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मीडिया की ताकत किसके हाथों में

२७ मई २०१९

सोशल मीडिया के युग में परंपरागत मीडिया दबाव में है. बिक्री घट रही है, राजस्व कम हो रहा है. तो इस समय के अंतरराष्ट्रीय मीडिया लैंडस्केप में ताकत किसके पास है? बॉन में ग्लोबल मीडिया फोरम में यही बहस का मुद्दा था.

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Plenary Session: Who’s got the power in the media landscape? Part 1
तस्वीर: DW/P. Böll

फेसबुक, गूगल और यूट्यूब जैसे डिजिटल फ्लेटफार्मों ने वैश्विक मीडिया में सत्ता संतुलन बिगाड़ दिया है. उन्होंने दूसरों के कंटेंट की मदद से यूजरों और डाटा का ऐसा भंडार बना लिया है कि ये सत्ता संतुलन उनके ही फायदे में बदल गया है. स्थिति ऐसी हो गई है कि परंपरागत मीडिया का इस्तेमाल करने वाले चाहे रेडियो सुनने वाले हों, टीवी देखने वाले या अखबार पढ़ने वाले, वे सब डिजिटल प्लेटफार्मों पर ही कंटेंट देख सुन और पढ़ रहे हैं. नतीजा ये हुआ है कि लोग अखबार खरीद नहीं रहे, रेडियो और टेलिविजन पर निर्भर नहीं रहे. खासकर युवा लोग सारे वीडियो या तो फेसबुक पर देखते हैं या यूट्यूब पर.

Talk Mathias Döpfner (CEO Axel Springer) and Edith Kimani (Deutsche Welle)
मथियास डोएफ्नरतस्वीर: Frei verwendbar unter Angabe des Copyrights.

अपनी पहुंच बढ़ाने और प्रतिस्पर्धी बने रहने की कोशिश में लगे परंपरागत मीडिया घराने इस बीच डिजिटल मीडिया प्लेटफार्मों पर निर्भर होते जा रहे हैं. सत्ता संतुलन ऐसा गड़बड़ाया है कि परंपरागत मीडिया और न्यू मीडिया का रिश्ता एकतरफा होता जा रहा है. आत्मनिर्भर होने की कोई भी कोशिश परंपरागत मीडिया के लिए नुकसान का सौदा ही होगी.

न्यूज आउटलेट 2018 में फेसबुक पर अल्गोरिदम में हुए बदलाव के असर से निबटने में लगे हुए हैं तो गूगल एनेलिटिक्स जैसी सेवाएं पत्रकारों के वर्कफ्लो में लगातार बदलाव लाने में लगी है. ग्लोबल मीडिया फोरम की शुरुआत जर्मनी के प्रमुख मीडिया हाउस श्प्रिंगर मीडिया हाउस के सीईओ मथियास डोएफ्नर के भाषण और मीडिया में किसके पास ताकत विषय पर परिचर्चा के साथ हुई. श्प्रिंगर मीडिया हाउस जर्मनी के कुछ बड़े अखबारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन करता है और ग्राहकों की संख्या में कमी के अलावा विज्ञापनों में कमी की समस्या से भी जूझ रहा है. मथियास डोएफ्नर का मानना है कि सोशल मीडिया के आने से पत्रकारिता में प्रतिस्पर्धा बढ़ी है. दबाव में पत्रकारिता का स्तर भी बढ़ा है. वे कहते हैं, "पत्रकारिता का स्तर सौ साल पहले के मुकाबले बेहतर हुआ है." मथियास डोएफ्नर की राय में पत्रकारिता का मतलब है सत्य की जिम्मेदारी लेना और मीडिया की ये जिम्मेदारी आने वाले समय में भी बनी रहेगी.

Plenary Session: Who’s got the power in the media landscape? Part 1
अरुण पुरीतस्वीर: DW/P. Böll

इंडिया टुडे ग्रुप के प्रमुख अरुण पुरी का कहना है कि मौजूदा समय में हर व्यक्ति मीडिया हो गया है. सोशल मीडिया की वजह से हर व्यक्ति अपना संदेश सीधा दे सकता है, इसलिए हर व्यक्ति मीडिया है. अरुण पुरी का कहना है कि फेसबुक और गूगल को मान लेना चाहिए कि वे प्रकाशक हैं और उन्हें कंटेंट की जिम्मेदारी लेनी चाहिए. इसके विपरीत फेसबुक के यूरोप के लिए मीडिया पार्टनरशिप अधिकारी येस्पर डूब का कहना है कि फेसबुक मीडिया हाउस न होकर डिस्ट्रीब्यूशन प्लेटफार्म है. मथियास डोएफ्नर की राय में फेसबुक ऐसा मीडिया है जो मीडिया होना नहीं चाहता है, "आप अपने अल्गोरिदम की मदद से कंटेंट क्यूरेट कर रहे हैं."

बहस में साफ था कि परंपरागत मीडिया घराने अपनी ताकत खो रहे हैं और फेसबुक जैसे डिजिटल प्लेटफार्मों की ताकत बढ़ती जा रही है. डोएफ्नर ने इस मुद्दे पर बहस की मांग की कि स्थानीय मीडिया चलाने वाली छोटी कंपनियों को विज्ञापनों और समाचार तथा टिप्पणी के सख्त नियमों का पालन करना पड़ता है लेकिन अरबों लोगों तक पहुंचने वाली ग्लोबल कंपनी के लिए कोई नियम नहीं है. फेसबुक के येस्पर डूब ने माना कि फेसबुक कंटेंट बना तो नहीं रहा लेकिन इस तरह से चुन रहा है कि वह लोगों तक पहुंचता है, "इसलिए कुछ हद तक नियमन पर बात करने की जरूरत है."

Plenary Session: Who’s got the power in the media landscape? Part 1
येस्पर डूबतस्वीर: DW/P. Böll

इसमें कोई दो राय नहीं कि फेसबुक के अल्गोरिदम यूजरों के व्यवहार का आकलन करते हैं और उन्हें उसी तरह की सामग्री परोसते हैं. इससे एकतरफा किस्म का मीडिया उपयोग सामने आया है. फेसबुक की शिकायत है कि इसके विपरीत परंपरागत मीडिया ऐसी सामग्री देता है जो लोगों को मिलनी चाहिए जबकि फेसबुक उन्हें ऐसी सामग्री देता है जो उनकी पसंद का है. अरुण पुरी का कहना है कि सारी बहस में इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि फेसबुक एक बिजनेस हाउस है जिसका काम मुनाफा कमाना है. आने वाले समय में सारा जोर खबर की विश्वसनीयता पर रहेगा और फेसबुक भी स्रोतों की विश्वनीयता पर काम कर रहा है.

मथियास डोएफ्नर को इस बात में कोई संदेह नहीं कि परंपरागत मीडिया तभी जीवित बचेगा जब वह बेहतर होने और विश्वसनीय होने का संघर्ष लगातार जारी रखेगा. यदि लोग परंपरागत मीडिया में विश्वास खो देंगे तो वह उसका अंत होगा. यही बात सच के साथ भी लागू होगी यदि हर संस्थान का अपना सच होगा तो लोकतंत्र का अस्तित्व नहीं रहेगा.

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महेश झा सीनियर एडिटर