"भारत दौरे में कश्मीर को सुलझाएं ओबामा"
२९ सितम्बर २०१०विदेश नीति से जुड़े एक अहम संस्थान ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट के ब्रूस रीडल एक लेख में कहते हैं कि ओबामा की चुनौती भारत और पाकिस्तान के बीच उस बातचीत के सिलसिले को दोबारा शुरू करवाना होगी जो पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ और भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच चल रही थी. रीडल अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए से भी जुड़े रहे हैं.
वह कहते हैं, "अफगानिस्तान में युद्ध और हिंसक होता जा रहा है, तो पाकिस्तान में बाढ़ की स्थिति गंभीर बनी हुई है. लेकिन इस बीच कश्मीर का मोर्चा भी गर्मा रहा है. अफगानिस्तान और पाकिस्तान से निटपने की राष्ट्रपति बराक ओबामा की रणनीति में कश्मीर पर कामयाबी की अहम भूमिका हो सकती है. ऐसा करना अब अत्यंत जरूरी हो गया है. नवंबर में उनकी भारत यात्रा इस लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है."
ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट की वेबसाइट पर प्रकाशित इस लेख के मुताबिक कश्मीर की आजादी की संभावना नहीं दिखती है क्योंकि यह भारत और पाकिस्तान में से किसी को मंजूर नहीं. रीडल कहते हैं कि अमेरिका के लिए जरूरी है कि क्षेत्र की स्थिरता खतरे में पड़ने से पहले वह भारत और पाकिस्तान के बीच शीत युद्ध और और तनाव को कम करवाए. जिहादी ताकतों को अलग थलग किया जाए और दक्षिण एशिया में युद्ध होने से रोका जाए जो परमाणु युद्ध का रूप भी ले सकता है.
वह कहते हैं कि कश्मीर में हालिया अशांति से साबित होता है कि पर्दे के पीछे की कूटनीति को तेज किया जाए और बातचीत को पटरी पर लाया जाए. रीडल के मुताबिक, "पाकिस्तान ने 1947 में बंटवारे के बाद से कश्मीर को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की है. इसके लिए उसने लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकवादी संगठनों का भरपूर साथ दिया है. यह वही गुट है जिसने 2008 में मुंबई पर आतंकवादी हमले कराए. लेकिन भारत 1947-48 के युद्ध में जीते कश्मीर के अपने हिस्से को हर हाल में बरकरार रखना चाहेगा."
कश्मीर के ताजा हालात की बात करते हुए रीडल कहते हैं कि जून से घाटी में विरोध प्रदर्शनों के दौरान हिंसा हो रही है. ऐसे में चार साल पहले मुशर्रफ और सिंह के बीच कश्मीर के मुद्दे पर जो सहमति हो गई थी, वही सबसे सही रास्ता हो सकता है. इस सहमति के मुताबिक तय हुआ कि नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए और कश्मीरियों को सीमा के आरपार जाने दिया जाए.
हालांकि रीडल के मुताबिक यह अभी साफ नहीं कि पाकिस्तान की मौजूदा सरकार ताकतवर सेना प्रमुख को इस समझौते के लिए राजी कर पाएगी या नहीं, क्योंकि मौजूदा राष्ट्रपति जरदारी इस मामले में अकेले फैसला लेने की स्थिति में नहीं हैं.
रिपोर्टः एजेंसियां/ए कुमार
संपादनः आभा एम