ट्रंप राष्ट्रपति थे, तभी ऐसा हो पाया
२१ जनवरी २०२१डॉनल्ड ट्रंप के आलोचकों को उनसे सबसे बड़ी शियाकत यह रही कि वह सिस्टम वाले आदमी नहीं हैं. वह वैसे नहीं सोचते हैं, जैसे कोई अनुभवी राजनेता सोचता है. और बोलते वक्त तो शायद बिल्कुल नहीं. हमने देखा है कि वह कुछ भी बोल सकते हैं, जैसे कि अंजाम की परवाह ही नहीं है. यही वजह है कि दुनिया के जिन नेताओं से अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपति पूरे प्रोटोकॉल और नपे तुले अंदाज में मिलते और बात करते थे, ट्रंप उनसे अक्खड़पने से पेश आए. मिसाल के तौर पर जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल बीते चार साल में समझ ही नहीं पाईं कि ट्रंप से क्या बात करें, कैसे बात करें.
अमेरिकी राष्ट्रपति और उत्तर कोरिया
दूसरी तरफ उत्तर कोरिया के नेता की मिसाल है. ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से पहले तक यह कल्पना करना भी मुश्किल लगता था कि अमेरिका का कोई राष्ट्रपति उत्तर कोरिया के नेता से आमने-सामने बैठकर बात करेगा. बीते 70 साल में जिस तरह अमेरिका और उत्तर कोरिया ने एक दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं गंवाया है, उसे देखते हुए तो यह असंभव ही लगता था. लेकिन ट्रंप ने इसे संभव बनाया. जून 2018 में सिंगापुर में पहली बार अमेरिका और उत्तर कोरिया के नेताओं की शिखर बैठक हुई. अलबत्ता इसके बाद भी दोनों देशों के रिश्तों में किसी बड़े बदलाव ने करवट नहीं ली, लेकिन ट्रंप ने यह दिखा दिया कि कुछ भी असंभव नहीं है.
ट्रंप ने बतौर राष्ट्रपति अपने चार साल के कार्यकाल में कोई नई जंग नहीं छेड़ी. लेकिन चीन के साथ कारोबारी जंग छेड़ने के लिए ट्रंप को जरूर याद किया जाएगा. इस टकराव में ट्रंप इतना आगे निकल गए कि वहां से कदम पीछे हटाना बाइडेन प्रशासन के लिए आसान नहीं होगा. निश्चित तौर पर जंग में नुकसान दोनों ही पक्षों को उठाना पड़ता है. जिस आक्रामक तरीके से चीन विश्व मंच पर अपना असर और रसूख बढ़ाने में जुटा है, ट्रंप ने भी लगभग उसी लहजे में उसे टक्कर दी.
इस बात का श्रेय तो ट्रंप को देना होगा कि उन्होंने चीन से निपटने के तौर-तरीके तय कर दिए हैं. ट्रंप जैसे अक्खड़ रवैये के लिए कूटनीति में कम ही जगह है, लेकिन इस खेल में चीन के रवैये से भी साफ है कि वह अमेरिका के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. चीन दुनिया की नई महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा रखता है. यह बात अमेरिका को भला कैसे मंजूर होगी. दुनिया की अकेली महाशक्ति होने का रुतबा वह किसी से साझा नहीं करना चाहेगा.
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ट्वीट से तय होती थी अमेरिकी रणनीति
दक्षिण एशिया के लिए ट्रंप ने अपनी रणनीति सिर्फ एक ट्वीट से तय कर दी थी. साल 2018 के अपने पहले ट्वीट में उन्होंने पाकिस्तान के लिए जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया, उसकी उम्मीद किसी राष्ट्रपति से नहीं होती. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान ने बीते 15 सालों में अमेरिका को बेवकूफ बनाने के सिवाय कुछ नहीं किया है. ट्रंप ने कहा कि पाकिस्तान ने अमेरिका से 33 अरब डॉलर भी ले लिए और आतंकवादियों को सुरक्षित पनाह भी देता रहा. लेकिन अब ऐसा नहीं होगा.
जिस पाकिस्तान को अमेरिका सालों से "आतंकवाद के खिलाफ जंग में अहम साथी" बताता रहा, ट्रंप ने एक पल में उसकी छवि को तार तार कर दिया. भारत के लिए तो यह ट्वीट कानों में पड़ने वाले मधुर संगीत की तरह था. यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ट्रंप जितने सहज दिखते थे, उतने सहज वह कम ही लोगों के साथ दिखते हैं. इस दोस्ती को दिखाने में दोनों नेताओं ने कसर भी नहीं छोड़ी.
ट्रंप की विदेश नीति को एक और बात के लिए याद रखा जाएगा. अरब दुनिया में इस्राएल की स्वीकार्यता बढ़ाने में वह कामयाब रहे. उनके राष्ट्रपति रहते एक के बाद एक कई अरब देशों ने इस्राएल के साथ राजनयिक संबंध कायम करने का ऐलान किया. ट्रंप इस्राएल में अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से येरुशलम ले गए. इसकी मुस्लिम दुनिया में खूब आलोचना हुई, लेकिन ट्रंप को भला किसकी परवाह थी. यह सब ईरान के इर्द-गिर्द घेरा कसने की उनकी रणनीति का हिस्सा था और वह इसमें काफी हद तक कामयाब भी रहे.
अमेरिका और पश्चिमी देशों की सरकारों ने बरसों की मशक्कत के बाद ईरान के साथ जिस परमाणु डील को साकार किया था, उससे निकलने का फैसला ट्रंप ने एक झटके में कर लिया. अब बाइडेन प्रशासन पर ईरानी डील में वापस लौटने का दबाव है. लेकिन इससे पहले बहुत नफा नुकसान का हिसाब लगाना होगा.
निश्चित तौर पर ट्रंप की विरासत में बहुत कुछ ऐसा है जिसे दुरुस्त करने की जरूरत है. बाइडेन से सबसे ज्यादा उम्मीद तो यही है कि वह कुछ करें या ना करें लेकिन जो "गड़बड़ियां" ट्रंप ने की हैं बस उन्हें ठीक कर दें. बेशक ट्रंप के चार साल बहुत हंगामे भरे रहे. उन्होंने जो किया अपने अंदाज में किया. अच्छा किया या बुरा किया, इसका मूल्यांकन जरूर होगा. लेकिन इसके साथ ही ट्रंप के उन "मास्टरस्ट्रोक" कदमों का जिक्र भी होगा, जिन्होंने लीक को तोड़ा.
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