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ऐसे चलता है जर्मनी में राजनीतिक दलों का खर्चा

१५ अप्रैल २०१९

भारत में इस समय चुनावी चंदों पर बहस चल रही है. जर्मनी में पार्टियों के लिए सरकारी मदद को अच्छी मिसाल माना जाना है. लेकिन इसे विकसित होने में भी दशकों लगे हैं. पार्टियों और संवैधानिक अदालत के बीच रस्साकशी होती रही है.

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Sozialdemokratische Kampagne in Berlin
तस्वीर: Getty Images/S. Gallup

जर्मनी संभवतः पहला देश है जहां पार्टियों की चर्चा संविधान में है. संविधान की धारा 21 के तहत पार्टियों को संवैधानिक संस्था का दर्जा दिया गया है. प्रतिनिधि लोकतंत्र में उन्हें मतदाताओं और राज्य सत्ता के बीच मध्यस्थ माना जाता है. अपनी गतिविधियों के जरिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करती हैं और चुनाव के जरिए संसद या विधान सभाओं में अपने प्रतिनिधि भेजते हैं जो सरकार बनाते हैं. इसलिए सरकारी मदद के जरिए इस बात को सुनिश्चित किया जाता है कि पार्टियों  को अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए पर्याप्त संसाधन मिले. तर्क ये है कि यदि पार्टियों को सिर्फ सदस्यों की फीसों और चंदों पर निर्भर रहना पड़े तो संभव है कि वे सिर्फ औद्योगिक घरानों के हितों का ध्यान रखेंगी, आम जनता का नहीं. गरीब वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले इस तरह अमीर पार्टियों के मुकाबले चुनावी प्रतिस्पर्धा में घाटे में रहेंगे.

राजनीतिक दलों को कार्यक्षम बनाए रखने के लिए सार्वजनिक और सामाजिक संसाधनों में संतुलन की बात कही गई है. यानि पार्टियों का काम करने की स्थिति में होना और राज्यसत्ता से स्वतंत्र होना तो जरूरी है ही, साथ ही मौकों की बराबरी और पार्दर्शिता को भी महत्व दिया गया है. इसका मतलब ये होता है कि पार्टियों को हर साल सार्वजनिक रूप से अपनी आमदनी और खर्च के अलावा संपत्ति का हिसाब देना पड़ता है. इसका मकसद ये है कि लोगों को समझ में आए कि किस पार्टी को कहां से पैसा मिल रहा है और वह किस तरह से इस धन को खर्च कर रही है.

Deutschland CDU-Parteitag in Hamburg Wahlboxen
सीडीयू पार्टी कांग्रेस में मतदानतस्वीर: Reuters/F. Bensch

पार्टियों की आर्थिक मदद

पार्टियों की आमदनी के पांच स्रोत हैं. सदस्यता फीस, आम लोगों और कंपनियों से मिला चंदा, संसद और विधान सभा में चुने गए प्रतिनिधियों से ली गई फीस,  आय के अतिरिक्त साधन और सरकारी अनुदान. पार्टियों की आर्थिक मदद का सिस्टम संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर बनाया गया है. सरकारी मदद का मुख्य आधार है पार्टियों का जनता के बीच जड़ें होना. इसका आकलन उनकी सदस्यता संख्या, उन्हें मिलने वाले चंदे और संसद, विधान सभाओं और यूरोपीय चुनाव में उन्हें मिलने वाले मतों के आधार पर किया जाता है. सरकारी अनुदान की अधिकारी वही पार्टियां होती हैं, जो संसदीय और यूरोपीय चुनावों में कम से कम 0.5 प्रतिशत और प्रांतीय चुनावों में कम से कम 1 प्रतिशत मत पाती हैं. उन्हें चुनावों में मत के आधार पर अनुदान मिलता है. 2017 के चुनावों के बाद कुल 20 पार्टियां अनुदान की अधिकारी  बनीं. उन्हें हर वोट के लिए अगले चुनावों तक प्रति वर्ष 0.83 यूरो यानि करीब 640 रुपये मिलते हैं. पहले 40 लाख वोटों के लिए पार्टियों को प्रति वोट 1 यूरो मिलता है.

