68,000 रेप दर्ज, सजा सिर्फ 16,000
३ फ़रवरी २०१३ये आंकड़े दिखाते हैं कि बलात्कार के मामले में सजा और न्याय की स्थिति क्या है. राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2011 के दौरान भारत में कुल 24,206 बलात्कार के मामले दर्ज हुए लेकिन सजा मिली सिर्फ 5,724 को मिलि. इसके पहले के दो सालों के आंकड़े भी ऐसे ही हैं. पहले तो उस लड़की का आत्मसम्मान उधेड़ा जाता है, उससे वह जान बचा भी ले तो बार बार पुलिस थाने और फिर अदालत में उससे घटना के बारे में बार बार सवाल पूछे जाते हैं. इतना ही नहीं, क्योंकि उसके साथ यौन दुष्कर्म हुआ इसलिए पीड़िता को ही दुष्चरित्र, कलंकिनी, फूहड़, बदचलन घोषित किया जाता है.
बलात्कार जैसे घिनौने अपराध का छुरा सबसे ज्यादा अगर कहीं चला तो वह था भारत के दिल कहे जाने वाले राज्य मध्यप्रदेश में. यहां इन तीन साल में सबसे ज्यादा 9,539 मामले बलात्कार के दर्ज किए गए लेकिन इस अवधि में सलाखों के पीछे पहुंचे केवल 2,986 अपराधी.
कैसा न्याय?
वकील रुजुता मेहंदले कहती हैं, ”बलात्कार और हमलों के मामले सबसे ज्यादा मध्य और निम्न मध्यम वर्ग में होते हैं. अक्सर देखा गया है कि इस तरह के मामलों में परिवार को दिल्ली सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचना ही मुश्किल हो जाता है. कारण है एक तो दूरियां और आर्थिक मजबूरी. इसलिए हम चाहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच हर राज्य में हो ताकि मामलों में तेजी से और प्रभावी ढंग से न्याय हो सके. सरकार में 802 सांसद होते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जजों की संख्या सिर्फ 32 है. इसलिए न्याय या तो देरी से मिलता है या फिर मिलता ही नहीं. हमें ज्यादा जजों की जरूरत है ताकि न्याय तेजी से हो सके. कई मामलों में पीड़िता के परिजनों को बुरा भला कहा जाता है. इस मामले में लोगों को भी सक्रिय होने की जरूरत है और इस जुर्म के खिलाफ आवाज उठाने की भी. जबकि पुलिस और सरकार इस बात की गारंटी दे कि वह लड़की के सम्मान और आदर का ध्यान रखेंगे.”
पश्चिम बंगाल में हालात और बुरे हैं. यहां 2009 से 11 के बीच बलात्कार के 7,010 मामले दर्ज हुए लेकिन जिन्हें दोषी करार दे कर सजा दी गई उनकी संख्या सिर्फ 381 थी. ऐसे ही आसाम में 5,052 मामले बलात्कार के इस दौरान दर्ज किए गए लेकिन सजा सिर्फ 517 लोगों को मिली. उत्तर प्रदेश में दर्ज होने वाले मामलों की संख्या 5,364 थी और सजा पाने वालों की 3,816.
सबूत की कमी
मशहूर वकील कामिनी जायसवाल कहती हैं कि उन्हें संसद से कोई उम्मीद नहीं है. "अगर कोई बदलाव आएगा तो वह लोग लाएंगे, संसद नहीं. 2005 से पुलिस रिफॉर्म्स की बात चल रही है, इलेक्टोरल रिफॉर्म की बात चल रही है. वो करना ही नहीं चाहते. तीस फीसदी सांसदों का तो आपराधिक रिकॉर्ड है, वो क्या करेंगे इस मामले में. स्वतंत्र जांच की कोई प्रणाली ही नहीं है. सुप्रीम कोर्ट का सात साल पहले ही ऑर्डर आया था कि पुलिस फोर्स राजनीति से स्वतंत्र होनी चाहिए और राजनीति का उस पर कोई दबाव नहीं होना चाहिए. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया है. नेता चाहते नहीं है कि पुलिस स्वतंत्र हो जाए."
उधर गृहमंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा, "इतने कम फैसले होने का पहला कारण यह है कि आरोपियों के खिलाफ वकीलों के पास जरूरी सबूत नहीं होता और पुलिस जांच भी अपर्याप्त होती है." आपराधिक ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि देश भर में 2009 से 11 के बीच यौन शोषण के 1,22,292 मामले हुए लेकिन इस दौरान सजा सिर्फ 27,408 लोगों को मिल पाई. देश की आपराधिक राजधानी बन चुके मध्यप्रदेश में इस दौरान 19,618 मामले उत्पीड़न के हुए लेकिन सजा सिर्फ 6,091 लोगों को मिल पाई.
रिपोर्टः आभा मोंढे (पीटीआई)
संपादनः ईशा भाटिया