जाति से ऊपर क्यों नहीं उठ रही बिहार की राजनीति
८ सितम्बर २०२०दावे-प्रतिदावे जो भी किए जाएं, इतना तो साफ है कि अक्टूबर-नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी राजनीति अन्य मुद्दों की बजाय जाति के इर्द-गिर्द ही घूमती रहेगी. वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1995 के तहत गठित राज्यस्तरीय सतर्कता और मॉनीटरिंग कमिटी की बैठक के दौरान कई अहम फैसले लिए गए. चुनाव के ऐन मौके पर अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) के पक्ष में एक निर्णय लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातीय आंकड़ों पर आधारित बिहार की राजनीति को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की है. उन्होंने एससी-एसटी परिवार के किसी सदस्य की हत्या होने पर पीड़ित परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी देने के प्रावधान के लिए तत्काल नियम बनाने का निर्देश दिया. इसके साथ ही इस वर्ग से संबंधित लंबित सभी कांडों का निपटारा 20 सितंबर तक करने, जो अधिकारी इन मामलों के निष्पादन में कोताही बरत रहे उनके खिलाफ कार्रवाई करने तथा इनके लिए चलाई जा रहीं योजनाओं का लाभ शीघ्र-अतिशीघ्र दिलाने तथा इसके अतिरिक्त अन्य योजनाओं व संभावनाओं पर भी विचार करने का निर्देश भी समीक्षा बैठक के दौरान जारी किया गया. मुख्यमंत्री का यह भी कहना था, "उनके लिए जो कुछ करने की जरूरत होगी, वह सब किया जाएगा. इन लोगों के उत्थान से ही समाज का उत्थान हो सकेगा."
राजनीति के जानकार इसे नीतीश का मास्टर स्ट्रोक की संज्ञा दे रहे हैं. मुख्यमंत्री ने इन फैसलों के माध्यम से एससी-एसटी वर्ग को यह बताने की कोशिश की है कि राज्य सरकार उनके हितों की रक्षा के लिए दृढ़संकल्प है. ये निर्देश उस वोट बैंक को ध्यान में रखकर जारी किए गए जिनका साथ पाने को हर पार्टी लालायित रहती है. आखिर लोकतंत्र में आंकड़ों का बड़ा महत्व तो है ही. 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में 16 फीसद आबादी दलितों की है. इनमें करीब पांच से छह फीसद मुसहर, चार से पांच प्रतिशत रविदास, तीन से चार प्रतिशत पासवान और शेष गोड़, धोबी, पासी व अन्य जातियों के लोग हैं. जाहिर है, 2020 में इन सबों की जनसंख्या में खासी वृद्धि हुई होगी जिनसे इनकी भागीदारी में जर्बदस्त इजाफा ही हुआ होगा. नीतीश ने इससे पहले दलितों में महादलित नामक श्रेणी बनाकर भी वोट बैंक का पुख्ता इंतजाम करने की कोशिश की थी. 2005 में 21 जातियों को महादलित घोषित कर दिया गया था हालांकि 2018 में पासवान को भी महादलित घोषित कर दिया गया. बिहार में अब दलित के बजाय महादलित ही रह गए हैं. पुराने आंकड़ों के अनुसार ही सही, इस 16 फीसद वोट को सुनिश्चित कर राज्य में सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन (भाजपा-जदयू-लोजपा) जीत की राह आसान करना चाहता है.
एक-दूसरे पर हमलावर हुईं पार्टियां
नीतीश सरकार के इस दलित कार्ड पर हंगामा तो होना ही था. पक्ष-विपक्ष के तरकश में बाणों के तीर सज गए. विपक्षी महागठबंधन के प्रमुख घटक राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने इस घोषणा को गलत ठहराते हुए कहा, "आदिवासियों, पिछड़ों-अतिपिछड़ों व सवर्णों की हत्या पर उनके परिवार के सदस्य को क्यों नहीं नौकरी मिलनी चाहिए. क्या सवर्णों के जान की कोई कीमत नहीं है. ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि हत्या नहीं हो, न कि इसके प्रोमोशन का कानून बनाया जाना चाहिए. इससे तो हत्या की प्रवृति को बढ़ावा मिलेगा." वहीं कांग्रेस के बिहार प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल इसे राजनीतिक जुमलेबाजी करार देते हुए कहते हैं, "अगर एस-एसटी को लेकर इतनी ही चिंता थी तो सत्ता में आते ही इनके पक्ष में कदम क्यों नहीं उठाया. यह फैसला तो डिवाइड एंड रूल की पॉलिसी है." यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती ने ट्वीट कर इस फैसले की आलोचना की है. उन्होंने कहा है, "अपने पूरे शासन काल में इस वर्ग की उपेक्षा की गई और अब चुनाव के ठीक पहले एस-एसटी वर्ग के लोगों को लुभाने की कोशिश की जा रही है. अगर इतनी ही चिंता थी तो अब तक सरकार क्यों सोती रही." एनडीए के एक घटक लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने भी नीतीश के फैसले पर एतराज जताया है. पार्टी प्रमुख व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान ने मुख्यमंत्री को इस संबंध में नसीहतों भरा पत्र लिखा है. बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की तर्ज पर चिराग ने भी इसे चुनावी घोषणा करार दिया है. एससी-एसटी के कल्याण से संबंधित पूर्व में जारी योजनाओं पर शीघ्र अमल करने की नसीहत के साथ चिराग ने कहा है कि यह कोशिश किए जाने की जरूरत है कि किसी वर्ग के व्यक्ति की हत्या ही न हो, चाहे इसके लिए कितने भी कठोर कदम क्यों न उठाने पड़े.
