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मंथन में बॉलीवुड के रंग

२४ मई २०१३

हिन्दी सिनेमा ने एक शताब्दी का सफर पूरा कर लिया है. इन सौ सालों में जर्मन लोगों के बीच भी बॉलीवुड की लोकप्रियता बढ़ी है. मंथन में इस बार जर्मनी में बॉलीवुड पर होगी नजर. इसके अलावा डाउन सिंड्रोम पर ढेर सारी जानकारी.

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Sendungslogo TV-Magazin "Manthan" (Hindi)
तस्वीर: DW

भारत सहित पूरी दुनिया में हिन्दी सिनेमा यानी बॉलीवुड के 100 साल का जश्न मनाया जा रहा है. जर्मनी में भी इसको लेकर लोगों में उत्साह है. यह बात जान कर आपको ताज्जुब होगा कि जर्मनी में भारतीय फिल्म सितारे शाहरुख खान बेहद लोकप्रिय हैं और उनकी फिल्मों को जर्मन में अनुवाद करके टेलीविजन पर दिखाया जाता है.

Deutschland Stuttgart Film Festival Bollywood
तस्वीर: DW/I.Bhatia

डीडब्ल्यू की टीम ने जर्मनी के अलग अलग हिस्सों का दौरा किया, जहां लोग भारतीय संस्कृति और हिन्दी सिनेमा से किसी तरह जुड़े हैं. इसी क्रम में कोलोन में एक डांस क्लब का दौरा किया गया, जहां जर्मन युवतियां भारतीय गानों को खूबसूरती से पेश करती हैं. भारतीय खान पान और दुकानों का भी दौरा किया गया और बॉन यूनिवर्सिटी का भी, जहां हिन्दी पढ़ाई जाती है. इन सबके आधार पर एक खास रिपोर्ट इस बार के मंथन में पेश की गई है.

डाउन सिंड्रोम पर बहस

डाउन सिंड्रोम से प्रभावित बच्चे आम बच्चों से थोड़ा अलग दिखते हैं. कई लोग उन्हें मंदबुद्धि भी कह देते हैं. लेकिन इन बच्चों में भी हुनर की कमी नहीं होती. डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे लोगों को समाज के साथ मिलाने की कोशिश बरसों से हो रही है, लेकिन जर्मनी में इसके लिए कुछ खास पहल की गई है. बच्चों के लिए ऐसे किंडरगार्डेन बनाए जा रहे हैं, जहां ऐसे बच्चे सामान्य बच्चों के साथ खेल सकें, सीख सकें. इसी तरह उनके लिए खास ड्रामा स्कूल भी चलाया जा रहा है.

Brandenburgs Bildungsministerin besucht Schule
तस्वीर: picture-alliance/ZB

मंथन के इस अंक में इस मुद्दे पर खास रिपोर्ट तैयार की गई है. दुनिया में करीब 10 लाख बच्चे डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त हैं और उन्हें भी जीने का पूरा हक मिलना चाहिए. अगर जज्बा हो, तो उन्हें इस काम से कोई रोक भी नहीं सकता. जर्मनी में काम कर रहे भारतीय मूल के रिसर्चर गौरव अहूजा के साथ इसी मुद्दे पर खास चर्चा की गई है और उनसे जाना गया है कि किस तरह इन बच्चों के लिए बेहतर माहौल बनाया जा सकता है.

कांच के घर

कांच से बनने वाली इमारतें खूबसूरत तो बहुत लगती हैं लेकिन कई बार कांच टूटने से उनकी खूबसूरती जाती रहती है. इसके अलावा ताजा रिसर्च में पता चला है कि कांच से बनी इमारतों में प्रकाश की कई किरणें प्रवेश नहीं कर पाती हैं. अब प्लास्टिक से इसका उपाय निकाला गया है. बड़ी बड़ी इमारतों की छतें खास प्लास्टिक और शीशे से मिला कर बनाई जा रही हैं. इस मुद्दे पर प्रयोग के लिए जर्मनी में ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाया गया है, जहां उन पेड़ों को उगाया जा रहा है, जो आम तौर पर हिमालय और उसके आस पास ही उग सकते हैं.

Technologiepark Berlin-Adlershof Zentrum für Photonik und Optische Technologien
तस्वीर: picture-alliance/ZB

ऊर्जा को बचाने और ऊर्जा के नए नए स्रोतों पर मंथन में हम अक्सर आप तक जानकारी पहुंचाते हैं. इस अंक में भी इसका पूरा ध्यान रखा गया है. पूरी दुनिया दोबारा इस्तेमाल होने वाली अक्षत ऊर्जा की तलाश कर रही है. सौर और पवन ऊर्जा से यह काम होता दिख रहा है. लेकिन पवनचक्कियों से जितनी ऊर्जा निकलती है, उतने पूरे का इस्तेमाल नहीं हो पाता है. इस परेशानी से निपटने के लिए जर्मनी में नई तकनीक तैयार की जा रही है. इसकी मदद से पवन चक्कियों से निकल कर बर्बाद होने वाली अतिरिक्त ऊर्जा को गैस के रूप में संरक्षित किया जा सकता है.

इस सारी जानकारी को विस्तार से देखें मंथन के ताजा अंक में शनिवार सुबह 10.30 बजे डीडी-1 पर.

रिपोर्ट: अनवर जमाल अशरफ

संपादन: ईशा भाटिया

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