रैंकिंग से पीठ ठोकती सरकार लेकिन उच्च शिक्षा की हालत खराब
११ जून २०२१दुनियाभर के विश्वविद्यालयों की रैंकिंग जारी करने वाली संस्था क्वाकरेली सायमंड्स (QS) ने इस साल की वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में भारत के तीन विश्वविद्यालयों को टॉप 200 में शामिल किया गया है. ये हैं, आईटी बॉम्बे, आईआईटी दिल्ली और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बेंगलुरु. रैंकिंग में 100 में से 100 के स्कोर के साथ आईआईएससी को दुनिया की टॉप रिसर्च यूनिवर्सिटी बताया गया है. इस रैंकिंग में शामिल संस्थानों को प्रधानमंत्री मोदी ने भी ट्वीट कर बधाई दी. भारत में उच्च शिक्षा विभाग के सचिव अमित खरे ने इस मुद्दे पर कहा, "कुलपतियों और शिक्षण संस्थान के प्रमुखों के साथ प्रधानमंत्री की बातचीत ने स्वायत्तता और रिसर्च को बढ़ावा दिया है जिससे रैंकिंग में सुधार हुआ है."
उच्च शिक्षा से जुड़े एक और मामले में शिक्षा मंत्रालय ने गुरुवार को ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (AISHE), 2019-20 की रिपोर्ट पेश की. जिसके मुताबिक देश में पीएचडी करने वालों की संख्या 2020 में बढ़कर 2.03 लाख हो गई है, जो 2015 में 1.17 लाख थी. उच्च शिक्षा संस्थानों में सिर्फ पीएचडी करने वालों की तादाद ही नहीं बढ़ी है दाखिलों में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी है. 2019-20 के सत्र में 3.85 करोड़ छात्रों ने दाखिला लिया. 2015 से 2019 की अवधि में दाखिलों में 11 फीसदी की वृद्दि हुई जबति इसी अवधि में लड़कियों के दाखिले में 18 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई. इस पर केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा, "यह खुशी की बात है कि पिछले पांच सालों में पीएचडी करने वाले की संख्या 60 फीसदी बढ़ी है. यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूरदर्शी नेतृत्व की वजह से संभव हुआ है."
क्या देश ने उच्च शिक्षा के मामले में बड़ी छलांग लगाई है?
इस रैंकिंग और पीएचडी करने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी को देखकर लगता है कि भारत में उच्च शिक्षा का परिदृश्य बहुत अच्छा हो चुका है लेकिन जब अन्य देशों से इसकी तुलना की जाती है तो इसकी कमजोरियां स्पष्ट हो जाती हैं. मसलन फिलहाल भारत में प्रति 10 लाख लोगों में से 150 पीएचडी करते हैं, जबकि चीन में यह आंकड़ा 1071 प्रति दस लाख, ब्राजील में 694, मेक्सिको में 353 है. सूडान में भी यह आंकड़ा 290 प्रति दस लाख है. साल 2020 से कोरोना महामारी के चलते भारत की उच्च शिक्षा और बुरी तरह प्रभावित हुई है.
भारत में उच्च शिक्षा पर महामारी और लॉकडाउन के प्रभाव को जानने के लिए पिछले साल JNU के तीन रिसर्च स्कॉलरों ने JNU स्टूडेंट्स के बीच एक सर्वे किया. सर्वे में एमफिल और पीएचडी कर रहे 530 स्टूडेंट्स को शामिल किया गया था. इनमें से 78 फीसदी से ज्यादा स्टूडेंट्स का कहना था कि उन्हें रिसर्च से जुड़ी सामग्री (किताबें, नोट्स और जर्नल) नहीं मिल पा रही है. 54 फीसदी का कहना था कि अगर रिसर्च के लिए जरूरी सामग्री या लैब की सुविधा नहीं मिली तो वे रिसर्च छोड़ देंगे.
भारत में ऑनलाइन पढ़ाई का मूलभूत ढांचा ही नहीं
भारत के गांवों में अब भी करीब 70 फीसदी लोगों के पास इंटरनेट की पहुंच नहीं है. केंद्रीय शिक्षा, संचार तथा इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री ने राज्य सभा में एक सवाल के जवाब में बताया, "31 मार्च, 2020 तक ग्रामीण भारत में सिर्फ 29.2 फीसदी लोगों की ही इंटरनेट तक पहुंच थी. भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI) की 30 जून, 2020 की द इंडियन टेलीकॉम सर्विसेज परफॉर्मेंस इंडिकेटर्स रिपोर्ट के हवाले से मंत्री ने बताया था कि शहरी इलाकों में प्रति 100 लोगों में से 93 तक इंटरनेट की पहुंच है, जबकि ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 30 लोगों तक इंटरनेट की पहुंच है." यानी शहरी और ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट उपयोग के मामले में भी लोगों के बीच गहरी खाई है.
