यूक्रेन शांति सम्मेलन: साझे बयान में नहीं शामिल हुआ भारत
१६ जून २०२४स्विट्जरलैंड के ब्युर्गेनस्टॉक पहाड़ पर बने रिसॉर्ट में यूक्रेन के लिए हो रहे शांति सम्मेलन के आखिरी दिन 16 जून को साझे बयान पर सभी देशों के बीच सहमति नहीं बन पाई. इस बयान में रेखांकित किया गया कि यूक्रेन की "क्षेत्रीय अखंडता" युद्ध खत्म करने से जुड़े किसी भी शांति समझौते का आधार होंगे. बयान में घोषणा की गई, "हम मानते हैं कि शांति हासिल करने के लिए सभी पक्षों की हिस्सेदारी और उनमें आपसी संवाद की जरूरत है." साथ ही, सभी युद्धबंदियों और डिपोर्ट किए गए बच्चों को भी लौटाने की अपील की गई.
शिखर सम्मेलन में मौजूद करीब 80 देशों ने साझे बयान का समर्थन किया. भारत, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका और संयुक्त अरब अमीरात बयान पर दस्तखत ना करने वाले देशों में रहे. नई दिल्ली की ओर से भेजे गए प्रतिनिधि पवन कुमार ने कहा कि भारत इस सम्मेलन में जारी किसी भी संयुक्त बयान या प्रस्ताव से खुद को अलग करता है.
पवन कुमार ने कहा, "यूक्रेन के हालात पर बनी वैश्विक चिंता को भारत भी साझा करता है और संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में किसी भी तरह की सामूहिक इच्छा का समर्थन करता है. शांति शिखर सम्मेलन में भारत की हिस्सेदारी, हमारे इस स्पष्ट और एकरूप रुख के मुताबिक है कि केवल संवाद और कूटनीति से ही स्थायी शांति संभव है. हमारा यकीन है कि ऐसी शांति के लिए सभी पक्षों को साथ लाने की जरूरत है. हमारा मानना है कि केवल वही विकल्प, जो दोनों पक्षों को स्वीकार हों, स्थायी शांति ला सकते हैं. इसी क्रम में हमने फैसला किया है कि इस सम्मेलन में आने वाले किसी साझे बयान या किसी भी अन्य कागजात से हम खुद को अलग रखेंगे."
सहमति के अभाव में कई अहम चीजें बयान का हिस्सा नहीं बनीं. मसलन, क्या यूक्रेन नाटो में शामिल होगा, किस तरह दोनों पक्षों की सेनाएं पीछे हटेंगी और इसकी व्यवस्था क्या होगी. हालांकि, सम्मेलन की शुरुआत से पहले भी यह स्पष्ट था कि मौजूदा स्थितियों के मद्देनजर यह बैठक अपने लक्ष्य में बहुत महत्वाकांक्षी नहीं है.
15 जून को सम्मेलन की शुरुआत से पहले यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने कहा, "हम कूटनीति को एक मौका देने में कामयाब हुए हैं." राष्ट्रपति जेलेंस्की और स्विस सरकार की पहल पर हुई इस वार्ता में कुल 92 देश और आठ अंतरराष्ट्रीय संगठन शामिल हुए. लेकिन एक बड़ा सवाल था कि क्या इस बड़े जमावड़े भर से युद्ध रोका जा सकेगा और अमन बहाली हो सकेगी.
रूस का साथ दे रहे देशों को साथ लाना चुनौती
वार्ता की सफलता पर संदेह की एक बड़ी वजह है, रूस की गैर-मौजूदगी. युद्ध रोकने के लिए रूस पर दबाव बनाना, उसे वार्ता की मेज पर लाना जरूरी है. साथ ही, चीन जैसे रूस के मित्र देशों को शांति प्रयासों में भागीदार बनाना भी जरूरी है. कई जानकार इस ओर ध्यान दिला रहे थे कि ऐसे सम्मेलन मुख्य रूप से उन्हीं देशों को साथ ला रहे हैं, जो पहले ही यूक्रेन युद्ध पर एकमत हैं और लगातार रूसी हमले और आक्रामकता का विरोध करते आए हैं. जबकि, लक्ष्य होना चाहिए मत के दूसरी ओर खड़े और किसी न किसी रूप में रूस का साथ दे रहे देशों को साथ लाना.
