अमेरिकी शहर में जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानून का प्रस्ताव
२१ फ़रवरी २०२३क्षमा सावंत की बचपन की यादों में से एक बात जहन में अटकी हुई है. ब्राह्मण परिवार में जन्मीं, पली-बढ़ीं सावंत के दादा उनके घर में काम करने वाली महिला को अक्सर एक शब्द से बुलाते थे जो जातिसूचक अपमानजनक शब्द था. सावंत कहती हैं कि वैसे उस महिला का ख्याल रखा जाता था लेकिन बुलाने में जातिसूचक शब्द का प्रयोग आम था.
अमेरिका के सिएटल शहर की काउंसिल में पार्षद सावंत जब छह साल की थीं तो उन्होंने अपने दादा को उस जातिसूचक संबोधन पर टोका भी था. तब दादा ने उन्हें चुप करवा दिया था. अब 50 साल की हो चुकीं क्षमा सावंत भारत से हजारों किलोमीटर दूर अमेरिका में उसी जातिगत भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ रही हैं जो उन्होंने बचपन से देखा है.
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सावंत ने अपनी काउंसिल में एक नया कानून लाने का प्रस्ताव पेश किया है जिसके तहत सिएटल में जातिगत भेदभाव को अपराध बनाया जाएगा. अगर ऐसा होता है तो सिएटल ऐसा कानून बनाने वाला अमेरिका का पहला ऐसा शहर बन जाएगा.
दुनियाभर में जातिप्रथा
भारत में जाति प्रथा हजारों साल से जारी है. वैसे 1948 में ही भारत ने जातिगत भेदभाव को अपराध की श्रेणी में डाल दिया था और 1950 में लागू हुए संविधान में भी इस संबंध में कानून को शामिल किया गया. लेकिन भारत में जाति के आधार पर शोषण और भेदभाव की घटनाएं सरेआम होती हैं.
इतना ही नहीं, यह प्रथा अब भारत की सीमाएं पार कर यूरोप, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक भी पहुंच चुकी है. अमेरिका में रहने वाला दक्षिण एशियाई समुदाय भी जातियों में बंटा हुआ है. दलित कार्यकर्ता कहते हैं कि भारतीय और अन्य दक्षिण एशियाई देशों के प्रवासियों में जाति प्रथा आम है जिसका असर सामाजिक संबंधों से लेकर घर किराये पर देने और शिक्षा व तकनीकी क्षेत्रों की नौकरियों तक में नजर आता है.
माइग्रेशन पॉलिसी इंस्टिट्यूट द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका भारतीय प्रवासियों के लिए दूसरा सबसे लोकप्रिय ठिकाना है. 1980 में वहां करीब दो लाख लोग भारतीय मूल के थे जिनकी संख्या 2021 में 27 लाख को पार कर चुकी थी. साउथ एशियन अमेरिकंस लीडिंग टुगेदर नामक संगठन के मुताबिक अमेरिका में इस वक्त करीब 54 लाख दक्षिण एशियाई रहते हैं. इनमें से अधिकतर लोग बांग्लादेश, भूटान, भारत, श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान से आते हैं.
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इस बढ़ती आबादी के साथ बढ़ते जातिगत भेदभाव को रोकने के लिए दलित कार्यकर्ता कानूनों की मांग कर रहे हैं. नेपाल से आने वाले दलित प्रेम पेरियार कहते हैं कि उन्होंने बचपन में हर तरह का जातिवाद झेला है लेकिन अमेरिका आने के बावजूद इसने पीछा नहीं छोड़ा है. भावुक होकर वह कहते हैं, "मैं इसलिए लड़ रहा हूं कि दलितों को इंसान का दर्जा मिल सके.”
पेरियार के संघर्ष का ही नतीजा था कि पिछले साल जनवरी में कैलिफॉर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी ने जातिगत भेदभाव को एक समस्या के रूप में मान्यता दी थी और इसे नियमों में शामिल किया था. इससे पहले 2019 में बोस्टन के पास ब्रैंडीज यूनिवर्सिटी पहला ऐसा कॉलेज बना था जिसने अपने यहां जातिगत भेदभाव को औपचारिक रूप से प्रतिबंधित कर दिया था. कई अन्य संस्थानों ने भी इस तरह की नीतियां अपनाई हैं.
भेदभाव के सबूत
अमेरिका में एक संगठन इक्विटी लैब्स ने 1,500 दक्षिण एशियाई लोगों के बीच एक सर्वे में पाया कि 67 प्रतिशत दलित ने कार्यस्थल पर जातिगत भेदभाव झेला था. 40 प्रतिशत छात्रों ने भी ऐसे अनुभव से गुजरने की बात कही. कथित ऊंची जातियों के छात्रों में भेदभाव का प्रतिशत सिर्फ तीन था. 40 प्रतिशत दलितों ने यह भी कहा कि अपनी जाति के कारण उन्हें पूजा स्थलों में जाने में असहज महसूस कराया गया.
इक्वैलिटी लैब्स की संस्थापक थेनमोजी सुंदरराजन कहती हैं कि जाति को कानून के दायरे में लाना जरूरी है क्योंकि फिलहाल इस आधार पर शोषण सहने वालों के पास कोई कानूनी मदद नहीं है.
‘ट्रॉमा ऑफ कास्ट' नामक किताब की लेखिका सुंदरराजन कहती हैं, "हम दक्षिण एशियाई लोगों को इतिहास ने इतनी सारी पीड़ाएं दी हैं. जब हम इस देश में आते हैं तो उन सारी पीड़ाओं को छिपा देते हैं और एक आदर्श अल्पसंख्यक बनने की कोशिश करते हैं. लेकिन जाति की छाया अब भी यहां है.”
कानून का विरोध
अमेरिका में ही कई दलित हैं जिनके अनुभव बुरे नहीं रहे हैं. भारत में जन्मे और सैन फ्रांसिस्को में रहने वाले दलित आल्ड्रिन दीपक कहते हैं कि 35 साल में उन्होंने अमेरिका में कभी जातिगत भेदभाव का सामना नहीं किया. इसलिए वह जाति को अमेरिका में एक मुद्दा बनाने के पक्ष में भी नहीं हैं. वह कहते हैं, "जहां कोई मुद्दा नहीं है, वहां इसे खड़ा करने से समुदाय में बंटवारा ही होगा.”
कोएलिशन ऑफ हिंदूज ऑफ नॉर्थ अमेरिका के अध्यक्ष निकुंज त्रिवेदी कहते हैं कि जाति के मुद्दे को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है. वह कहते हैं, "इस देश में हिंदू धर्म के बारे में समझ बहुत कम है. कई लोग मानते हैं कि जातिप्रथा ही हिंदू धर्म है लेकिन ऐसा नहीं है. हिंदू धर्म में विचारों, मान्यताओं और अभ्यास में विविधता है.”
जाति से ब्राह्मण त्रिवेदी कहते हैं सिएटल काउंसिल में लाया गया प्रस्ताव खतरनाक है क्योंकि यह "सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है, भरोसेमंद डेटा पर नहीं.” वह कहते हैं कि किसी की जाति की पुष्टि करना मुश्किल होगा. लेकिन वॉशिंगटन से काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘हिंदूज फॉर ह्यूमन राइट्स' के उपनिदेशक निखिल मंडलपार्थी इससे असहमत हैं. वह कहते हैं, "हम चाहते हैं कि दक्षिण एशियाई लोगों को भी भेदभाव के खिलाफ बराबर मौके मिलें. कई बार इसके लिए समुदाय की गंदगी को सामने लाना भी पड़ता है.”
वीके/एए (एपी)