क्या आ गया है पेंक्रियाटिक कैंसर से बचाव का टीका?
२६ मई २०२३पेंक्रियाटिक कैंसर से पीड़ित 10 में से 9 लोग दम तोड़ देते हैं. पिछले करीब 60 साल से सरवाइवल दर में कोई सुधार नहीं आया है. कोई असरदार उपचार भी बामुश्किल ही उपलब्ध है. इसीलिए थेरेपी में हर किस्म की प्रगति किसी क्रांति से कम नहीं. अभी ठीक यही हो रहा है.
अमेरिका में शोधकर्ताओं ने अग्न्याशयी कैंसर के 16 मरीजों को एमआरएनए वैक्सीन लगाई. उससे पहले उनके ट्यूमर निकाल लिए गये थे. 18 महीने की ट्रायल अवधि के अंत में, आधे मरीजों में बीमारी दोबारा नहीं हुई. सर्जरी के कुछ ही महीनों में लौट आने वाली कैंसर जैसी बीमारी के उपचार में ये प्रयोग एक बड़ी कामयाबी है.
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चिकित्सा विज्ञान की दुनिया में चमत्कार कम ही होते हैं. इस मामले में पेंक्रियाटिक कैंसर के विशेषज्ञ कुछ ज्यादा ही उत्हासित हैं. हाइडलबर्ग में जर्मन कैंसर शोध केंद्र में ट्यूमर इम्युनोलॉजिस्ट नील्स हलामा ने ताजा घटनाक्रम को "अद्भुत" और "अप्रत्याशित" समाचार बताया. उल्म स्थित ग्रैस्टोएंट्रोलॉजिस्ट थोमास ज्युफरलाइन ने इसे "पूरी तरह से नयी पद्धति वाली" एक निर्णायक सफलता करार दिया. उनके सहकर्मी अलेक्सांद्र क्लेगर ने इसे चिकित्सा क्षेत्र में क्रांति लाने वाला एक "बड़ा कदम" बताया.
सिर्फ 16 मरीजों पर किए गए इस अध्ययन के निष्कर्ष नेचर पत्रिका में प्रकाशित किए गए. अध्ययन का दायरा छोटा था. लेकिन सबसे घातक और लगभग लाइलाज कैंसरों में से एक के उपचार में एमआरएनए टेक्नोलॉजी के सफल उपयोग का यह पहला उदाहरण है. मरीजों के ट्यूमरों के लिहाज से ढले कैंसर के टीकों को बनाने में सालों की कोशिश के बाद यह निर्णायक सफलता भी है.
अध्ययन के दौरान क्या हुआ?
न्यूयॉर्क स्थित मेमोरियल स्लोन केटरिंग कैंसर सेंटर में, मरीजों के ट्यूमर यानी रसौलियां निकालकर जर्मनी भेजे गये. बायोनटेक नाम की कंपनी ने ट्यूमर के टिश्यू के जीनोम की सीक्वेंसिंग की और उनमें, तथाकथित नियोएंटीजन के म्युटेशनों की मौजदूगी के लिए जांच की गई.
इसके बाद, हर मरीज के लिए लक्षित नियोएंटीजन के एक चयन को कम्पाइल किया गया. सालों की रिसर्च पर आधारित ये काफी पेचीदा प्रक्रिया है. फिर इससे एमआरएनए वैक्सीन पैदा की गई. कोविड-19 की एमआरएनए वैक्सीन की तरह लक्ष्य था इन नियोएंटीजन संरचनाओं के खिलाफ एक प्रतिरोधी प्रतिक्रिया पैदा करने का.
अग्न्याशय में प्राइमरी ट्यूमर को सर्जरी से निकालने के नौ हफ्ते बाद पहली बार मरीजों को टीका लगाया गया. इसके अलावा, मरीजों को कीमोथेरेपी भी दी गई. चेकपॉइंट इनहिबिटर्स (कैंसर को प्रतिरोध प्रणाली बंद करने से रोकने वाले मॉलीक्यूल) भी लगाये गये.
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इम्यून रिस्पॉन्स दिखाने वाले आठ मरीजों में, अध्ययन के अंत तक ट्यूमर लौट कर नहीं आया. दूसरे आठ मरीजों में प्रतिरोध प्रणाली ने काम नहीं किया. उनका कैंसर लौट आया.
