नरेंद्र मोदी की आदर्श ग्राम योजना का क्या हुआ?
२५ जून २०२०एक ओर जब पिछले दिनों प्रधानमंत्री के गोद लिए एक गांव की वस्तुस्थिति के बारे में खोजी रिपोर्ट करने वाली वेबसाइट "द स्क्रॉल" की वरिष्ठ पत्रकार सुप्रिया शर्मा पर एफआईआर दर्ज की जा रही थी, तो दूसरी ओर उसी दौरान एक रिपोर्ट मीडिया में प्रकाशित हुई जिसमें प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना को बेअसर और टार्गेट पूरा करने में नाकाम बताया गया है. यह रिपोर्ट जारी करने वाला कोई और नहीं, सरकार का ग्रामीण विकास मंत्रालय है.
प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना (पीएमएजीवाई) की वेबसाइट का होमपेज खोलते ही स्क्रीन पर डैशबोर्ड दिखता है जिसमें अलग अलग रंग के बक्सों में संख्याएं और उनके टाइटल दर्ज हैं. ऐसे 18 बक्सों में इस योजना के तहत अद्यतन ‘विकास' बिंदुओं को संख्याओं के जरिए दर्शाया गया है. 24 राज्य, 522 जिले, 9527 गांव, 19 लाख से ज्यादा घर, 48 लाख लाभार्थी आदि आदि. चमकदार और आकर्षक दिखने वाले ये आंकड़े न जाने क्यों जमीनी स्तर पर उतने लुभावने नहीं नजर आते. अगर ऐसा होता तो भारत सरकार के ही ग्रामीण विकास मंत्रालय की ताजा ऑडिट रिपोर्ट ये न कहती कि गांवों के विकास की इस योजना का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा है और लक्षित उद्देश्य भी पूरे नहीं हो पाए हैं.
दिसंबर 2019 तक उपलब्ध आधिकारिक आंकड़ों के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक लोकसभा और राज्यसभा के कुल 790 सांसदों में से पहले चरण में 703 सांसदों ने अपने गांव चुने (500 लोकसभा, 203 राज्यसभा), दूसरे चरण में यह संख्या 497 (364 और 133) रह गई और तीसरे चरण में 301 सांसद (239 और 62) ही रह गए, चौथे चरण में सांसदों की यह संख्या थी 252 (इनमें से 208 लोकसभा के और 44 राज्यसभा के थे.)
सिर्फ सात गांव ही चुने जा सके
11 अक्टूबर 2014 को शुरू हुई योजना के तहत सिर्फ 1855 ग्राम पंचायतें ही अब तक के पांच चरणों में आदर्श ग्राम योजना में चिंहित हो पाई हैं. पांचवे चरण में योजना की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सिर्फ सात गांव ही चुने जा सके हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने अगस्त 2014 में अपने पहले स्वतंत्रता दिवस संबोधन में सांसदों से अपील की थी वे अपने निर्वाचन क्षेत्रों में 2016 तक एक गांव, 2016 के बाद दो और गांव और 2019 के बाद कम से कम पांच आदर्श गांव विकास कार्यों के लिए चुनें. ऐलान के वक्त इस योजना की आलोचना भी हुई थी कि जब पहले से गांवों के विकास पर केंद्रित बुनियादी योजनाएं चल रही हैं, तो छाता योजना की तरह इसे ऊपर से थोपने का क्या औचित्य है. आलोचकों ने इसे सजावटी योजना बताया, तो समर्थकों ने इसे समग्र ग्राम्य विकास के लिए महत्त्वपूर्ण कहा.
बहरहाल, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के विभिन्न कल्याणकारी कार्यक्रमों और योजनाओं के समुचित क्रियान्वयन और उनके प्रभाव का स्वतंत्र आकलन करने के लिए गठित पांचवे कॉमन रिव्यू मिशन, सीआरएम ने यह रिपोर्ट तैयार की है. योजना की समीक्षा का सुझाव देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि आदर्श ग्राम योजना के लिए कोई समर्पित कोष नहीं है और जो धनराशि आवंटित होती है, वह अपर्याप्त है. सीआरएम की टीमों ने विभिन्न राज्यों में दौरे कर बताया कि उन्हें योजना का कोई ‘महत्वपूर्ण प्रभाव' नहीं दिखा. सांसदों ने अपनी क्षेत्र विकास नीति से इसके लिए पर्याप्त रकम नहीं जारी की.
