योगी सरकार ने कैसी की सत्ता में वापसी?
११ मार्च २०२२उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. बीजेपी ने चार राज्यों में वापसी की है जबकि पंजाब में कांग्रेस पार्टी को करारी मात देते हुए आम आदमी पार्टी ने जीत हासिल की है. यूपी और पंजाब की चर्चा खासतौर पर हो रही है.
यूपी में 1985 के बाद पहली बार किसी सत्तारूढ़ दल की वापसी हुई है, वो भी पूर्ण बहुमत के साथ. योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने 255 सीटें हासिल करके ये कीर्तिमान बनाया है. बीजेपी के सहयोगियों को भी इस चुनाव में 18 सीटें हासिल हुई हैं जबकि योगी सरकार के खिलाफ लगभग इकतरफा मुकाबले की पृष्ठभूमि तैयार करने वाली समाजवादी पार्टी को महज 111 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा. सपा के साथ चुनाव लड़ने वाली आरएलडी को 8 सीटें जबकि ओम प्रकाश राजभर की पार्टी को छह सीटें ही मिल सकी हैं.
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कांग्रेस और बीएसपी का सफाया
इन परिणामों के अलावा जो चौंकाने वाले परिणाम हैं वो दो अन्य केंद्रीय पार्टियों बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस पार्टी के प्रदर्शन रहे. 403 सदस्यीय विधानसभा में बीएसपी को सिर्फ एक सीट और कांग्रेस पार्टी को दो सीटें ही मिल सकीं. बीएसपी का वोट शेयर तो 13 फीसदी के आस-पास जरूर बना रह गया लेकिन कांग्रेस पार्टी का वोट 2.33 फीसदी पर सिमट कर रह गया.
पांच साल के कथित सत्ताविरोधी लहर, महंगाई, बेरोजगारी, आवारा पशुओं की समस्या, किसान आंदोलन का प्रभाव, चुनाव से पहले तमाम विधायकों और मंत्रियों के पार्टी छोड़ने जैसे कारणों के बावजूद बीजेपी की सत्ता में वापसी हैरान करने वाली है. मतदान के बाद कई चुनावी सर्वेक्षणों ने योगी सरकार की वापसी की उम्मीद जरूर जताई थी लेकिन कई सर्वेक्षण साफतौर पर समाजवादी पार्टी के गठबंधन वाली सरकार के बनने की घोषणा कर चुके थे. ऐसे में यह समझना बेहद जरूरी है कि आखिर वो कौन से कारण रहे जिनकी वजह से विपक्ष तमाम कोशिशों के बावजूद मतदाताओं को सरकार के खिलाफ करने में सफल नहीं रहा.
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रणनीतिक रूप से बीजेपी आगे
इस सवाल का सबसे प्रमुख जवाब तो यही है कि बीजेपी रणनीतिक स्तर पर अपने विरोधियों की तुलना में कहीं आगे है. इतना आगे कि पहले तो वो विपक्षी दलों को अपने ही बिछाए जाल में उलझाए रखती है और यदि विपक्षी दल कोई नई चाल चलने की कोशिश भी करते हैं तो बीजेपी के पास उसकी काट मौजूद रहती है.
यदि यूपी चुनाव की ही बात करें तो बीजेपी ने कई मोर्चों पर एक साथ काम किया. अपने पांच साल के शासन काल के दौरान कानून-व्यवस्था की बेहतरी को ना सिर्फ बेहतर तरीके से प्रचारित किया बल्कि पिछली सरकार से उसकी तुलना भी जमकर की और आम जन को यह भय दिखाने में कामयाब रही कि यदि सपा गठबंधन की सरकार वापसी करती है तो कानून-व्यवस्था फिर से वैसी ही हो जाएगी.