जम्मू-कश्मीर, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं, जहां हर 100 में से 25 लोग इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं करते. इस तथ्य से जुड़ी एक परेशान करने वाली बात यह भी है कि देश की 40 फीसदी जनसंख्या इन्हीं राज्यों में रहती है. यूनिवर्सिटी रैंकिंग जारी करने वाली संस्था क्वाकरेली सायमंड्स (QS) भी इस बात को मानती है. इसने पिछले साल दुनियाभर में कोरोना के पढ़ाई पर प्रभाव के बारे में एक रिपोर्ट जारी की थी. जिसमें कहा गया था कि भारत का इंटरनेट इंफ्रास्ट्रक्चर ऑनलाइन पढ़ाई के लिए तैयार नहीं है. रिपोर्ट के मुताबिक कनेक्टिविटी और सिग्नल में समस्या ऑनलाइन क्लास कर रहे बच्चों के लिए सबसे आम हैं.
संस्थानों में कई स्थानीय समस्याएं नहीं देख सकती QS रैंकिंग
QS जैसे रैंकिंग स्थानीय समस्याओं को भी नजरअंदाज कर देती हैं. भारत में जातीय भेदभाव ऐसी ही समस्या है. इसी साल फरवरी में राज्यसभा में शिक्षा विभाग की ओर से दिए गए आंकड़ों के मुताबिक देश में विज्ञान के प्रमुख संस्थानों में अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) समुदाय से आने वाले स्टूडेंट की संख्या बेहद कम थी. QS रैंकिंग में IISc को भले 100 में 100 नंबर मिले हैं लेकिन यहां 2016 से 2020 के बीच सिर्फ 2 फीसदी ST, 9 फीसदी SC और 8 फीसदी OBC स्टूडेंट रिसर्च में एडमिशन पा सके. जबकि सभी सरकारी शिक्षण संस्थानों में SC छात्रों के लिए 15%, ST के लिए 7.5% और OBC के लिए 27% सीटें रिजर्व होती हैं. IIT में भी यह आंकड़ा बेहद कम है.
मेरीलैंड लैंग्वेज साइंस सेंटर के डायरेक्टर और भाषा विज्ञान के प्रोफेसर कोलिन फिलिप्स कहते हैं, "मेरे अनुभव के मुताबिक QS रैंकिंग किसी काम की नहीं हैं. मैंने अपने विषय के किसी भी व्यक्ति को इन्हें गंभीरता से लेते नहीं देखा. यह रैंकिंग अंग्रेजी को तरजीह देने वाले और अधिक अंडरग्रेजुएट स्टूडेंट वाले संस्थानों की ओर झुकी होती है, भले ही वे पढ़ाई में बहुत मजबूत न हों. इस रैंकिंग को तय करने में संस्थान की प्रतिष्ठा का अहम रोल होता है, जिसके आधार पर 40 प्रतिशथ रैंकिंग तय होती है. कोलिन कहते हैं, "प्रतिष्ठा पैमाना हो सकता है लेकिन यह बहुत देर से तय हो पाती है और बहुत धीरे बदलती है."
रैंकिंग को इस बार राजनीति का जरिया बनाया गया
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग में प्रोफेसर मनोज राय कहते हैं, "जवाहरलाल नेहरू कहते थे यदि विश्वविद्यालय मानवता, सहिष्णुता, साहसिक विचारों और सत्य की खोज का कर्तव्य निभाते हैं तब तो वे राष्ट्र और जनता के साथ हैं. लेकिन अगर ये शिक्षा के मंदिर संकीर्णता और तुच्छ उद्देश्यों के अड्डे बन जाएंगे तो देश कैसे समृद्ध होगा और लोग कैसे तरक्की करेंगे? अब जब भारतीय यूनिवर्सिटी के ग्लोबल रैंकिंग में शामिल होने और पीएचडी इनरोलमेंट बढ़ने का श्रेय भी प्रधानमंत्री को दिया जा रहा है तो पता चलता है कि फिलहाल ये विश्वविद्यालय किस उद्देश्य में काम आ रहे हैं. फिर श्रेय भी ऐसे गलत समय में दिया जा रहा है, जब केंद्र सरकार ने इस साल उच्च शिक्षा का बजट 1116 करोड़ रुपये घटा दिया है."
महामारी से प्रभावित शिक्षा को लेकर केंद्रीय बजट 2021 में कोई दूरदर्शिता नहीं दिखी थी. इस बार बजट में नई शिक्षा नीति के तहत देश में उच्च शिक्षा का एकमात्र नियामक हायर एजुकेशन कमीशन बनाने और लेह में सेंट्र यूनिवर्सिटी खोलने जैसी कुछ घोषणाएं थीं. लेकिन महामारी से प्रभावित उच्च शिक्षा को ऑनलाइन करने या जो बच्चे इससे छूट रहे हैं, उनके लिए किसी मूलभूत ढांचे के निर्माण की घोषणा नहीं की गई थी.