विपक्ष को गोलबंद करने में कितनी कामयाब होंगी ममता बनर्जी
२३ जुलाई २०२१ममता बनर्जी ने विपक्ष को साथ लाने की मुहिम तो शुरू कर दी है लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठने लगा है कि उनको इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी? इसकी वजह यह है कि वे पहले भी ऐसी कोशिश कर चुकी हैं. लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली. यह सही है कि ममता बनर्जी अब बंगाल में जीत की हैट्रिक बनाने और बीजेपी की आक्रामक रणनीति का ठोस जवाब देने की वजह से पहले के मुकाबले मजबूत स्थिति में हैं.
लेकिन फिर वही सवाल सामने है जिस पर पहले भी विपक्षी एकता में दरार पैदा होती रही है. वह है कि इस फ्रंट का मुखिया कौन होगा? लाख टके के इस सवाल के साथ ही वे अगले सप्ताह तीन-चार दिनों के दिल्ली दौरे पर जाएंगी. वहां तमाम विपक्षी नेताओं के साथ उनकी बात-मुलाकात होनी है.
विपक्ष की धुरी
वैसे राजनीतिक हलकों में तो यह पहले से ही माना जा रहा था कि बेहद प्रतिकूल हालात में होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत की स्थिति में ममता विपक्षी एकता की धुरी बन कर उभर सकती हैं. बीजेपी ने जिस तरह अबकी बार दो सौ पार के नारे के साथ चुनाव में अपने तमाम संसाधन झोंक दिए थे उससे ममता के सत्ता में लौटने की राह पथरीली नजर आ रही थी. लेकिन आखिर में ममता ने अकेले अपने बूते बीजेपी को न सिर्फ धूल चटाई बल्कि पहले के मुकाबले ज्यादा सीटें भी हासिल की. हालांकि नंदीग्राम सीट पर वे खुद चुनाव हार गईं. लेकिन फिलहाल वह मामला कलकत्ता हाईकोर्ट में है.
ममता बनर्जी ने 21 जुलाई को अपनी सालाना शहीद रैली में पहली बार विपक्षी राजनीतिक दलों से बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की अपील की थी. बंगाल से बाहर निकलने के कवायद के तहत तृणमूल कांग्रेस ने उनकी इस रैली का दिल्ली, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात तक प्रसारण किया. खास बात यह रही कि पहली बार ममता ने अपना ज्यादातर भाषण हिंदी और अंग्रेजी में दिया. बीच-बीच में वे बांग्ला भी बोलती रहीं. अमूमन पहले वे ज्यादातर भाषण बांग्ला में ही देती थीं.
ममता बनर्जी ने कहा, "मैं नहीं जानती 2024 में क्या होगा. लेकिन इसके लिए अभी से तैयारियां करनी होंगी. हम जितना समय नष्ट करेंगे उतनी ही देरी होगी. बीजेपी के खिलाफ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा." उन्होंने शरद पवार और चिदंबरम से अपील की वे 27 से 29 जुलाई के बीच दिल्ली में इस मुद्दे पर बैठक बुलाएं.
खुद तृणमूल अध्यक्ष भी उस दौरान दिल्ली के दौरे पर रहेंगी. ममता का कहना था कि देश और इसके लोगों के साथ ही संघवाद के ढांचे को बचाने के लिए हमें एकजुट होना होगा. देश को बचाने के लिए विपक्ष को एकजुट होना होगा. ऐसा नहीं हुआ तो लोग हमें माफ नहीं करेंगे. ममता बनर्जी पेगासस जासूसी कांड और मीडिया घरानों पर आयकर विभाग के छापों के मामले पर भी केंद्र और बीजेपी पर लगातार हमलावर मुद्रा में हैं. रैली के अगले दिन भी उन्होंने इन दोनों मुद्दों का जिक्र करते हुए खासकर पेगासस जासूसी मामले की जांच की मांग उठाई.
दावों में कितना दम?