वरिष्ठ पत्रकार अनिल चौधरी कहते हैं, "बीजेपी के इस अभियान का पश्चिमी यूपी में भी खूब असर हुआ और जो जाट किसान आंदोलन के कारण बीजेपी के खिलाफ चले गए थे, वो भी कानून व्यवस्था के नाम पर आखिरकार लौट आए. कानून-व्यवस्था को धार्मिक ध्रुवीकरण के नजरिए से भी बीजेपी ने प्रचारित किया और उसका लाभ उठाने में वो कामयाब रही.”
पार्टी छोड़ने वाले नाकाम
स्वामी प्रसाद मौर्य समेत कई पिछड़ी जाति के नेताओं के पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी में जाने से होने वाले नुकसान का अंदाजा बीजेपी को जरूर था लेकिन उसे इस बात का भी भरोसा था कि उन जातियों को वो पार्टी से इतना जोड़ चुकी है कि उनके नेताओं के बाहर चले जाने से बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ेगा. और ऐसा हुआ भी. हां, यह जरूर है कि इसके बाद बीजेपी ने दूसरे नेताओं को जाने से रोक लिया और जो नेता पार्टी छोड़कर गए उनके बारे में यह प्रचारित करने में कामयाब रही कि ये व्यक्तिगत स्वार्थों की वजह से गए हैं. दिलचस्प बात यह है कि स्वामी प्रसाद मौर्य और धर्मपाल सैनी समेत कई ऐसे नेता चुनाव भी हार गए.
समाजवादी पार्टी ने जब पुरानी पेंशन योजना की बहाली की घोषणा की तो सरकारी कर्मचारियों का उसकी ओर जबर्दस्त रुझान देखने को मिला. इस दौरान दो चरण के चुनाव निपट चुके थे. लेकिन बीजेपी के रणनीतिकारों ने इसी दौरान ‘लाभार्थी' नाम का एक नया नैरेटिव शुरू किया और फिर धीरे-धीरे इसी की चर्चा जोर पकड़ने लगी. सरकारी योजनाओं का लाभ लेने वालों ने बीजेपी को ही वोट दिया होगा, यह जरूरी नहीं लेकिन पुरानी पेंशन योजना के लाभार्थियों की काट के तौर पर यह नैरेटिव चल पड़ा और सफल रहा. इस नैरेटिव में युवाओं, छात्रों और बेरोजगारों की नाराजगी भी धुंआ हो गई.
सोशल इंजीनियरिंग
बीजेपी चुनाव से पहले ही रणनीति तैयार कर लेती है और इस बार भी उसने ऐसा ही किया. उसकी सोशल इंजीनियरिंग में सेंध जरूर लगी लेकिन निषाद पार्टी और अनुप्रिया पटेल के अपना दल को अपने साथ रखकर उसने इस सेंध के असर को काफी कम कर दिया. रही-सही कसर राम मंदिर जैसे धार्मिक मुद्दों को उछालकर और इन सबका श्रेय लेकर उसने पूरी कर दी.
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि बहुजन समाज पार्टी की निष्क्रियता भी बीजेपी को जीत दिलाने में मददगार साबित हुई. उनके मुताबिक, "हिन्दुओं को एक झंडे के नीचे लाने मे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी यूपी में बड़ी बाधा थीं. दलितों की पार्टी यानी बीएसपी को बीजेपी ने लगभग खत्म कर दिया. हालांकि 13 फीसद वोट उसे इस बार भी मिले हैं लेकिन अब आगे भी ये मतदाता बीएसपी पर भरोसा जताएंगे, इसमें संशय है. बीएसपी के जो वोट घटे हैं वो बीजेपी की ओर ही गए हैं. मायावती का लगभग निष्क्रिय होकर चुनाव लड़ना बीजेपी के फायदे में गया क्योंकि इससे उन्हें जो दलितों के अलावा अन्य समुदायों के वोट मिलते थे, वो नहीं मिले. उनमें से ज्यादातर वोट बीजेपी के पक्ष में गए.”
बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन कुछ हद तक ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने भी इस मामले में बीजेपी की मदद की इससे अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ वोट्स सपा के कटे. बीएसपी ने भी कई सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे और जाहिर है कि उन्होंने भी कुछ हद तक सपा गठबंधन का नुकसान करते हुए बीजेपी को फायदा पहुंचाया.
