बेटियों से छुटकारा
१५ अक्टूबर २०१३आप पूछेंगे, भारत का नाम क्यों नहीं था. आप ये भी सोचेंगे, आखिर तारीखों और अंकों की याद ही क्यों दिलाई जा रही है. ये मामला तो समाचार की दुनिया में पुराना हो चला. लेकिन हम जरा तारीख में और पीछे जाना चाहते हैं. 19वीं सदी में, 241 साल पहले जब राजा राममोहन राय पैदा हुए थे और 189 साल पहले जब दयानंद सरस्वती आए थे. ये दोनों उस सदी के बड़े समाज सुधारक थे और इनके एजेंडे में तत्कालीन भारत महादेश से सामाजिक बुराइयों को मिटाने का लक्ष्य भी था जिनमें बाल विवाह भी था.
दो ढाई सदी पहले इस देश में जो काम समाज में क्रांतिकारी चेतना के साथ किया जा चुका, उसके बारे में एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर जब एक प्रस्ताव आया तो भारत का नाम उन 107 देशों की सूची में नहीं था जो प्रस्ताव के प्रायोजक और अनुमोदक थे और उस पर हस्ताक्षर करने वाले थे. भारत आखिर कहां गया. क्या वहां बैठे हमारे प्रतिनिधि उस बैठक में जाना भूल गए थे. कैसी हैरानी, 19वीं सदी के समाज सुधारों को जब ये देश और उसका समाज भूल सकता है तो ये बैठक तो एक औपचारिक और टाइमपास आयोजन ही रहा होगा. वहां हम क्या करेंगे.
अब एक दूसरे दृश्य की ओर जाते हैं. 21वीं सदी के दूसरे दशक में भारत में घनघोर होते मास मीडिया के बीच उसमें आ रहे कंटेंट को देखिए. स्त्री विरोधी और इसलिए मनुष्य विरोधी कंटेंट तो प्रकट अप्रकट भरपूर है, अब उन मूल्यों की भी जैसी रक्षा की जाती जान पड़ता है जिन्हें मिटाने के लिए 19वीं सदी में कुछ लोग सड़कों पर उतरे थे और समाज से निकले थे. आज मास मीडिया के एक अतिप्रतापी मंच यानी टीवी में क्या देखते हैं- हम देखते हैं बालिका वधु. ये एक चैनल पर आने वाला एक धारावाहिक है जो हमारे मूल्यों का एक प्रतिनिधि विद्रूप कहा जा सकता है. दुनिया के छह करोड़ बाल विवाहों में से दो करोड़ चालीस लाख विवाह भारत में होते हैं यानी करीब चालीस फीसदी और दुनिया में सबसे अधिक संख्या यही है. दक्षिण एशिया के दूसरे देश और अफ्रीकी देशों का नंबर उसके बाद है.
यहीं से वो दास्तान असल में शुरू होती है जिसकी परिणति हम स्त्रियों के खिलाफ कई तरह की हिंसा और बर्बरता में देखते हैं. देखते हैं लेकिन कुछ नहीं करते हैं. बेशक बालिका वधु नाम का ड्रामा चाव से देखते हैं. आखिर भारत इस पूरी बहस से बाहर क्यों था. 27 सितंबर 2013 को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की 24वीं बैठक के एजेंडा नंबर तीन के अनुच्छेद 34 में दर्ज बच्चों के जल्दी और जबरन विवाह से जुड़े दो पेज के प्रस्ताव में भारत का नाम क्यों नहीं था. ये सवाल तो बनता है. और परेशानी भी पैदा करता है.
दुनिया में हर साल करीब एक करोड़ लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी जाती है. कई लड़कियां तो आठ साल तक की होती हैं. उन्हें अपनी उम्र से तीन चार पांच गुना उम्रदराज पुरुषों से ब्याह दिया जाता है. दक्षिण एशिया में ये संख्या 46 फीसदी है. अफ्रीका में 38, पश्चिम एशिया(मध्यपूर्व) में 18 और यूरोप और उत्तरी अमेरिका में भी कुछ मामले पाए गए हैं.
1929 में ब्रिटिश भारत में बाल विवाह विरोधी कानून लाया गया था. उस समय विवाह की वैध उम्र रखी गई थी 12 साल. 1978 में जाकर देश की आज़ादी के करीब 31 साल बाद उम्र की सीमा को बढ़ाकर 18 किया गया था. भारत सरकार की एक आधिकारिक और वृहद परियोजना है नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे. 1992-93 से शुरू हुई थी. तीन राउंड का सर्वे हो चुका है. 2005-2006 की एनएफएचएस की तीसरी रिपोर्ट के मुताबिक 18-29 वाली आयु सीमा में लगभग 46 फीसदी लड़कियां, 18 वर्ष की उम्र तक पहुंचने से पहले ब्याह दी जाती हैं. एनएफएचएस-1 में इसी एज ग्रुप का ये आंकड़ा 45 फीसदी था, दूसरे वाले सर्वे चक्र में 44 फीसदी. यानी प्रतिशत में कोई बदलाव तो दिखता ही नहीं है. इन सर्वे में बाल विवाह के खतरों और मानवाधिकारों की भी जोरदार वकालत है. पारदर्शी और चिंतापूर्ण तरीके से सच्चाई सामने रखी गई है, इसीलिए हैरानी होती है कि अंतरराष्ट्रीय पहल के मौके पर भारत अपनी चिंता से परहेज करता हुआ क्यों नजर आ रहा है. आज भी कुछ राज्यों में बाल विवाह की दर 50 फीसदी से भी ज्यादा है. ये राज्य हैं बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश.
जिस रफ्तार से कुप्रथा जारी है और लड़कियां सही और कानूनी उम्र से पहले ब्याही जा रही हैं उसे देखते हुए कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के आंकड़ें तो और चौंकाते हैं जिनके मुताबिक 2020 तक 13 करोड़ लड़कियों की शादी 18 साल से पहले हो चुकी होगी.
बाल विवाह से आप एक बच्ची पर क्या थोपते हैं, उसे किस जहन्नुम में फेंक देते हैं, ये दोहराने की यहां जरूरत नहीं. जन्म से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, रोजगार, तरक्की, बराबरी हर जगह उसे वंचित और खारिज कर दिया जाता हैं. बाल विवाह कानून के प्रति ही नहीं समाज और नैतिकता के प्रति भी अपराध है. ये लाइन लिखते हुए लगता है कोई क्लिशे लिख रहे हैं, या कोई जुमला या किसी नेता के भाषण की उधार ली हुई लाइन. ऐसा क्यों लगता है. हमने अपने समय की तकलीफों का कैसा मजाक बना दिया है और उनका सामान्यीकरण और सतहीकरण कर दिया है. वो जेनुइनिटी कहां गई. अपने व्यवहार से लेकर अपने मनोरंजन तक. हमें अब कोई यथार्थ न चौंकाता है न हिलाता है, डराएगा तो क्यों ही. कैसे मनुष्य हो गए हैं हम. किस बात के.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादनः एन रंजन