बलात्कार की परिभाषा बदलेगा डेनमार्क
२४ नवम्बर २०२०2018 के आंकड़े दिखाते हैं कि यौन हिंसा के रिपोर्ट किए गए मामलों की संख्या स्वीडन में कितनी कम है. देश की क्राइम प्रिवेंशन काउंसिल के अनुसार 2018 में 6,700 से अधिक महिलाएं यौन हिंसा का शिकार हुईं लेकिन पुलिस के पास केवल 1,300 मामले ही दर्ज किए गए और इनमें से सिर्फ 69 मामलों में दोषी को सजा हो सकी.
एमनेस्टी इंटरनेशनल की हेले जैकबसन का इस बारे में कहना है, "हमने जब पीड़ितों से बात की, तो उन्होंने हमें बताया कि रिपोर्ट नहीं करने का मुख्य कारण कानून में बलात्कार की परिभाषा था." जैकबसन एमनेस्टी इंटरनेशनल का वह कार्यक्रम संभाल रही हैं जो 2017 से लैंगिक समानता पर जागरूकता अभियान चलाता है और यौन हिंसा की पीड़ितों की भी मदद करता है.
डेनमार्क में बलात्कार कानून में अब तक यौन हिंसा पर ही ध्यान दिया जाता रहा है, जबकि नए कानून के तहत सहमति पर जोर दिया जाएगा. यानी अगर कोई अपने पार्टनर के साथ बिना सहमति जाने संभोग करता है, तो उसे बलात्कार माना जाएगा. कानून में होने वाले इस बदलाव को लेकर जैकबसन ने कहा, "यह डेनमार्क के लिए एक ऐतिहासिक पल है, क्योंकि सहमति कानून समानता के लिए एक बड़ी जीत है." डेनमार्क के न्याय मंत्री निक हेकेरुप ने संसद को भेजे अपने संदेश में लिखा है, "बतौर समाज हमें बलात्कार पीड़ितों को कानूनी सुरक्षा मुहैया करानी चाहिए जिसकी वे हकदार हैं."
सेक्स वर्करों के अधिकार का क्या?
कानून के बदल जाने से भी सभी महिलाओं को फायदा नहीं मिलेगा. 1999 से डेनमार्क में देह व्यापार को कानूनी अनुमति है, लेकिन इसे किसी पेशे के रूप में नहीं देखा जाता. ऐसे में इन्श्योरेंस कंपनियां भी इनकी मदद नहीं करती और यौन हिंसा होने पर ये अपने साथ हुई ज्यादती को रिपोर्ट भी नहीं करती. कोरोना महामारी के दौरान इन लोगों के हालात और खराब हुए हैं. सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों के चलते देह व्यापार पर रोक है. सरकार ने इनके लिए एक हेल्थ पैकेज जारी किया ताकि इन्हें हो रहे आर्थिक नुकसान की भरपाई हो सके लेकिन सभी सेक्स वर्करों को इसका फायदा नहीं मिल पाया. वजह यह रही कि ज्यादातर सेक्स वर्कर नाइजीरिया, थाईलैंड और पूर्वी यूरोप के देशों से आई महिलाएं हैं जिनके पास वैध कागज भी नहीं हैं. ऐसे में इन्हें डर रहता है कि अगर ये पुलिस के पास बलात्कार की रिपोर्ट करने जाएंगी तो कहीं पुलिस इन्हें डिपोर्ट ही ना कर दे.
रेडन इंटरनेशनल नाम की एनजीओ के साथ काम करने वाली मालेने मुशोल्म का कहना है कि ऐसी ज्यादातर लड़कियां तस्करी के कारण यहां पहुंचती हैं. ऐसे में कानूनी रूप से उन्हें यहां रहने का हक है, "बहुत सी लड़कियां हमें बताती हैं कि दलालों ने या उनके पार्टनर ने या फिर ग्राहक ने उनकी पिटाई की. लेकिन यह बात भी वो हमें साल या छह महीने बाद बताती हैं." एक अन्य एनजीओ के साथ काम कर रही पोलिना बाखलाकोवा बताती हैं कि लॉकडाउन के दौरान हिंसा के मामले काफी बढ़े हैं.
कलंक कहलाने का डर
एमनेस्टी इंटरनेशनल की जैकबसन बताती हैं कि ज्यादातर मामलों में बलात्कार इसलिए रिपोर्ट नहीं किया जाता क्योंकि महिलाओं को डर होता है कि इसे उन पर "कलंक" माना जाएगा, "पीड़ितों ने हमें बताया है कि उन्हें इस बात का डर था कि उनके जान पहचान वाले और अधिकारी ही उन्हें बुरी नजर से देखेंगे." एमनेस्टी की रिपोर्ट के अनुसार 50 फीसदी पीड़ितों ने कहा कि वे पुलिस के रवैये से खुश नहीं थीं.
इसके अलावा डेनमार्क की महिलाओं का यह भी कहना है कि उन्हें कानून पर भरोसा ही नहीं है. जैकबसन बताती हैं, "2019 में सिर्फ 79 लोग दोषी करार दिए गए. ऐसे में कानून व्यवस्था में विश्वास खत्म हो जाता है क्योंकि महिलाओं को लगता है कि उनकी शिकायत के आगे जाने की संभावना ना के बराबर है." ऐसे में डेनमार्क के नए कानून का जहां स्वागत किया जा रहा है, वहीं यह मांग भी की जा रही है कि कानून सबके लिए बने, फिर चाहे उस महिला के पास दिखाने के लिए कागज हों या नहीं.
रिपोर्ट: डानिएला डे लोरेंजो/आईबी
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