समाजवादी पार्टी से कांटे की टक्कर
बीजेपी और सपा गठबंधन के बीच कांटे की लड़ाई का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि कई ऐसी सीटें रहीं जहां हार-जीत का अंतर बहुत ही कम वोटों से तय हुआ. 11 सीटों पर तो यह अंतर 500 से भी कम वोटों का रहा और करीब 15 सीटें ऐसी हैं जहां पर यह अंतर एक हजार से कम रहा.
बिजनौर जिले की धामपुर सीट पर बीजेपी के अशोक कुमार राणा महज 203 वोट से जीते और उन्होंने सपा के नईमुल हसन को हराया जबकि बाराबंकी जिले की कुर्सी सीट पर बीजेपी के सकेंद्र प्रताप महज 217 वोट से जीत सके. उन्होंने पूर्व केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा के बेटे और सपा उम्मीदवार राकेश वर्मा को शिकस्त दी. इस चुनाव में छह सीटों पर जीत हार का अंतर दो सौ से तीन सौ के बीच रहा.
यूपी चुनाव में कुल छह उम्मीदवार तीन सौ से कम अंतर से जीते जिनमें तीन बीजेपी के और तीन सपा के थे. बिजनौर जिले की ही चांदपुर सीट से सपा के स्वामी ओमवेश ने बीजेपी के कमलेश सैनी को 234 वोट से हराया. वहीं, बाराबंकी जिले की रामनगर सीट से सपा के फरीद महफूज किदवई ने मौजूदा विधायक और बीजेपी उम्मीदवार शरद अवस्थी को 261 वोट से हराया.
चुनाव से ठीक पहले बीजेपी छोड़कर सपा में शामिल होने वाले पूर्व मंत्री धर्म सिंह सैनी भी बीजेपी के मुकेश चौधरी से 315 वोट से हार गए. जबकि धर्म सिंह सैनी लगातार चार बार से चुनाव जीत रहे थे. योगी सरकार में राज्य मंत्री बलदेव सिंह औलख बिलासपुर सीट से 269 वोट से जीतने में सफल रहे. उन्होंने सपा के अमरजीत सिंह को हराया.
भविष्य के संकेत
बीएसपी ने बीजेपी को फायदा पहुंचाया हो या न पहुंचाया हो लेकिन बीएसपी की राजनीति अब संकट के गंभीर दौर में पहुंच चुकी है. बीएसपी का मूल मतदाता यानी कोर वोटर्स का एक हिस्सा तो 2014 से ही बीजेपी की ओर जाने लगा था लेकिन इन सबके बावजूद उसका 20 फीसदी वोट शेयर बना हुआ था. ऐसा पहली बार हुआ है कि वोट शेयर इतना नीचे आया है. वहीं कांग्रेस की स्थिति भी बद से बदतर होती गई है और इस बार के चुनाव में तो उसकी हालत यहां तक पहुंच गई है जहां से उबर पाना संभव नही दिख रहा है.
यह कहना जल्दबाजी होगी लेकिन पंजाब में जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने प्रदर्शन किया है और इस बार यूपी-उत्तराखंड में भी उसने चुनाव में हाथ आजमाए हैं, वह यूपी में भी अपने पैर तेजी से पसारेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है. जानकारों का कहना है कि दिल्ली में मुफ्त बिजली-पानी जैसी योजनाओं की वजह से आम आदमी पार्टी उस निम्न वर्ग के मतदाताओं में अपनी पैठ बना सकती है जो अब तक बहुजन समाज पार्टी को वोट करता था और धीरे-धीरे बीजेपी की ओर जाने लगा. आम आदमी पार्टी पिछले कुछ समय से यूपी में काफी सक्रिय है और पंजाब के चुनाव में मिली बड़ी सफलता इस दिशा में उसे जरूर संजीवनी देगी.