन विभाग के अनुसार 2021 से 2025 के बीच श्रीलंका को 2370 करोड़ डॉलर का कर्ज अदा करना है. इस सरदर्दी के बीच रेटिंग एजेंसी मूडी ने देश की अर्थव्यवस्था की रेटिंग बी2 से घटाकर सीएए1 कर दिया है और ऐसा करके विदेशी निवेश की आशाओं को चकनाचूर कर दिया है. रेटिंग घटने का सीधा मतलब होता है बाजार में उगाही के लिए ब्याज दर का बढ़ना यानी श्रीलंका के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में पूंजी जुटाना मुश्किल हो गया है. इस सब के बीच यह भी दिलचस्प है कि श्रीलंका ने भारत और जापान के साथ कोलम्बो पत्तन के इलाके में एक त्रिपक्षीय संयुक्त निवेश को एकतरफा ढंग से लाल झंडी दिखा दी है. श्रीलंकाई कैबिनेट के फरवरी 2021 के निर्णय में यह भी कहा गया है कि श्रीलंका ईस्ट कंटेनर फेसिलिटी (ईसीटी) को साझा उपक्रम के बजाय एक पूर्ण स्वामित्व वाले उपक्रम के तौर पर चलाना पसंद करेगा. भारत और जापान के लिए यह खबर अच्छी न भी हो, दिलचस्प सवाल ये है कि कर्ज में डूबे श्रीलंका को जब ज्यादा से ज्यादा दोस्तों की मदद की जरूरत है तब वह ऐसा क्यों कर रहा है? भारत और जापान के निवेश को परे धकेलने की क्या वजह है? दरअसल, इन दोनों ही खबरों के पीछे है श्रीलंका के चीन के साथ निवेश और व्यापार संबंध.
स्मॉल पॉवर डिप्लोमैसी के पैंतरे
श्रीलंका जैसे देशों की समस्या यह है कि छोटा देश होने के नाते वे अक्सर बड़े देशों की आपसी तनातनी में पिस जाते हैं. स्थिति बद से बदतर तब हो जाती है जब ऐसे देश अपनी कूटनीतिक कला का इस्तेमाल कर, जिसे स्मॉल पॉवर डिप्लोमेसी की संज्ञा भी दी जाती है, एक बड़े देश को दूसरे के सामने खड़ा कर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिश करते हैं. हालांकि स्मॉल पॉवर डिप्लोमेसी की किताब में सिर्फ यही एक पैंतरा नहीं है लेकिन दक्षिण एशिया के कई देशों ने इस पैंतरे को बखूबी सीखा है और भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा को तेज कर यह देश अपने निवेश, रक्षा और व्यापार हितों को साधते रहे हैं. पिछले दो दशकों में इलाके में चीन की बढ़ती पकड़ के पीछे सिर्फ चीन की दक्षिण एशिया में दिलचस्पी, भारत की कमजोर होती पकड़, और भारत-चीन प्रतिस्पर्धा ही कारण नहीं रहा है. श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों की भी इसमें बड़ी और व्यापक भूमिका रही है.
चीन जैसी गैरलोकतांत्रिक महाशक्ति से सिर्फ अपना हित साधने की कोशिश करना शेर की सवारी करने जैसा है. जब तक सवार सवारी कर रहा है सब कुछ बढ़िया है लेकिन जैसे ही सवार-सवारी का संतुलन बिगड़ा, शान और जान दोनों जाने का डर पैदा हो जाता है. श्रीलंका के साथ भी यही कुछ हो रहा है. करोड़ों डॉलर के कर्ज में डूबे श्रीलंका के लिए अब इस कर्ज के जाल से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है. राजपक्षे की सरकार हो या सिरीसेना की – सत्तापक्ष हो विपक्ष में बैठी पार्टी, किसी भी राजनीतिक दल के लिए चीन के शिकंजे से निकल पाना मुश्किल है. वजह यह है कि बेल्ट एंड रोड परियोजना के एक अहम हिस्से – मैरीटाइम सिल्क रोड के तहत चीन और श्रीलंका के बीच किए गए निवेश समझौतों में पारदर्शिता नहीं रही थी. निवेश की कठिन शर्तों, ऋण न वापस करने की स्थिति में दंडकारी प्रावधानों ने इस स्थिति को और खराब कर दिया है.
निवेश और लाभ का गणित
श्रीलंका के सामने सबसे बड़ी समस्या यह आ खड़ी हुई है कि निवेश तो हुए हैं लेकिन उन निवेशों से हासिल कुछ खास नहीं हुआ है. हंबनटोटा जैसी जगहों पर लाखों डॉलर लगा कर एयरपोर्ट तो किसी तरह बन भी गया लेकिन यात्रियों की आमदरफ्त से निवेश के पैसों की वापसी एक दिवास्वप्न सा ही लगता है. रहा सवाल बहुचर्चित हंबनटोटा पोर्ट का, तो श्रीलंका सरकार के धूम धाम से बनाए गए इस पोर्ट पर 2017 में सिर्फ 175 जहाज आकर रुके या उन पर माल ढुलाई हुई. उधार चुकाने की कवायद में श्रीलंका अपने बंदरगाहों की संप्रभुता ही रेहन पर रखने की स्थिति में आ गया और इस ऋण के बदले श्रीलंका को हंबनटोटा में चीन को साझेदार बनाना पड़ा. हाल ही में श्रीलंका ने 110 करोड़ डॉलर के बदले हंबनटोटा का 70 फीसदी हिस्सा चीनी कम्पनी चाइना मर्चेंट होल्डिंग्स लिमिटेड को लीज पर दे दिया.
