अफस्पा का दायरा घटाना पूर्वोत्तर में हालात सुधरने के संकेत!
१ अप्रैल २०२२वैसे, हाल के वर्षों में इलाके में इस कानून को खत्म करने की मांग लगातार जोर पकड़ रही थी. लेकिन बीते साल दिसंबर में नागालैंड में सुरक्षाबलों के हाथों 14 बेकसूर ग्रामीणों की हत्या के बाद यह मांग काफी तेज हो गई थी. उसके बाद ही केंद्र ने इस मुद्दे पर फैसले के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति का गठन किया गया था. उसकी सिफारिशों के आधार पर इसका दायरा सीमित करने का फैसला किया गया है.
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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस फैसले की जानकारी देते हुए दावा किया है कि यह कदम पूर्वोत्तर में सुरक्षा की दृष्टि से बेहतर होती स्थिति और तेजी से विकास का नतीजा है. सितंबर, 2017 तक मेघालय के करीब 40 फीसदी हिस्से में अफस्पा लागू था. बाद में गृह मंत्रालय की समीक्षा के बाद राज्य सरकार ने मेघालय से अफस्पा को पूरी तरह वापस लेने का फैसला किया.
एक अप्रैल से ही लागू
केंद्र सरकार के इस फैसले को आज यानी पहली अप्रैल से ही लागू कर दिया है. इसके मुताबिक, असम के 33 जिलों में से 23 से यह कानून खत्म हो गया है जबकि एक जिले में इसे आंशिक रूप से हटाया गया है, इंफाल नगर पालिका क्षेत्र को छोड़कर पूरा मणिपुर वर्ष 2004 से ही अशांत क्षेत्र घोषित था. अब छह जिलों के 15 पुलिस स्टेशन इलाकों को अशांत क्षेत्रों की सूची से बाहर कर दिया गया है. अरुणाचल प्रदेश में 2015 से तीन जिलों, असम सीमा से लगे 20 किलोमीटर लंबे इलाके और नौ अन्य जिलों के 16 पुलिस स्टेशन इलाकों में अफस्पा लागू था. अब सिर्फ तीन जिलों और 1 अन्य जिले के 2 पुलिस स्टेशन इलाके में ही यह लागू रहेगा. राज्य के इन तीन जिलों में इस कानून की मियाद अगले छह महीने तक के लिए बढ़ा दी गई है. वर्ष 1995 से पूरे नागालैंड में यह कानून लागू था. केंद्र सरकार ने इस मामले में गठित कमिटी की चरणबद्ध तरीके से अफस्पा हटाने की सिफारिश को मान लिया है. इसके मुताबिक, राज्य के सात जिलों के 15 पुलिस स्टेशन इलाकों को अशांत क्षेत्र की सूची से बाहर कर दिया गया है.
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क्या है यह कानून
दरअसल, अफस्पा को वर्ष 1942 में तत्कालीन ब्रिटिश शासकों ने भारत छोड़ो आंदोलन पर अंकुश लगाने के लिए बनाया था. लेकिन देश की आजादी के बाद भी सरकार ने इसे बनाए रखा और वर्ष 1958 में इसे एक अधिनियम के तौर पर अधिसूचित कर दिया गया. 11 सितंबर, 1958 को बने इस कानून को पहली बार नागा पहाड़ियों में लागू किया गया था जो तब असम का ही हिस्सा थीं. उग्रवाद के पांव पसारने के साथ इसे धीरे-धीरे पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों में लागू कर दिया गया.
इस विवादास्पद कानून के तहत सुरक्षा बल के जवानों को किसी को गोली मार देने का अधिकार है और इसके लिए उन पर कोई मुकदमा भी नहीं चलाया जा सकता. इस कानून के तहत सेना किसी भी व्यक्ति को बिना वारंट को हिरासत में लेकर उसे अनिश्चित काल तक कैद में रख सकती है.
कानून का दुरुपयोग
इस कानून के दुरुपयोग के खिलाफ बीते खासकर दो दशकों के दौरान तमाम राज्यों में विरोध की आवाजें उठती रहीं हैं. लेकिन केंद्र व राज्य की सत्ता में आने वाले सरकारें इसे खत्म करने के वादे के बावजूद इसकी मियाद बढ़ाती रही हैं. वर्ष 2004 में मणिपुर की महिलाओं ने इसी कानून के आड़ में मनोरमा नामक एक युवती की सामूहिक बलात्कार व हत्या के विरोध में असम राइफल्स के मुख्यालय कांगला फोर्ट के सामने बिना कपड़ों के सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया था. उस तस्वीर ने तब पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थीं.
लौह महिला के नाम से मशहूर इरोम शर्मिला इसी कानून के खिलाफ लंबे अरसे तक भूख हड़ताल कर चुकी हैं. लेकिन मणिपुर में इसकी मियाद लगातार बढ़ती रही. अब हाल में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी के अलावा तमाम राजनीतिक दलों ने इसे प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया था जबकि मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह ने कहा था कि राज्य सरकार ने पांच साल में जमीनी हालत को बेहतर बना दिया है. अब ताजा परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार इसे वापस लेने का फैसला कर सकती है.
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नागालैंड में बीते दिसंबर में सुरक्षा बल के जवानों की फायरिंग में 14 बेकसूर ग्रामीणों की हत्या ने इस कानून के विरोध की आग में घी डालने का काम किया. उसके बाद ही केंद्र ने इसे खत्म करने पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया था. उसकी सिफारिशों के आधार पर ही यह फैसला किया गया है.
दायरा घटाने के बाद प्रतिक्रिया
अब इलाके के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विभिन्न संगठनों ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि इसे पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए. उनका कहना है कि इस कानून के नहीं होने से पूर्वोत्तर के लोग निडर होकर सामान्य तरीके से जीवन-यापन कर सकेंगे. अफस्पा के खिलाफ 16 साल लंबी भूख हड़ताल करने वाली इरोम शर्मिला ने इसका स्वागत किया है. वह कहती हैं, "हमारे लिए यह एक बेहतर पल है. पहली बार मुख्यधारा के राजनेताओं ने पूर्वोत्तर पर ध्यान दिया है. केंद्र का यह फैसला लोकतंत्र की असली निशानी है. यह एक नई शुरुआत और दशकों लंबी लड़ाई का नतीजा है.” उनका कहना है कि पूर्वोत्तर में अफस्पा को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए और साथ ही इस कानून की वजह से पीड़ित लोगों और उनके परिजनों को समुचित मुआवजा दिया जाना चाहिए.
असम के मानवाधिकार कार्यकर्ता दिनेश कुमार भुइयां कहते हैं, "हम इस फैसले का स्वागत करते हैं. लेकिन इसे पूरी तरह खत्म किया जाना चाहिए.” मणिपुर वीमेन गन सर्वाइवर्स नेटवर्क और ग्लोबल एलायंस ऑफ इंडिजीनस पीपल्स की संस्थापक बिनालक्ष्मी नेप्राम कहती हैं, "अब राज्य की महिलाएं निडर होकर जी सकती हैं. लेकिन इस कानून के कारण जिन लोगों को बेवजह अपनी जान से हाथ धोना पड़ा या सुरक्षाबलों के अत्याचार का शिकार होना पड़ा, उनको न्याय कैसे मिलेगा?”