जिनपिंग की रूस यात्रा पर नजर
२१ मार्च २०१३कूटनीति की भाषा में यह बात बहुत साफ है कि किसी देश का नया नेता पहले विदेशी दौरे पर करीबी दोस्त के यहां जाता है. शी जिनपिंग की रूस यात्रा भी इसी का उदाहरण दे रही है. 59 साल के शी इसी महीने चीन के राष्ट्रपति बने हैं. फिलहाल दुनिया को उनके बारे में बहुत कम जानकारी है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक वह सादगी पसंद और आम लोगों की बात दृढ़ता से रखने वाले नेता है. बाढ़ आए तो वे खुद कीचड़ साफ करने से नहीं हिचकते. विकास कार्य के दौरान श्रमदान करने के लिए भी शी जाने जाते हैं.
जब हू जिंताओ 2003 में चीन के राष्ट्रपति बने तो वह भी सबसे पहले मॉस्को गए. हू जिंताओ के 10 साल के शासन में बीजिंग और मॉस्को काफी करीब आए. इस दौरान चीन और रूस ने मिलकर ईरान के तेल निर्यात के खिलाफ लगाए जाने वाले अमेरिका और यूरोपीय संघ के प्रतिबंधों का विरोध किया. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में दोनों ने सीरिया के खिलाफ लगाए जाने वाले प्रतिबंधों के खिलाफ भी वीटो इस्तेमाल किया. लीबिया और इराक पर भी उनके स्वर एक थे.
लेकिन अब चीन की कमान शी के हाथ में है. उनके सत्ता में आने से पहले इसी साल रूस और चीन ने उत्तर कोरिया के तीसरे परमाणु परीक्षण पर नाराजगी जताई. उत्तर कोरिया पर ज्यादा प्रतिबंध लगाए जाने के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का दोनों ने समर्थन किया. जाहिर है इन परिस्थितियों में शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मुलाकात पर अमेरिका और भारत समेत उत्तर कोरिया व सीरिया का भी खास ध्यान होगा.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की रूसी और मध्य एशिया विभाग की प्रोफेसर अनुराधा मित्र चिनॉय कहती हैं, "पहले दौरे पर रूस जाने के फैसले से साफ है कि आने वाले दिनों में रूस और चीन कई अंतरराष्ट्रीय मसलों पर साथ होंगे. बीते सालों को देखें तो यह साफ हो चुका है कि मतभेदों के बावजूद कई अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर उनका दृष्टिकोण समान है. अमेरिका के बारे में उनकी समझ एक जैसी है. अफगानिस्तान के बारे में वे दोनों काफी चिंतित है. उन्हें लगता है कि अमेरिका तालिबान के साथ कुछ ऐसा समझौता कर लेगा जिससे रूस और चीन बाहर होंगे. वो चाहते हैं कि वे भी इस समझौते में शामिल हों क्योंकि वो ही आस पास के देश हैं."
विकास के वामपंथी जेनरेटर
कहा यह भी जा रहा है कि पुतिन और शी के बीच ज्यादातर बात करोबार की होगी. दिमित्री कहते हैं, "चीनी व्यावहारिक हैं. उनके लिए अर्थव्यवस्था सबसे ऊपर है." चीन के वाणिज्य मंत्रालय के प्रवक्ता शेन डानयांग भी कह चुके हैं कि दौरे का मकसद "सहयोग और निवेश की गति को असरदार जोर देना" है. 2012 में चीन और रूस का आपसी व्यापार 88.2 अरब डॉलर की रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचा. 2011 की तुलना में यह 11.2 फीसदी ज्यादा रहा.
अनुराधा मित्र चिनॉय भी इसे दोनों देशों के लिए फायदेमंद मानती हैं, "पश्चिम वित्तीय संकट में फंसा है. यूरोप का संकट हल ही नहीं हो रहा है. रूस और चीन की विकास दर बहुत स्थिर है. चीन की तो शानदार है, रूस ने भी खुद को संभाला है. रूस के बैंकों पर कोई संकट नहीं आया. सोवियत संघ के विघटन के वक्त रूस की हालत खराब हुई लेकिन अब वे उससे उबर चुके हैं और अच्छी रफ्तार से विकास कर रहे हैं. चीन की बात करें तो उनका ढेर सारा पैसा अमेरिकी खजाने में सरकारी बॉन्ड्स के रूप में जमा है. चीन उसे निकालकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को हिला नहीं रहा है. कूटनीति बदल चुकी है. अर्थव्यवस्था को अब प्राथमिकता दी जा रही है."
रूसी सरकार के मुताबिक दोनों नेताओं के बीच कई करार होंगे. हालांकि दोनों पक्षों ने करारों की जानकारी विस्तार से नहीं दी है. चीन ऊर्जा का भूखा है और रूस के पास अथाह गैस है. मॉस्को चाहता है कि वह चीन को हर साल 70 अरब घनमीटर गैस बेचे, वह भी अगले 30 साल के लिए. बात कीमत पर भी अटकी है. चीन के विदेश उप मंत्री चेंग के मुताबिक बहुत जबरदस्त ढंग से इस पर बातचीत हो रही है.
दोनों देश शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य है. संगठन में कजाखस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान भी हैं. ये देश स्थानीय और आतंकवाद संबंधी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं. चीन और रूस का सहयोग इन समस्याओं को हल करने में मददगार होगा. मॉस्को में पुतिन से मुलाकात के बाद शी सीधे अफ्रीका जाएंगे. वहां वे तंजानिया, कांगो गणतंत्र और दक्षिण अफ्रीका का दौरा करेंगे.