माउंट सिनाई में न्यूयार्क के इकाह्न स्कूल ऑफ मेडेसिन में कैंसर इम्युनोलॉजी की शोधकर्ता नीना भारद्वाज ने कहा, "मैं इस तथ्य को लेकर काफी उत्साहित हूं कि प्रतिरोध कायम करने और ज्यादा लंबे समय तक के बचाव के शुरुआती संकेत के बीच एक स्पष्ट सहसंबंध मिला है." उनके मुताबिक ज्यादा व्यापक और बड़े क्लिनिकल ट्रायलों के जरिए निष्कर्षों की पुष्टि किये जाने की जरूरत है.
पेंक्रियाटिक कैंसर इतना घातक क्यों है?
पेंक्रियाज यानी अग्न्याशय, पेट के भीतर गहराई में मौजूद एक छोटा सा अंग है. वहां पनपने वाला कैरकीनोमा दुनिया भर में कैंसर से होने वाली मौत की प्रमुख वजहों में से एक है. मुख्य समस्या ये है कि पेंक्रियाटिक कैंसर का पता बहुत आखिरी अवस्था में चल पाता है. शुरू में शिनाख्त का कोई तरीका नहीं है, और कैंसर के असामान्य रूप से बड़ा होने या दूसरे अंगों में फैलने से पहले, मरीजों में कोई लक्षण भी नहीं नजर आते. रसौली को सर्जरी से निकालना भले ही संभव है लेकिन वो अक्सर फिर से पनप उठती है.
थेरेपी को जटिल बनाने वाली दूसरी चीज ये है कि कैंसर लगातार बदलता रहता है. वो न सिर्फ पर्यावरण को बदलता है बल्कि खुद भी पर्यावरण से बदल जाता है. नतीजतन, दो पेंक्रियाटिक कैंसर ऐसे जैसे नहीं होते. यह चीज उपचार को खासतौर पर कठिन बना देती है.
अलेक्सांद्र क्लेगर कहते हैं, "हर पेंक्रियाटिक कैंसर अपने स्तर पर एक अलग बीमारी जैसा है." थोमास ज्युफलेन समझाते हैं कि "इसीलिए हर कैंसर के ट्यूमर के लिए आप एक व्यक्तिनिष्ठ थेरेपी तैयार करना चाहते हैं."
टीके की करामात से हैरान वैज्ञानिक
टीकों की मदद से कैंसर के खिलाफ लड़ाई का विचार नया नहीं है. 2010 में प्रोस्टेट कैंसर के खिलाफ वैक्सीन को अमेरिका में मंजूरी मिल गई थी. पिछले कुछ समय से कैंसर की एमआरएनए वैक्सीनों पर रिसर्च भी जारी है. हाल ही में, मॉडर्ना और मर्क कंपनियों की बनायी एक एमआरएनए वैक्सीन, हाई-रिस्क मेलानोमा के इलाज में सफल रही है.
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फिर भी कई वैज्ञानिक ये उम्मीद नहीं करते थे कि पेंक्रियाटिक कैंसर के खिलाफ कोई वैक्सीन काम कर जाएगी. ये कैंसर आखिरकार "कोल्ड ट्यूमर" यानी "ठंडा निष्प्राण ट्यूमर" के रूप में श्रेणीबद्ध है. मतलब ये एक मजबूत प्रतिरोधी प्रतिक्रिया नहीं दिखाता और इसीलिए प्रतिरोध प्रणाली के खिलाफ बेहतर ढंग से छिपा रहता है. कोल्ड ट्यूमर आमतौर पर इम्युनोथेरेपी पर प्रतिक्रिया नहीं देते.
पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी में इम्युनोलजिस्ट ड्रियू वाइजमान कहते हैं, "मुझे पता है कि अलग अलग किस्म के कैंसरों की तलाश की जा रही थी कि किस पर ये वैक्सीन असर करेगी. मुझे हैरानी है कि पेंक्रियाटिक कैंसर पर इसने इतना बढ़िया काम कर दिखाया."
सचेत आशावाद- और कई अनसुलझे सवाल
तमाम शुरुआती उत्साह के बावजूद, थोड़ी सावधानी और सजगता बरतना भी जरूरी है. अध्ययन का आकार छोटा था. सिर्फ 16 मरीज थे. 18 महीने पर्यवेक्षण की अवधि भी छोटी थी. इसे कंट्रोल ग्रुप के बिना भी अंजाम दिया गया था. यानी उस तुलना समूह के बिना जिसे सिर्फ सर्जरी, कीमोथेरेपी और चेकपॉइंट इनहिबिटर दिया गया था. इसीलिए टीकाकरण के असर को मापना मुश्किल है और पहले के थेरेपी तरीकों से तुलना भी मुश्किल है. हर मरीज को एक टेलर-मेड वैक्सीन दी गई थी- ये तथ्य भी अध्ययन के नतीजों का एक तुलनात्मक आकलन कर पाने में मुश्किलें खड़ी करता है.