वोट के लिए मिलने वाले अनुदान के अलावा राजनीतिक दलों को सदस्यता फीस और चंदे से मिली राशि पर भी अनुदान मिलता है. सदस्यता फीस और आम लोगों के चंदे से मिले हर यूरो पर 0.45 यूरो सरकारी अनुदान मिलता है. आम लोगों द्वारा दी जाने वाली चंदे की राशि प्रति वर्ष अधिकतम सिर्फ 3,300 यूरो हो सकती है. उससे ज्यादा होने पर वह राशि अनुदान की अधिकारी नहीं होती. कंपनियों और उद्यमों से मिले चंदे पर अब उन्हें कर राहत नहीं मिलती. सरकारी कंपनियों को पार्टियों को चंदा देने का अधिकार नहीं है. इस तरह से सदस्यता फीस, आम लोगों के चंदे और सरकारी अनुदान से मिली राशि को पार्टियों के लिए कार्यक्षम बने रहने के लिए जरूरी राशि माना जाता है. 10,000 यूरो से ज्यादा राशि का चंदा देने वाले व्यक्तियों या कंपनियों के नामों को सार्वजनिक करना होता है. नाम प्रकाशित होने से बचने के लिए चंदे की राशि को छोटे छोटे टुकड़ों में बांटने पर प्रतिबंध है. अवैध चंदा लेने पर पार्टी के अधिकारियों को तीन साल तक की सजा हो सकती है. आमदनी खर्च का वार्षिक लेखा जोखा यदि पार्टी कानून के अनुरूप न हो तो सरकारी अनुदान नहीं मिलता और यदि चंदा गैरकानूनी तरीके से लिया गया है तो उसका दोगुना सरकारी अनुदान कट जाता है और चंदे जितनी रकम जुर्माने के तौर पर भी देनी होती है.

Deutschland Bayern CSU
तस्वीर: picture-alliance/dpa/A. Gebert

अनुदान का इतिहास

पार्टियों को अनुदान दिए जाने का सिस्टम शुरू से ही विवादों में रहा है. इसकी वजह ये है कि पार्टियों को कितनी अनुदान मिले इसका फैसला संसद खुद करती है यानि पार्टियां खुद तय करती हैं कि खजाने से उन्हें कितनी सहायता मिलेगी. लेकिन उन पर संवैधानिक अदालत का नियंत्रण भी है. कानून बन जाने के बाद यदि किसी को शिकायत है तो वह कानून की समीक्षा के लिए संवैधानित अदालत जा सकता है. अतीत में संवैधानिक अदालत अपने आदेशों से कानून को संविधान सम्मत बनाने का रास्ता दिखाकर या कानून के कुछ हिस्सों को असंवैधानिक घोषित कर पार्टी कानून को प्रभावित करती रही है. बहस का मुख्य मुद्दा ये रहा है कि पार्टियों को क्या सिर्फ खास गतिविधियों के लिए मदद दी जाए या फिर उन्हें सामान्य मदद दी जाए. इस बात पर भी विवाद रहा है कि चंदा देने वालों को कितनी राशि पर कर राहत दी जानी चाहिए.

1949 में संविधान बनने के बाद राजनीतिक दलों को दिया जाने वाला चंदा पूरी तरह कर मुक्त था. भले ही वह चंदा कोई आम आदमी दे रहा हो या कोई कंपनी. 1958 में संवैधानिक अदालत ने इस पर रोक लगा दी, लेकिन साथ ही कहा कि सरकार पार्टियों को खर्च चलाने के लिए टैक्स से मदद दे सकती है. संसद ने इस फैसले का फायदा उठाकर पार्टियों को सरकारी अनुदान देना शुरू किया. शुरू में इसके लिए बजट में 50 लाख मार्क की राशि रखी गई जिसे पार्टियों के बीच उनके संसदीय दलों के आकार के आधार पर बांटा गया. इस फैसले के साथ संसद में शामिल पार्टियों के बीच मौके की बराबरी तो आई लेकिन जो पार्टियां पांच प्रतिशत न्यूनतम मत नहीं पाने के कारण संसद नहीं पहुंच पाईं, उन्हें इस बराबरी में हिस्सेदारी नहीं मिली. साथ ही राज्य से पार्टियों के स्वतंत्र होने के सिद्धांत को भी चोट पहुंची. 1966 में संवैधानिक अदालत ने पार्टियों को अनुदान की इस व्यवस्था को असंवैधानिक करार दिया लेकिन साथ ही कहा कि चुनाव प्रचार के लिए उन्हें उचित मदद दी जा सकती है. 1967 में संसद ने पहला पार्टी कानून बनाया और प्रति मतदाता पार्टियों के चुनाव खर्च के लिए 2.50 मार्क की राशि रखी. इसे पार्टियों को मिलने वाले मत के आधार पर उनमें बांटा जाता था.