जैसा कि ऑस्ट्रिया के चांसलर कार्ल नेहामर ने कहा, "हम जैसे किसी पश्चिमी ईको चैंबर में हैं. हम सब सहमत हैं, लेकिन बस इतना काफी नहीं है. एशिया, अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका के कई हिस्सों के बिना हम रूस को अपना विचार बदलवाने में कामयाब नहीं हो पाएंगे."
ऑस्ट्रियाई चांसलर ने ध्यान दिलाया कि भारत, ब्राजील, चीन और दक्षिण अफ्रीका की मौजूदगी खासतौर पर जरूरी है. हालांकि, उन्होंने थोड़ी आशा जताते हुए यह भी कहा, "यह चीज कि भारत और ब्राजील ने बैठक में अपने प्रतिनिधि भेजे, भले ही वे मंत्री स्तर के नहीं हैं, फिर भी यह भविष्य के लिए एक अच्छा संकेत है."
इन सवालों के बीच स्विट्जरलैंड की राष्ट्रपति वियोला एमहर्ड ने स्पष्ट किया कि सम्मेलन के लक्ष्य बहुत महत्वाकांक्षी नहीं हैं. उन्होंने कहा, "हमारे लक्ष्य सीमित हैं." एमहर्ड ने कहा कि सम्मेलन का मकसद स्थायी शांति कायम करने की प्रक्रिया को प्रेरणा देना है. उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय कानून दुनिया में व्यवस्था बनाए रखने के आधार हैं और "रूस का हमला बेहद गंभीर तरीके से इसका उल्लंघन करता है."
स्विट्जरलैंड ने भारत को साथ लाने की बहुत कोशिश की
स्विट्जरलैंड पिछले कई महीनों से इस सम्मेलन को सफल बनाने की कोशिश कर रहा था. वह ज्यादा से ज्यादा देशों को बैठक में हिस्सा लेने के लिए राजी कर रहा था. 160 देशों को न्योता भेजा गया और करीब 92 देशों ने इसे मंजूर किया. जर्मनी के चांसलर ओलाफ शॉल्त्स इटली में जी7 सम्मेलन से सीधे स्विट्जरलैंड पहुंचे. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी जी7 में आए थे, लेकिन वह एक चुनाव अभियान के लिए अमेरिका लौट गए और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस सम्मेलन में शामिल हुईं.
स्विट्जरलैंड ने भारत को भी साथ लाने की कोशिश की. फरवरी 2024 में स्विट्जरलैंड के विदेश मंत्री इंग्यांसियो कासिस भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर के साथ वार्ता के लिए दिल्ली पहुंचे. फिर यूक्रेन के विदेश मंत्री दिमित्रो कुलेबा अप्रैल में भारत आए. लेकिन भारतीय अधिकारियों ने कहा कि सरकार ने अभी फैसला नहीं लिया कि भारत सम्मेलन में शामिल होगा या नहीं और अगर होगा तो कौन प्रतिनिधित्व करेगा.
युद्ध छिड़ने के बाद से यूक्रेनी विदेश मंत्री अपने पहले भारत दौरे पर होंगे
मई में भी स्विट्जरलैंड के विदेश सचिव एलेक्सांड्र फाजल भारत को राजी करने के लिए दिल्ली पहुंचे. यहां उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा कि स्विट्जरलैंड के लिए यह अहम है कि भारत और ब्रिक्स (रूस के अलावा सभी) के अन्य देश सम्मेलन में हिस्सा लें.
फाजल ने जोर दिया कि इन देशों की भागीदारी ना केवल रूस को एक संदेश देगी, बल्कि भविष्य में जब कीव और मॉस्को वार्ता के लिए साथ आएंगे, तब भी भारत जैसे देश बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. समाचार एजेंसी पीटीआई को दिए इंटरव्यू में फाजल ने कहा, "भारत दुनिया का दोस्त है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय सच में उम्मीद करता है कि भारत इस शांति प्रक्रिया में योगदान दे." लेकिन भारतीय विदेश मंत्रालय ने लोकसभा चुनाव 2024 का हवाला देकर कहा कि उसने अभी शामिल होने पर फैसला नहीं किया है.
