भारत की मदद से सूरज को ग्रहण लगाने गए यूरोप के दो सैटलाइट
५ दिसम्बर २०२४भारतीय समय के मुताबिक, 5 नवंबर की शाम ठीक 04:04 बजे भारत और यूरोप की अंतरिक्ष एजेंसियों के बीच अंतराष्ट्रीय सहयोग का एक नया अध्याय सफल हुआ. श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से इसरो का एक पीएसएलवी-सी95 रॉकेट, यूरोपियन स्पेस एजेंसी (ईएसए) के प्रोबा-3 मिशन को लेकर अंतरिक्ष रवाना हुआ. इसरो और ईएसए ने एक बयान जारी कर लॉन्च के कामयाब होने की जानकारी दी.
ईएसए ने कहा, इसरो के आभारी हैं
प्रोबा-3 के मिशन मैनेजर डामियन गलानो ने लॉन्चिंग पर खुशी जाहिर करते हुए कहा, "मैं इस पिक्चर-परफेक्ट तरीके से पृथ्वी की कक्षा में पहुंचाने के लिए इसरो का आभारी हूं. अब मुश्किल काम की शुरुआत हुई है क्योंकि प्रोबा-3 मिशन के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दोनों सैटेलाइटों को सटीक जगह हासिल करनी होगी."
'न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड' (एनएसआईएल) के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक राधाकृष्णन दुराइराज ने कहा, "हम सम्मानित महसूस कर रहे हैं कि ईएसए ने अपने प्रोबा-3 अभियान के लिए एनएसआईएल पर भरोसा किया. दोनों सैटेलाइटों को कक्षा में उनकी लक्षित जगह पर सटीक तरीके से पहुंचाकर हम बहुत संतुष्ट हैं."
ईएसए ने अपने बयान में अभियान की चुनौतियों को रेखांकित करते हुए लिखा, "पृथ्वी की कक्षा में एक सैटेलाइट उड़ाने से ज्यादा मुश्किल क्या है? दो सैटेलाइट उड़ाना- ठीक एक-दूसरे के बगल में." जोड़े में चलते हुए सैटेलाइटों का ये जोड़ा एक-दूसरे से करीब 150 मीटर के फासले पर होगा. ईएसए ने बताया वो पहले भी फॉर्मेशन बनाकर उड़ने वाले मिशन को अंजाम दे चुका है, लेकिन उनमें दसियों किलोमीटर की दूरी रहती थी.
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क्या हासिल करने गया है प्रोबा-3 मिशन?
प्रोबा-3 मिशन में दो अंतरिक्षयान भेजे गए हैं. ये दोनों सूर्य के कोरोना की पड़ताल करेंगे. कोरोना, सूरज के वातावरण की सबसे बाहरी परत है. सूरज की प्रचंड रोशनी के कारण आमतौर पर यह छिपी रहती है. खास उपकरणों के बिना इसे देख पाना मुश्किल है. सूरज को जब पूरा ग्रहण लगता है, उस दौरान यह नजर आता है.
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यह मिशन भी कोरोना को अच्छी तरह देखने और पढ़ने के लिए सूर्य ग्रहण का इस्तेमाल करेगा. इसके लिए मिशन के दोनों स्पेसक्राफ्ट अंतरिक्ष में खास ढंग से उड़कर सूर्य ग्रहण की स्थिति बनाएंगे. फर्क इतना होगा कि ये कुदरती नहीं, बल्कि इंसानों का बनाया कृत्रिम ग्रहण होगा.
ऐसा हर कृत्रिम सूर्य ग्रहण छह घंटे लंबा होगा, जबकि प्राकृतिक सूर्य ग्रहण कुछ मिनटों की अवधि के लिए होते हैं. ईएसए के मुताबिक, पहला कृत्रिम ग्रहण मार्च में हो सकता है. अपने दो साल के ऑपरेशन में प्रोबा-3 कृत्रिम तरीके से सैकड़ों बार सूर्य पर ग्रहण लगाएगा. काम पूरा हो जाने के बाद दोनों सैटेलाइट वातावरण में जलकर नष्ट हो जाएंगे.
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ईएसए के दोनों सैटेलाइटों (कोरोनाग्राफ और ऑक्यूल्टर) दोनों करीब एक महीने बाद अलग हो जाएंगे. अलग होने के बाद ये दोनों एक-दूसरे से 492 फीट की दूरी बनाएंगे, ताकि एक स्पेसक्राफ्ट दूसरे पर छाया बनाए. इसमें बहुत सटीक होना होगा. अपनी पोजिशन पर बने रहने के लिए दोनों सैटेलाइट जीपीएस, स्टार ट्रैकर, लेजर और रेडियो लिंक पर निर्भर करेंगे. परछाईं डालने वाले सैटेलाइट में एक डिस्क है, जो दूसरे सैटेलाइट पर लगे टेलिस्कोप से सूर्य को ब्लॉक करेगा.
सूर्य के कोरोना की गुत्थी
कुदरती तौर पर जो पूर्ण सूर्य ग्रहण लगता है, उसमें चंद्रमा की जो भूमिका होती है, वैसी ही कुछ इस डिस्क की भी होगी. पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान चंद्रमा, पृथ्वी और सूर्य के बीच से गुजरता है. जब ऐसा होता है, तो चंद्रमा के कारण सूर्य की तेज रोशनी बाधित होती है. ग्रहण लगे सूर्य के आसपास आपको जो चमकीला सफेद घेरा दिखता है, वही कोरोना है. इसका स्वभाव काफी रहस्यमय है. यह सूर्य की सतह के मुकाबले कहीं ज्यादा गर्म होता है. बहुत ज्यादा तापमान के बावजूद यह कम रोशन है. वैज्ञानिक इसकी वजह जानना चाहते हैं.
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उम्मीद है कि इससे 'कोरोनल मास इजेक्शन्स' (सीएमई) को समझने में भी मदद मिले. सूरज का कोरोना बड़ी मात्रा में प्लाज्मा और मैगनेटिक फील्ड छोड़ता है, जिसे सीएमई कहते हैं. इससे पृथ्वी के पावर ग्रिडों, टेलीकम्यूनिकेशन नेटवर्क और सैटेलाइटों को खासा नुकसान पहुंच सकता है.
एसएम/आरपी (एपी, ईएसए, इसरो)