आदर्श गांव में खुले शौचालय?
रिपोर्ट में कहा गया है कि इससे लगता है कि सांसदों की भी इसमें कोई खास दिलचस्पी है नहीं, और जाहिर है इस ‘उदासीन रवैये' का असर भी योजना पर पड़ा है. लेकिन सीआरएम ने माना कि कुछ गांवों में जहां सांसद सक्रिय हैं, कुछ आधारभूत विकास हुआ है, लेकिन योजना का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा है लिहाजा उन्हें आदर्श ग्राम की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है.
जिन आठ राज्यों के 21 जिलों और 120 गांवों का सीआरएम की टीमों ने पिछले साल नवंबर में दौरा किया, उनमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडीशा, केरल, मणिपुर और मेघालय शामिल हैं. समाचार रिपोर्टों के मुताबिक आकलन दलों ने पाया कि आदर्श ग्राम योजना अपनी मूल भावना में गांवों तक नहीं पहुंच पाई है. बहुत से उदाहरण भी दिए गए हैं जैसे केरल की कल्लीकड़ ग्रामसभा आदर्श ग्राम योजना के लिए चिंहित होने के बावजूद उल्लेखनीय उपलब्धि से वंचित है. मध्य प्रदेश के एक गांव के हवाले से बताया गया कि वहां फील्ड अधिकारियों को ग्राम योजना की अवधारणा का अंदाजा भी नहीं हैं. उत्तर प्रदेश के एक गांव का दौरा करते हुए अध्ययन दल ने पाया कि और तो छोड़िए वह आदर्श ग्राम खुला शौचालय मुक्त घोषित ही नहीं हो पाया था!
योजना से पल्ला झाड़ रही है सरकार?
सीआरएम की रिपोर्ट आने के बाद, जानकार हल्कों में ये कयास भी लग रहे हैं कि कहीं सरकार इस योजना से पल्ला तो नहीं झाड़ रही है. वैसे समिति ने योजना की समीक्षा की सिफारिश तो कर ही दी है. तो इसके क्या मायने निकाले जा सकते हैं? क्या सरकार और अधिक तत्परता से बेहतर क्रियान्वयन की दिशा में मुस्तैदी दिखाएगी या योजना को शनैःशनैः ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि आदर्श ग्राम योजना और इसकी निगरानी में आने वाली तमाम योजनाओं को सही ढंग से क्रियान्वित करने के लिए संबद्ध विभाग, सांसद और प्रशासनिक अमला सक्रिय हों और इस कार्य में विशेष रुचि दिखाई जाए तो गांवों की तस्वीर बदली जा सकती है. लेकिन ये कार्य गांवों को मुख्यधारा में लाने के चुनावी नारे की आड़ में नहीं किया जा सकता है. इसके लिए आला दर्जे की संकल्पशक्ति और राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है.
यह निर्विवाद तथ्य है कि एक देश की औद्योगिक वृद्धि, उसके ग्रामीण क्षेत्र की वृद्धि से जुड़ी है. लेकिन जीडीपी छलांगों की लालसा यह नहीं देखती. गांवों के विकास का अर्थ खेती-किसानी का विकास ही नहीं, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, पोषण, घर, बिजली, पानी, सड़क आदि के जरिए रहनसहन को सुदृढ़ करने और आगे चलकर एक बेहतर मानव संसाधन का निर्माण भी है. महात्मा गांधी ने यूं ही नहीं कहा था कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि मौजूदा राजनीतिक आर्थिकी में सम्मानजनक जगह ग्रामीणों और किसानों का अधिकार है, उन पर दया नहीं.
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