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यह अभी भी अस्पष्ट है कि टीका सिर्फ आधे मरीजो में ही क्यों कैंसर के खिलाफ प्रतिरोध पैदा कर पाया या भविष्य में नियोएंटीजन का चयन किया जा सकता है या नहीं या कैसे किया जा सकता है. दिलचस्प बात है कि उसी अवधि के दौरान कोविड-9 के खिलाफ दी गई एमआरएनए वैक्सीन ने सभी मरीजों में प्रतिरोध विकसित कर दिया. ये इस बात का संकेत था कि नियोएंटीजन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया किसी भी रूप में बाधित या क्षतिग्रस्त नहीं थी.
यह भी अस्पष्ट है कि टीकाकरण से उन मरीजों को मदद मिलती है या नहीं जिनके ट्यूमर पहले से इतने बढ़े हुए होते हैं कि उनका ऑपरेशन हो ही नहीं सकता. अध्ययन में सिर्फ वे मरीज शामिल किए गए थे जिनके ट्यूमर निकाले जा सकते थे.
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नीना भारद्वाज कहती हैं, "बीमारी की उच्च अवस्था में, मेरे ख्याल से स्थिति अलग होती है. प्रतिरोध को दबाने वाले बहुत सारे फैक्टर पहले ही सक्रिय हो चुके होते हैं. और अगर आप एक सही प्रतिरोध प्रतिक्रिया पैदा करते हैं, सही कोशिकाएं ट्यूमर में डाल पाते हैं- इस मामले में टी सेल्स- तो ये अपने आप में मुश्किल हो सकता है. ये एक बड़ा मोटा ट्यूमर है."
इसी वजह से, टीकाकरण अपने आप में एक अपर्याप्त उपचार साबित हो सकता है. लेकिन विशेषज्ञ जोर देते हैं कि माना जा सकता है कि इसे एक पूरक थेरेपी के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे कि मेटास्टेटिक अवस्था में.
एमआरएनए टीका- इलाज में क्रांति?
इस अवस्था में दूसरे बहुत से व्यवहारिक सवाल भी सामने आ जाते हैं. मसनल, प्रक्रिया को कितना तेज बनाया जा सकता है? एक बार स्थापित हो गई तो वैक्सीन कितनी महंगी होगी? बायोएनटेक के संस्थापक उगुर साहिन ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया कि पिछले कुछ साल में कंपनी उत्पादन समय को छह सप्ताह से कम रखने में समर्थ रही है और उत्पादन का खर्च प्रति उपचार 350,000 डॉलर से 100,000 डॉलर कर पाई है. ट्यूमर इम्युनोलजिस्ट नील्स हलामा का कहना है, "इस पैमाने पर क्लिनिकल एप्लीकेशन के साथ हम मान सकते हैं कि आगे चलकर और अवसर आएंगे और कीमतों में और कटौती हो पाएगी."
ये सवाल भी है कि क्या ये प्रक्रिया, जिसे जानकार बड़ा ही पेचीदा बताते हैं, विशेषीकृत केंद्रों के बाहर स्थापित की जा सकती है या नहीं. ड्रियू वाइजमान कहते हैं, "ये वो वैक्सीन है जिसे अभी शायद दुनिया में दो या तीन कारगर केंद्रों की दरकार है. लेकिन अंततः हम ऐसी वैक्सीन चाहते हैं जो पूरी दुनिया में इस्तेमाल की जा सके."
इस बारे में अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है. कई सवालों के जवाब अभी नहीं मिले हैं. ड्रियु वाइजमान के मुताबिक अभी के लिए, ट्रायल एंड एरर यानी कोशिश और गलती वाला तरीका ही काम का नजर आता है. उन्हें यकीन है कि सारे कैंसर आरएनए वैक्सीन से नहीं जाने वाले. लिहाजा ये तरीका शायद अभी एक क्रांति न कहलाए लेकिन पेंक्रियाटिक कैंसर के मौजूदा उपचार में आमूलचूल बदलाव के लिए एक अहम अगला कदम जरूर साबित हो सकता है.