क्या पलायन अब भी कोई मुद्दा है कैराना में?
१२ अप्रैल २०२४हरियाणा के पानीपत से लगे पश्चिमी यूपी के जिले शामली का एक कस्बा है कैराना. इसी नाम से लोकसभा सीट भी है और विधानसभा सीट भी.
2016 में पड़ोसी जिले मुजफ्फरनगर में साल 2013 में हुए सांप्रदायिक दंगों के जख्म अभी भरे भी नहीं थे कि महज तीन साल के भीतर कैराना के सांसद हुकुम सिंह ने यहां से बड़ी संख्या में हिन्दुओं के पलायन का मुद्दा उठाया तो राजनीतिक हलकों में भूचाल सा आ गया.
कुछ रिपोर्टें आईं कि लोग अपराधियों और बढ़ते अपराध की वजह से यहां से पलायन कर रहे हैं और अपने घरों पर ‘मकान बिकाऊ है' के बोर्ड चस्पा किए हुए हैं.
कैसे उठा पलायन का मुद्दा
कैराना मुस्लिम बहुल इलाका है और रिपोर्टों में इशारा यह था कि ये अपराधी और अपराध मुस्लिम समुदाय के हैं और पलायन करने वाले हिंदू.
पलायन के इस मुद्दे ने राजनीति में कुछ उसी तरह ‘आग में घी' का काम किया जैसे साल 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों ने किया था. इस मुद्दे ने भारतीय जनता पार्टी को 2017 के विधानसभा चुनाव में न सिर्फ पश्चिमी यूपी बल्कि पूरे प्रदेश में जबर्दस्त फायदा दिलाया और पार्टी ने ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया.
लेकिन जब मुद्दे की जमीनी स्तर पर पड़ताल हुई, पलायन वाली सूची की खोजबीन शुरू हुई तो यह दावा पूरी तरस से संदिग्ध मिला. कई मामले गलत पाए गए और यहां तक कि इस मुद्दे को उठाने वाले बीजेपी सांसद हुकुम सिंह खुद बाद में इस पर सफाई देने लगे कि पलायन का मुद्दा कानून-व्यवस्था से जुड़ा था न कि किसी संप्रदाय से.
हुकुम सिंह की साल 2018 में मृत्यु हो गई और उसके बाद कैराना में हुए उपचुनाव में बीजेपी ने उनकी बेटी मृगांका सिंह को उम्मीदवार बनाया. लेकिन मृगांका सिंह यह उपचुनाव समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल की संयुक्त उम्मीदवार तबस्सुम हसन से हार गईं.
क्या फिर जीत पाएगी बीजेपी?
साल 2019 के आम चुनाव में बीजेपी ने मृगांका सिंह की बजाय प्रदीप कुमार को उम्मीदवार बनाया और प्रदीप कुमार ने तबस्सुम हसन को हरा दिया. मृगांका सिंह को बीजेपी ने 2022 में विधानसभा का टिकट दिया लेकिन मृगांका सिंह विधानसभा चुनाव भी समाजवादी पार्टी के नाहिद हसन से हार गईं.
कैराना में पहले चरण में ही 19 अप्रैल को मतदान होने हैं. बीजेपी ने एक बार फिर प्रदीप कुमार को टिकट दिया है जबकि इंडिया गठबंधन से समाजवादी पार्टी की उम्मीदवार इकरा हसन उनका मुकाबला कर रही हैं. राष्ट्रीय लोकदल इस बार बीजेपी के साथ इंडिया गठबंधन में है और बीएसपी ने श्रीपाल राणा को मैदान में उतारकर चुनाव को और दिलचस्प बना दिया है.
करीब आठ साल और कई चुनाव बीतने के बाद भी पलायन जैसा मुद्दा वहां कितना महत्व रखता है? वहां के लोगों से बात करने पर पता चलता है कि यह मुद्दा न तो तब था और न ही अब है. हां, कुछ लोगों ने इस मुद्दे को उठाकर, उसे सांप्रदायिक रंग देकर राजनीतिक लाभ जरूर ले लिया लेकिन अब यह राजनीतिक लाभ देने लायक भी नहीं बचा है.
डीडब्ल्यू से बातचीत में कैराना कस्बे के व्यवसायी और व्यापार मंडल के अध्यक्ष अनिल गुप्ता कहते हैं, "कैराना का इतिहास यह है कि यह बहुत शांत इलाका है. यहां कभी सांप्रदायिक झगड़ा नहीं हुआ. गंगा-जमुनी तहजीब है यहां की. हिंदू-मुस्लिम साथ रहते हैं, उठते-बैठते हैं. लेकिन यह भी सही है कि पिछली सरकारों में यहां गुंडई-बदमाशी चरम पर थी. रंगदारी भी मांगी जाती थी. कुछ मर्डर भी हुए थे. लेकिन योगी सरकार में सभी को सुरक्षा है कोई डर नहीं है.”
