पुनिया की गिरफ्तारी से उठा प्रेस की आजादी का सवाल
१ फ़रवरी २०२१स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया को 14 दिन के लिए जेल भेजे जाने के बाद मीडिया की आजादी और पत्रकारों के दमन को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं. पुनिया के वकीलों ने सोमवार को अदालत में जमानत के लिए बहस की और मंगलवार को अदालत उनकी जमानत के बारे में अपना फैसला करेगी.
मनदीप के वकील सारिम नवेद ने डीडब्ल्यू को बताया, "पुलिस की एफआईआर में कई गंभीर समस्याएं हैं. हमने अदालत को इस बारे में बताया है. एफआईआर के मुताबिक कथित मारपीट और खींचतान शनिवार शाम 6.40 पर हुई और एफआईआर देर रात करीब 7 घंटे बाद लिखी गई है. इससे पता चलता है कि जब उन्हें (मनदीप को) ढूंढा जा रहा था तब पुलिस ने एफआईआर लिखने का फैसला किया. दो आम लोगों के बीच झगड़े में तो एफआईआर में देरी समझी जा सकती है लेकिन अगर एक पुलिसवाले पर हमला किया गया है तो पुलिस ही एफआईआर दर्ज करने में इतनी देर क्यों लगाएगी.”
क्या है मामला
पुलिस के मुताबिक सिंघु बॉर्डर पर शनिवार शाम को पुनिया ने सुरक्षा के लिए लगाए बैरिकेड को तोड़कर घुसने की कोशिश की और पुलिस कांस्टेबल को घसीटा. सिंघु बॉर्डर पर पिछले दो महीनों से अधिक वक्त से किसान कृषि से जुड़े तीन बिलों को वापस लेने की मांग के साथ बैठे हैं. पुलिस का कहना है कि मनदीप ने अपना प्रेस पहचान पत्र भी नहीं दिखाया जबकि उनके दूसरे साथी को प्रेस कार्ड दिखाने पर जाने दिया गया लेकिन मनदीप के वकीलों का कहना है कि प्रेसकार्ड न होना मनदीप की गिरफ्तारी का कोई आधार नहीं है. पुलिस ने सरकारी काम में बाधा डालने और सरकारी कर्मचारी पर हमले का मुकदमा दर्ज किया है.
मनदीप पुनिया कारवां मैगजीन के लिए काम कर रहे स्वतंत्र पत्रकार हैं. हरियाणा के झज्जर के रहने वाले मनदीप पुनिया ने पंजाब विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और फिर दिल्ली स्थित भारतीय जन संचार संस्थान से पत्रकारिता का कोर्स किया है. कारवां की वेबसाइट देखने पर पता चलता है कि साल 2019 से उनकी रिपोर्ट छप रही हैं. पुनिया की पत्नी लीलाश्री ने कहा, "ये हमारे लिए ही नहीं बल्कि सब लोगों कि लिए, समाज के लिए और पूरे देश के लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी को पुलिस इसलिए उठा ले रही है कि वह सिर्फ अपना काम कर रहा है.”
फ्रीलांस पत्रकारों पर दबाव
मनदीप पुनिया की गिरफ्तारी के बाद फ्रीलांस यानी स्वतंत्र पत्रकारों की सुरक्षा का सवाल एक बार फिर से खड़ा हो गया है. वैसे भारत के कश्मीर, उत्तर-पूर्व और बस्तर जैसे इलाकों में खबर लाने का जिम्मा अक्सर स्थानीय पत्रकारों पर होता है और कई बार उनकी बहुत महत्वपूर्ण जानकारी के आधार पर लिखी गई रिपोर्ट्स के लिए उन्हें कोई पारिश्रमिक भी नहीं दिया जाता. दूर दराज के इलाकों में ऐसे "स्ट्रिंगर” कह दिए जाने वाले पत्रकारों के पास किसी "प्रेस पहचान पत्र” की ढाल नहीं होती और उन्हें पुलिस प्रशासन के कोपभाजन का शिकार बनना पड़ता है.
पिछले करीब 10 सालों से स्वतंत्र पत्रकारिता कर रही और कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ जर्नलिस्ट का प्रेस फ्रीडम अवॉर्ड पा चुकीं पत्रकार नेहा दीक्षित कहती हैं, "मैं देश दुनिया के तमाम मीडिया पोर्टल पर लिख रही हूं लेकिन मेरे पास कभी कोई पहचान पत्र नहीं रहा. ये काफी दिक्कत की बात है. इसकी जिम्मेदारी उन मीडिया आउटलेट्स की भी है जो हम पत्रकारों से रिपोर्टिंग करवाते हैं. हमारे देश में मीडिया में कॉरपोरेट घरानों के बढ़ने के साथ ही देश के कई हिस्सों में मुख्य धारा के मीडिया संस्थानों ने अपने ब्यूरो बंद कर दिए हैं और स्थानीय पत्रकारों से ही काम चला रहे हैं. इन पत्रकारों को न तो कोई अनुबंध दिया जाता है और न कोई पहचान पत्र. उल्टे इन्हें "स्ट्रिंगर” कहा जाता है या जब विदेशी पत्रकार आते हैं तो वो भी इन स्थानीय स्वतंत्र पत्रकारों की मदद तो लेते हैं लेकिन उन्हें "फिक्सर” कहते हैं. ये दोनों ही शब्द बहुत अपमानजनक हैं. जब मुश्किल आती है तो इन पत्रकारों से संस्थान अपना पल्ला भी झाड़ लेते हैं और इन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं.”
सोशल मीडिया अकाउंट्स पर रोक
ट्वीटर ने सोमवार को कारवां मैगजीन के साथ-साथ किसान आंदोलन से जुड़े कुछ अकाउंट्स पर अस्थाई रोक लगा दी है. इससे पहले 26 जनवरी को किसानों की ट्रैक्टर रैली के बाद कारवां के संपादक विनोद जोस और पांच अन्य पत्रकारों के खिलाफ नोयडा पुलिस ने राजद्रोह का मामला दर्ज किया. एडिटर्स गिल्ड ने शुक्रवार को इसकी निन्दा की और बयान में इस एफआईआर को मीडिया को "धमकाने, प्रताड़ित करने और गला घोंटने” की कोशिश बताया. ये प्रतिबंध सरकार के निर्देश पर लगाया गया है. एक सरकारी सूत्र ने समाचार एजेंसी एएफपी को कहा कि सरकार ने 250 ट्विटर अकाउंट को बंद करने का निर्देश दिया है जो पब्लिक ऑर्डर के लिए गंभीर खतरा हैं. किसानों के एक प्रवक्ता ने कहा है कि उनके खातों से लंबे समय से चले आ रहे विरोध का समर्थन करने के अलावा कोई गलत काम नहीं किया गया है.
पत्रकारों की सुरक्षा के लिए संघर्ष करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने खातों को बंद किए जाने की निंदा की है और उसे घोर सेंसरशिप का चौंकानेवाला मामला बताया है. कारवां के राजनीतिक संपादक हरतोष बल ने सोमवार को ट्वीट कर कहा कि "मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में कारवां के स्टाफर्स पर हमले हुए हैं, (कारवां के लिए लिखने वाले) पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया है, हमारे संपादकों/मालिकों पर मुकदमे हो रहे हैं, लेकिन हम इसका सामना करते रहेंगे और रिपोर्टिंग करते रहेंगे.”
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