इस करार के तहत चीनी कंपनी 99 साल तक पोर्ट के उस हिस्से पर अपनी व्यापारिक गतिविधियां निर्बाध रूप से चलाने को स्वतंत्र है. आश्चर्य की बात है कि कर्ज में डूबे और निवेश के सफेद हाथी बन चुके हंबनटोटा में चीन 40 करोड़ डॉलर से ज्यादा का निवेश और करना चाहता है जिससे पोर्ट की सुविधाएं और अच्छी हो सकें और उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाया जा सके. यह निवेश ऑफशोर सप्लाई को बढ़ाने, सुरक्षित ऐंकरेज सुनिश्चित करने, ड्राई डॉकिंग और भारी लिफ्टिंग क्षमता बढ़ाने तथा आयल एवं गैस रिफाइनरियां बनाने के लिए हो रहे हैं. ऐसा नहीं लगता कि ये क्षमताएं श्रीलंका के किसी काम आएंगी. हंबनटोटा पोर्ट पर विदेशी जहाज भी बहुत कम आते हैं. इसलिए लगता है कि यह निवेश चीन की अपनी जरूरतों के लिए है.
श्रीलंका को नहीं हो रहा है फायदा
साफ शब्दों में कहें तो श्रीलंका में निवेश तो जरूर हो रहा है लेकिन यह निवेश उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए है ही नहीं. यह बात और साफ हो जाती है चीन के बंकरिंग सुविधाओं के विकास की योजना से. चीन की कंपनी साइनोपेक हंबनटोटा पोर्ट से गुजरने वाले जहाजों को जरूरत पड़ने पर तेल मुहैया कराने की तैयारी कर रही है. यह सीधे तौर पर चीन की अपनी जरूरतों से जुड़ा है. हिंद महासागर में अपने जहाजों की मदद के लिए चीन यह निवेश कर रहा है, और बिल फाड़े जा रहे हैं श्रीलंका से दोस्ती और श्रीलंका के विकास के नाम पर. चीन के श्रीलंका पर बढ़ते दबदबे से साफ है कि वह श्रीलंका और उसके जरिए हिंद महासागर में अपनी पैठ बढ़ाने को एक सोचे समझे तरीके से अंजाम दे रहा है. श्रीलंका सरकार भारत को गिनाए अपने तमाम कसमों वादों के बावजूद चीन की भारत को घेरने की स्ट्रिंग आफ पर्ल्स रणनीति का हिस्सा बनती जा रही है. यह स्थिति श्रीलंका -भारत संबंधों के लिए अनुकूल तो बिल्कुल नहीं कही जा सकती है.
तो क्या श्रीलंका इस स्थिति से वाकिफ नहीं है? ऐसा नहीं है. श्रीलंका की स्थिति मुंशी प्रेमचंद्र या रेणु की कहानियों के उस पात्र जैसी हो चुकी है जो साहूकार का ऋण चुकाने के लिए उसी के पास फिर से उधार मांगता है और हर बार जमीन का एक टुकड़ा रेहन रख आता है. मिसाल के तौर पर देखें तो 2021 में श्रीलंका पर विदेशी कर्ज के भुगतान और ब्याज का 710 करोड़ डॉलर बकाया है जिसे चुकाने के लिए वह चीन की मदद चाहता है. सूत्रों की मानें तो श्रीलंका की सरकार चीन के साथ एक मुद्रा विनियमन समझौता करने को राजी हो गयी है. साथ में श्रीलंका को उम्मीद है कि एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) से बजट समर्थन की सुविधा के तहत 30 करोड़ डॉलर की मदद और चीन विकास बैंक से 200 करोड़ डॉलर का उधार अलग से मिलेगा. इसके अलावा चीन ने 2019 और 2020 में श्रीलंका को कई सौ करोड़ डॉलर के दो अनुदानों से भी नावाजा है. जाहिर है चीन जानता है कि उसका पैसा डूबेगा नहीं. लेकिन अगर यह सौदे व्यापारिक नजरिए से घाटे का सौदा हैं तो, फायदा किसका हो रहा है?
श्रीलंका कर्ज के चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है. अब वहां के नीतिनिर्धारकों और आम लोगों को इस मुद्दे पर गंभीरता से व्यापक बहस करनी होगी. शायद अंतरराष्ट्रीय समुदाय, और खास तौर पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय संस्थाओं को भी श्रीलंका की बद से बदतर होती निवेश और आर्थिक व्यवस्था पर ध्यान देने की जरूरत है. साथ ही जरूरत है श्रीलंका को चीन पर बढ़ती निर्भरता पर भी अंकुश लगाने के बारे में सचेत करने की. लेकिन जापान और भारत के श्रीलंका में साझा निवेश के मंसूबों को झटका लगने के बाद फिलहाल सवाल यही है कि श्रीलंका को कौन समझाएगा?
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
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