पिछड़ापन है असली समस्या
हालांकि अनिल गुप्ता ये भी कहते हैं, "बदमाश की कोई जाति या धर्म नहीं होता है. बदमाश लोग जब थे तो वो सभी के लिए खतरा थे. हिन्दुओं और मुसलमान दोनों के लिए. कई लोग डर के मारे दूसरी जगहों पर चले गए लेकिन ऐसा नहीं है कि मुसलमानों के डर से हिंदू चले गए या हिंदू के डर से मुसलमान चले गए.”
वहीं कैराना कस्बे के पास के एक गांव जहानपुर के प्रधान रह चुके रईस अहमद कहते हैं, "कुछ लोगों ने राजनीतिक फायदे के लिए ये सब किया. यहां तो गूजर लोग हैं और मजे की बात है कि एक ही परिवार के कुछ गूजर हिंदू हैं और कुछ मुसलमान. कभी सांप्रदायिक दंगे, लड़ाई-झगड़े नहीं हुए. सब राजनीति की बातें हैं और यहां इन सब मुद्दों पर कोई वोट भी नहीं करता.”
पलायन जैसे मुद्दे के लिए एक समय भले ही कैराना चर्चा में रहा हो लेकिन फिलहाल यहां पर यह मुद्दा प्रभावहीन और अप्रासंगिक हो गया है. कैराना कस्बे के ही रहने वाले राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अब तो चुनावों में भी इस मुद्दे की चर्चा नहीं होती.
डीडब्ल्यू से बातचीत में इंडिया गठबंधन की उम्मीदवार इकरा हसन बताती हैं कि यहां सबसे बड़ा मुद्दा विकास का है जिसमें यह इलाका बहुत पीछे है. वो कहती हैं, "डबल इंजन की सरकार रहते हुए भी कैराना में कोई काम नहीं हुआ है. हमारे यहां मेडिकल कॉलेज नहीं है, कॉलेज की कमी है. सड़कें खराब हैं. रोजगार और महंगाई का हाल तो जो पूरे प्रदेश और देश में है, वही यहां भी है.”
कैराना के ही रहने वाले पत्रकार रवि सिंह कहते हैं कि बीजेपी और आरएलडी के साथ आने से एनडीए को फायदा होता लेकिन राजपूतों की नाराजगी और किसान आंदोलन का नुकसान भी होगा. इसलिए लड़ाई आसान नहीं है.
रवि आगे कहते हैं, "यह गन्ना का इलाका है. किसान आंदोलन का यहां जबर्दस्त प्रभाव है और बीजेपी ने जिस तरह से आंदोलन को दबाने का काम किया था उसे लोग यहां भूले नहीं हैं. आरएलडी के बीजेपी के साथ आने से ऐसा नहीं है कि वो किसान भी बीजेपी उम्मीदवार को वोट दे देंगे जिन्होंने किसान आंदोलन के दौरान उत्पीड़न झेला है."
दूसरे, अभी राजपूत महासभा की पंचायत में राजपूतों की नाराजगी जिस तरह से दिख रही है, वो बीजेपी के लिए शुभ संकेत नहीं है. बीएसपी ने तो राजपूत उम्मीदवार भी उतारा है जो सीधे तौर पर बीजेपी को नुकसान पहुंचाने वाला है.”
कैराना के राजनीतिक समीकरणों की बात करें तो यहां करीब 18 लाख मतदाता हैं जिनमें छह लाख मुस्लिम, दो लाख जाट, ढाई लाख दलित, डेढ़ लाख गुर्जर के अलावा करीब तीन लाख अन्य पिछड़ी जातियां भी हैं. करीब पचास हजार ठाकुर और 40 हजार ब्राह्मण भी हैं.
कैराना सीट पर बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत पिछड़े और सामान्य वर्ग के मतदाताओं का साथ आना है और इसी वजह से वो अब तक दो चुनावों में जीत भी हासिल कर चुकी है.
वहीं समाजवादी पार्टी अल्पसंख्यक वर्ग के मतदाताओं और कुछ पिछड़ी जातियों पर निर्भर है जो उसे मजबूती देते हैं. आरएलडी का साथ होने से बीजेपी को यदि फायदा होने की उम्मीद है तो वहीं ठाकुर समुदाय की नाराजगी का उसे नुकसान भी उठाना पड़ सकता है. उसकी वजह यह है कि बीएसपी ने ठाकुर उम्मीदवार को उतारा है.