Bundestagswahlkampf 2017 Wahlplakate Grüne und FDP
तस्वीर: Imago/R. Traut


अनुदान में नई समस्याएं 

देश के पहले पार्टी कानून ने पार्टियों को अनुदान देने की प्रक्रिया में नई समस्याएं पैदा कर दी. हालांकि प्रति मतदाता चुनाव खर्च की राशि को बढ़ाकर 5 मार्क कर दिया गया, लेकिन इस धन को पार्टियां चुनाव प्रचार के अलावा किसी और मद पर खर्च नहीं कर सकती थीं. आने वाली समस्याओं को बीच बीच में सुधार कर दूर किया जाता रहा. लेकिन समस्याएं होती रहीं. अनुदान की व्यवस्था से असंतुष्ट ग्रीन पार्टी ने फिर संवैधानिक अदालत का रास्ता पकड़ा. संवैधानिक अदालत ने 1992 में माना कि चुनाव खर्च और पार्टियों के दूसरे खर्चों को अलग रखना मुश्किल है. उसके बाद के सालों में कई चंदा कांडों के बाद, जिनमें पूर्व चांसलर हेल्मुट कोल भी सामिल थे, 2000 में तत्कालीन राष्ट्रपति योहानेस राउ ने एक कमीशन बनाया जिसकी रिपोर्टों के आधार पर 2002 में नया पार्टी कानून बना. नए कानून के तहत पार्टियों को मिलने वाली सरकारी मदद में दो सीमाएं तय हैं. एक तो उन्हें अपने प्रयासों से हुई आमदनी से ज्यादा मदद नहीं मिल सकती. दूसरे सरकार द्वारा अनुदान के लिए बांटी जाने वाली राशि भी तय है. यह 1994 में तय राशि के आधार पर है लेकिन उसमें महंगाई दर के हिसाब से हर साल बढ़ोत्तरी की जाती है. 2017 में यह राशि बढ़कर 16.2 करोड़ यूरो हो गई है.

भले ही जर्मनी में पार्टियों की सरकारी मदद को आदर्श माना जाता हो, लेकिन विवाद के मुद्दे अभी भी हैं. मसलन उद्यमों द्वारा दिए जाने वाले चंदे को सार्वजनिक करने की न्यूनतम राशि कम करने और पार्टियों के आमद खर्च पर हर पांच साल पर एक सरकारी रिपोर्ट जारी करने का मुद्दा. तब पार्टियों से जुड़ी युवा, महिला और आर्थिक ईकाईयों के अलावा अन्य संस्थाएं भी इसके दायरे में आ जाएंगी. संविधान ने जर्मनी में पार्टियों को लोगों के बीच राजनीतिक विचार बनाने की जिम्मेदारी दी है. इसलिए पार्टियों के अलावा उनसे जुड़े प्रतिष्ठानों को भी वित्तीय मदद दी जाती है. संसद में उपस्थित सभी छह पार्टियों के अपने फाउंडेशन हैं जो शोध के अलावा वैचारिक प्रचार का काम करती हैं और छात्रों को स्कॉलरशिप भी देती है. एसपीडी की नजदीकी फ्रीडरिष एबर्ट फाउंडेशन को 2017 में 2.17 करोड़ यूरो मिले जबकि चांसलर अंगेला मैर्केल की सीडीयू की करीबी कोनराड आडेनावर फाउंडेशन को 2.16 करोड़ यूरो. एफडीपी की करीबी फ्रीडरिष नाउमन फाउंडेशन को 73 लाख यूरो तो ग्रीन पार्टी की करीबी हाइनरिष बोएल फाउंडेशन को 75 लाख यूरो और बवेरिया की सीएसयू पार्टी की करीबी हंस जाइडेल फाउंडेशन को 71 लाख यूरो.  वामपंथी पार्टी डी लिंके की करीबी रोजा लक्जेमबर्ग फाउंडेशन को 69.75 लाख यूरो मिले.  इस बीच संसद में सात पार्टियां हैं जिनमें धुर दक्षिणपंथी एएफडी भी शामिल हो गई है.

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महेश झा सीनियर एडिटर