दोस्ती और प्रतिस्पर्धा
रूस और चीन ब्रिक्स के सदस्य भी हैं. ब्रिक्स तेजी से आर्थिक विकास करते देशों का संगठन है, जिसमें ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हैं. पुतिन और शी की मुलाकात के बाद अगले हफ्ते दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स नेताओं की भी मुलाकात हो रही है. ब्रिक्स के दौरान ही भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुतिन और शी से अलग से मुलाकातें होंगी.
रूस, चीन और भारत जानते हैं कि उनकी गाढ़ी दोस्ती अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बड़ा बदलाव ला सकती है. लेकिन इन संभावनाओं से पहले कई विवाद और मतभेद सुलझाने बाकी है. कुछ मुद्दों पर रूस को चीन से खतरा महसूस होता है. दोनों देशों ने काफी हद तक सीमा विवाद सुलझा लिया है, लेकिन दक्षिणी रूस में तेजी से बसते चीनी नागरिक मॉस्को को चिंता में डाल रहे हैं. खुद राष्ट्रपति पुतिन को लग रहा है कि चीनियों की बढ़ती आबादी सुरक्षा को खतरे में डाल रही है. रूस का बाजार चीनी कंपनियों के सामान से अटा पड़ा है. इसकी वजह से रूसी उद्योगों की हालत बुरी है और वहां राष्ट्रवाद पनप रहा है. पुतिन कहते हैं कि रूस अपने उद्योगों को फिर से खड़ा कर स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा कर सकता है.
लेकिन तीसरी और बड़ी आशंका की तरफ इशारा करते हुए प्रोफेसर चिनॉय कहती हैं, "रूस को यह भी डर है कि बहुत ताकतवर चीन उसके लिए खतरा न बन जाए. रूस को यह भी लगता है कि अगर चीन ने अमेरिका के साथ मिलकर जी-2 बना दिया तो रूस अंतरराष्ट्रीय मंच में प्रभावहीन हो जाएगा. इस खतरे को टालने के लिए भी चीन और रूस साझा सहमति के मुद्दों के जरिए करीब आने की कोशिश कर रहे हैं."
राष्ट्रवाद से जूझते भारत-चीन
चीन और भारत के संबंध काफी बिगड़े हुए हैं. दोनों देशों के बीच दशकों पुराना सीमा विवाद है, जो अब तक हल नहीं हो पा रहा है. हालांकि चिनॉय मानती है कि शी जिनपिंग के सत्ता में आने के बाद हो सकता है कि भारत और चीन विवाद सुलझाने की तरफ सकारात्मक ढंग से प्रगति करें, "भारत और चीन ने विवादों को पीछे डालकर व्यापार बढ़ाने की कोशिश की है. दोनों के बीच अच्छा व्यापार है लेकिन उसके बावजूद दोनों देशों का राष्ट्रवाद सीमा विवाद पर कभी भी भड़क सकता है. वैसे शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री ली 1962 के बाद वाली पीढ़ी के नेता है. वे सोचते हैं कि वह पुराना झगड़ा है. वे इसे सुलझा भी सकते हैं. ये काफी दूरदृष्टि वाला नेतृत्व है. वे चाहते हैं कि चीन में गरीबी पूरी तरह से दूर हो, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास पर उनका बहुत जोर है. वे किसी तरह का युद्ध नहीं चाहते. लेकिन तिब्बत के मानवाधिकार का मुद्दा भारत के साथ रिश्तों को गर्मा सकता है. भारत अगर तिब्बत में मानवाधिकार का मुद्दा उठाएगा तो चीन इससे चिढ़ेगा. चीन में राष्ट्रवाद मानवाधिकार से बड़ा मुद्दा है."
नई दिल्ली और बीजिंग के मतभेदों से वाकिफ रूस भारत और चीन के बीच में मध्यस्थता की कोशिश भी कर रहा है. वह भारत को समझा भी रहा है, लेकिन चीन के साथ सीमा विवाद ऐसा मुद्दा है जिसकी वजह से भारत अमेरिका कार्ड खेल रहा है.
भारत की दुविधा
वैसे अनुराधा मित्र चिनॉय मानती है कि चीन और रूस की गहराती दोस्ती भारत के लिए भी एक संदेश है. बीते एक दशक में भारत की विदेश नीति तेजी से अमेरिका की तरफ झुकी. इस दौरान रूस के साथ उसके संबंधों में ज्यादा गर्मजोशी नहीं दिखाई पड़ी. चिनॉय के मुताबिक विदेश नीति के मामले में अब नई दिल्ली को अपनी चूक का अंदाजा हो रहा है, "भारत को समझ आ रहा है कि वह अपनी स्वतंत्र विदेश नीति पूरी तरह न खोये. अमेरिका एक देश है जो स्वतंत्र विदेश नीति को नहीं समझ सकता. वो चाहते हैं कि जैसा वो सोचते हैं, सब उसके साथ ही चलें. भारत को हर एक मुद्दे पर अपना रुख तय करना होगा, कभी उनके साथ, कभी उनके खिलाफ. इराक, सीरिया या ईरान जैसे मुद्दों पर भारत को अमेरिका के खिलाफ खड़ा होना होगा तो श्रीलंका या मानवाधिकारों के मुद्दे पर अमेरिका के साथ." और यहीं से भारत की दुविधा शुरू होती है.
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी
संपादन: महेश झा