बीजेपी के खिलाफ एक साझा मोर्चा बनाने के ममता के दावों में कितना दम है और क्या वे ऐसा करने में सक्षम हैं? क्या क्षत्रपों की महात्वाकांक्षाएं पहले की तरह मोर्चे की राह में नहीं आएंगी? क्या नेतृत्व के सवाल पर मोर्चे में पहले की तरह मतभेद नहीं पैदा होंगे? वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, "यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब भविष्य के गर्भ में हैं. विपक्ष को लामबंद करने की कोशिशें ममता से चंद्रबाबू नायडू तक तमाम नेता पहले भी करते रहे हैं. लेकिन उनमें से किसी को कामयाबी नहीं मिल सकी. यह सही है कि ममता फिलहाल मजबूत स्थिति में हैं और उन्होंने नेतृत्व की दावेदारी नहीं की है." वह कहते हैं कि कांग्रेस से लेकर एनसीपी तक कई राजनीतिक दलों में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की कमी नहीं है. निजी महात्वाकांक्षाओं का त्याग किए बिना इस राह पर लंबी दूरी तक चलना मुश्किल है.
राजनीतिक विश्लेषक मोइनुल इस्लाम कहते हैं, "ममता ने कोशिश तो शुरू कर दी है और चुनाव में अभी करीब तीन साल का वक्त है. इस समय का इस्तेमाल निजी मतभेदों और खाइयों को पाटने में किया जा सकता है." वह कहते हैं कि दरअसल खुद को राष्ट्रीय पार्टी मानने वाली कांग्रेस प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदार मानती है. तमाम किस्म के मतभेदों और चुनाव में खराब प्रदर्शन के बावजूद उसका भ्रम नहीं टूटा है. इसके अलावा एनसीपी के शरद पवार की महत्वाकांक्षा भी किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में इन दोनों को साधना ममता के लिए मुश्किल होगा. शायद इसीलिए ममता ने विपक्षी दलों की बैठक बुलाने की जिम्मेदारी पवार और कांग्रेस पर ही छोड़ दी है.
तापस मुखर्जी कहते हैं, "इस बार प्रशांत किशोर की भूमिका को भी ध्यान में रखना होगा. वे बीते दिनों शरद पवार और कांग्रेस नेताओं के साथ बैठकें कर चुके हैं. विपक्षी दलों को लामबंद करने की ममता की रणनीति के पीछे उनका दिमाग ही काम कर रहा है."
अगले सप्ताह ममता के दिल्ली दौरे से पहले ही प्रशांत किशोर के अलावा टीएमसी नेता मुकुल राय और ममता के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी दिल्ली पहुंच गए हैं. उनके दौरे का मकसद ममता की बैठकों के लिए जमीन तैयार करना है. फिलहाल टीएमसी की ओर से दूसरे दलों के साथ बातचीत करने की जिम्मेदारी हाल में पार्टी में शामिल होने वाले यशवंत सिन्हा को सौंपी गई है.
ममता की रणनीति आखिर क्या है? टीएमसी के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं, "प्रस्तावित तीसरे मोर्चे के तहत पहले खासकर ऐसे राजनीतिक दलों को साथ लाने की योजना है जो गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी मोर्चा के हिमायती रहे हैं. इसके तहत ओडिशा के नवीन पटनायक, तेलंगाना के चंद्रशेखर और फारुख अब्दुल्ला को एक मंच पर लाने के बाद कांग्रेस पर इसमें शामिल होने का दबाव बनाया जा सकता है. लेकिन बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में किसे साथ लेना है, किसे नहीं, इस सवाल पर फिलहाल अंतिम फैसला नहीं हुआ है. उनका कहना था कि वहां स्थानीय समीकरण काफी उलझे हैं. हालांकि जनता दल (यू) और सपा नेता अखिलेश यादव से लेकर उद्धव ठाकरे तक ममता को चुनाव के दौरान समर्थन और जीत पर बधाई दे चुके हैं. लेकिन एक साथ आने के मुद्दे पर इनका क्या रुख होगा, यह समझना आसान नहीं है.
राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर समीरन पाल कहते हैं, "राजनीति संभावनाओं और अटकलों का खेल है. इसमें हमेशा दो और दो चार नहीं होते. ऐसे में एक-दूसरे से खुन्नस रखने वाले दल भी अगर एक साझा मकसद से साथ हो जाएं तो कोई हैरत नहीं होनी चाहिए. लेकिन फिलहाल तीसरे मोर्चा की कल्पना अभी हवाई ही है. विपक्षी दलों का रुख साफ होने के बाद ही इस बारे में ठोस तरीके से कुछ कहना संभव होगा."