विपक्ष के विरोध करते ही सत्तारूढ़ एनडीए ने भी मोर्चा खोल दिया. तेजस्वी के सवर्ण प्रेम पर निशाना साधते हुए जदयू के प्रधान महासचिव केसी त्यागी कहते हैं, "लोकसभा चुनाव के दौरान सवर्ण आरक्षण का विरोध करने वाले तेजस्वी परिपक्वता के अभाव में ऐसा बयान दे रहे हैं. इनके ही माता-पिता के शासन काल में भूराबाल (भूमिहार,राजपूत, ब्राह्मण व कायस्थ) को साफ करने को कहा गया था. अब ये अपने पिता के पुरखों की विरासत से छेड़छाड़ करने में लगे हैं." वहीं भाजपा एमएलसी नवल किशोर यादव का कहना था, "जिनके राज में दलितों का सबसे ज्यादा संहार हुआ वह दलित हित की बात कैसे सोचेगा." हाल ही में विपक्षी महागठबंधन को छोड़ एनडीए में शामिल हुए पूर्व मुख्यमंत्री व हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) प्रमुख जीतन राम मांझी ने नौकरी वाले फैसले का विरोध करने वालों को आड़े हाथों लेते हुए कहा, "इस एक्ट को केंद्र सरकार ने दशकों पहले बनाया था परंतु लालू यादव ने उसे लागू नहीं होने दिया. लालू परिवार नहीं चाहता है किसी भी हालत में कचरा साफ करने वाला, टॉयलेट धोने वाला सरकारी नौकरी करे. जो इस फैसले का विरोध कर रहे, वे पहले 1989 के एक्ट का अध्ययन कर लें." जानकार बताते हैं कि मांझी के इतने मुखर होने का कारण कुछ और है. एनडीए में रहते हुए लोजपा के कार्यकलापों से जदयू व भाजपा असहज है. इसलिए मांझी एनडीए में उसके दलित पार्टनर लोजपा से अपना कद बढ़ाने की जुगत में हैं.
विपक्ष पर निशाना तो राजद के तेजस्वी
दरअसल जब भी विपक्ष को साधना होता है तब तेजस्वी सीधे सबके निशाने पर आ जाते हैं. हालांकि, तेजस्वी अपने पिता लालू प्रसाद की छवि के दायरे से बाहर निकलने की जद्दोजहद में भी हैं. पिछले चुनावों से वे सबक ले चुके हैं. उन्होंने तो अपने पिता के पंद्रह सालों के कार्यकाल के लिए बकायदा माफी भी मांग ली है. इस बार उन्होंने बेरोजगारी के मुद्दे को उठाया है. एक वेबसाइट लांच करते हुए उन्होंने राजद की सरकार बनने पर सबको रोजगार का वादा किया है. बाढ़ के दौरान अपनी विभिन्न यात्राओं में वे व्यवस्थागत समस्याओं की चर्चा करते रहे हैं, किंतु विरोधी उन्हें हमेशा लालू प्रसाद की करतूत और उनकी जातिगत राजनीति की याद दिलाकर ही घेरने की कोशिश करते हैं. पत्रकार राजीव शेखर कहते हैं, "तेजस्वी पर प्रहार लाजिमी है. उनके अलावा विपक्ष की अहमियत न के बराबर है. इधर वे बेहतर मुद्दे उठा रहे हैं. किंतु सत्तापक्ष लालू शासन की याद दिला जातियों के वैमनस्य को कम नहीं होने देना चाहता है. शायद यही वजह है कि तेजस्वी के उठाए मुद्दे गौण हो जाते हैं."
दरअसल, सच तो यह है कि बिहार में राजनीति को जाति से अलग कर सोचना ही बेमानी है. कांग्रेस व भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी को छोड़ प्रदेश में सक्रिय सभी क्षेत्रीय दल जाति की ही राजनीति करते हैं. उनका जनाधार एक जाति विशेष के बीच ही है भले ही तात्कालिक तौर पर इनका एलायंस हो जाता हो. सभी पार्टियों की कोशिश यही रहती है कि जाति विशेष का एकमुश्त वोट उन्हें हर हाल में मिल जाए. इसलिए फैसले भी उसी हिसाब से लिए जाते हैं. तभी तो नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर राजनीति शास्त्र के एक रिटायर्ड प्रोफेसर कहते हैं, "पहले भी पुलिस समेत अन्य विभागों में अनुकंपा पर नौकरी देने की परंपरा रही है. विशेष परिस्थिति में आर्थिक सहायता का प्रावधान है. किंतु इस नौकरी की शर्त विचित्र है. हत्या को नौकरी से जोड़ना तुष्टिकरण के अलावा और कुछ भी नहीं है. ऐसे नाजुक व दूरगामी प्रभाव वाले फैसले लेने से परहेज करना चाहिए." नीतीश कुमार का यह चुनावी स्ट्रोक वोट में किस हद तक हकीकत में तब्दील हो पाएगा, इसका पूर्वानुमान लगाना तो कठिन है किंतु इतना तो तय है कि ऐसे फैसले समाज को एक डोर में बांधते नहीं, विखंडित ही करते हैं.
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