उम्मीदों के अनुरूप, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते दिनों जी7 सम्मेलन में हिस्सा लिया, लेकिन वह स्विट्जरलैंड नहीं आए. भारत ने विदेश मंत्रालय के एक सचिव पवन कुमार को प्रतिनिधित्व के लिए भेजा. इसी तरह ब्राजील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा भी जी7 बैठक में पहुंचे, लेकिन स्विट्जरलैंड नहीं आए. ब्राजील केवल पर्यवेक्षक के तौर पर सम्मेलन में शामिल हुआ. रूस के एक और करीबी सहयोगी दक्षिण अफ्रीका ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को भेजा.
रूस के साथ वार्ता के पक्ष में है जर्मनी
जर्मनी ने रूस के साथ वार्ता का समर्थन किया है. हालांकि, जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने यह भी माना कि अभी यह संभावना बहुत दूर दिखती है. शॉल्त्स ने स्विस सम्मेलन की तुलना ऐसे नन्हे पौधे से की, जो नाजुक है और उसे सींचने की जरूरत है. शॉल्त्स बोले, "लेकिन हम चाहते हैं कि बागीचा फले-फूले और संवरे."
शॉल्त्स ने स्पष्ट तौर पर कहा कि यूक्रेन में शांति लाने की प्रक्रिया में रूस को भी शामिल किया जाना चाहिए. एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा, "यह सच है कि रूस को शामिल किए बिना यूक्रेन में शांति हासिल नहीं की जा सकती है." शॉल्त्स ने रूस से मांग की कि वह यूक्रेन के कब्जे वाले इलाकों से बाहर निकल जाए.
जर्मन विदेश मंत्री ने रूस से यूक्रेन युद्ध खत्म करने को कहा
इस दिशा में अगला सम्मेलन कब होगा, यह अभी तय नहीं है. हालांकि, स्विट्जरलैंड ने उम्मीद जताई है कि साल के अंत तक इस बारे में कोई फैसला ले लिया जाएगा. अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए राष्ट्रपति वियोला एमहर्ड ने कहा, "अंतरराष्ट्रीय समुदाय के तौर पर हम संबंधित पक्षों के बीच सीधी बातचीत की जमीन तैयार करने में मदद कर सकते हैं."
खबरों के मुताबिक, अगला सम्मेलन सऊदी अरब में हो सकता है. सऊदी अरब के विदेश मंत्री फैजल बिन फरहान अल सऊद ने 15 जून को कहा कि उनका देश शांति प्रक्रिया में मदद के लिए तैयार है. उन्होंने आगाह भी किया कि सुलह के लिए मुश्किल समझौते करने पड़ सकते हैं.
समझौते की संभावना अभी दूर दिखती है
जहां तक यूक्रेन और रूस की बात है, तो शांति प्रक्रिया के बारे में उनका मत काफी अलग है. पुतिन का कहना है कि लड़ाई खत्म करने की दो शर्तें हैं. पहली शर्त यह कि यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं होगा. दूसरी शर्त है कि यूक्रेन उन चार प्रांतों को रूस के सुपुर्द कर देगा, जिन पर मॉस्को दावा करता है. ये प्रांत हैं- डोनेत्स्क, लुहांस्क, खेरसॉन और जापोरिझिया.
क्या नाटो में शामिल होगा युद्धग्रस्त यूक्रेन?
यूक्रेन ने इन शर्तों को खारिज करते हुए कहा है कि पुतिन शांति नहीं चाहते, वह दुनिया को बांटना चाहते हैं. यूक्रेन के विदेश मंत्रालय ने कहा, "रूस शांति की नहीं, बल्कि युद्ध जारी रखने, यूक्रेन पर कब्जा करने, यूक्रेनी लोगों को खत्म करने और यूरोप में आक्रामकता बढ़ाने की योजना बना रहा है." पुतिन अब भी वही शर्तें दोहरा रहे हैं, जो उन्होंने दो साल पहले रखी थीं. तमाम मतभेदों और गतिरोधों के बीच एक चीज स्पष्ट है कि यूक्रेन में युद्ध शुरू होने के करीब ढाई साल बाद भी शांति-बहाली पर सहमति बनने की गुंजाइश अभी बहुत दूर दिख रही है.