सेना के सहारे इस्लामिक जगत में दबदबा जमा रहा है तुर्की
१७ अगस्त २०२०करीब पांच दशकों तक इस्लामिक जगत का मुखिया बनने की कुछ अनकही शर्तें थीं. पहली इस्राएल का विरोध और बहिष्कार. दूसरी, दुनिया में जहां भी मुसलमान परेशान हों, वहां नैतिक और हथियारों की मदद. तीसरी शर्त थी, हर सामाजिक आंदोलन को पश्चिम की साजिश करार देना. चौथी शर्त, धर्म का सख्ती से पालन करना और कराना. लेकिन इन सब शर्तों को पूरा करने के लिए खूब पैसा भी चाहिए. और अब तेल के खेल में वह पुरानी बात नहीं रही.
यह एक बड़ा कारण है कि बीते दस साल में सुन्नी जगत के सबसे प्रभावशाली देश सऊदी अरब और यूएई इस फॉर्मूले से हट चुके हैं. पेट्रोलियम आधारित अर्थव्यवस्था को ज्यादा विविध बनाने के लिए इन देशों ने नए रास्ते अपनाए हैं. रूढ़िवादी सऊदी और अमीरात राजशाहियां अब नागरिक अधिकारों के मामले में उदार नजर आने लगी हैं. लेकिन क्या फॉर्मूले से दूर होने पर इस्लामिक जगत में नेतृत्व की कमी हो रही है? और क्या तुर्की उसे भरने की कोशिश कर रहा है?
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एर्दोवान की आक्रामक रणनीति
कूटनीतिक तौर पर इस्राएल और यूएई की डील का ईरान और तुर्की ने मुखर विरोध किया है. ऐतिहासिक डील के तहत संयुक्त अरब अमीरात और इस्राएल पूर्ण कूटनीतिक रिश्तों की बहाली करने जा रहे हैं. कोरोना वायरस पर रिसर्च और टेस्टिंग के लिए साझेदारी के साथ दोनों पक्षों ने इसकी शुरुआत कर दी है. ईरान का विरोध नया नहीं है. लेकिन हैरान तुर्की की प्रतिक्रिया करती है. नाटो का सदस्य और इस्राएल से भौगोलिक रूप से काफी दूर. यह तुर्की का इस्लामिक जगत को संदेश है.
जमीन पर तुर्की की सेना सीरिया के भीतर 30 किलोमीटर तक जा चुकी है. उत्तरी सीरिया के साथ लगने वाले 145 किलोमीटर लंबी सीमा में तुर्की सीरिया का काफी हिस्सा अपनी सैनिक चौकियों में तब्दील कर चुका है. इराक के कुर्द बहुल इलाकों में घुसकर भी तुर्की ने सैन्य चौकियां बनाई है.
धर्म का पत्ता इस्तेमाल करना
एक दशक पहले तक तुर्की खुद को सबसे आधुनिक और उदार मुस्लिम देश के रूप में देखता था. लेकिन रेचेप तैयप एर्दोवान के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही तुर्क कूटनीति एक अलग मिशन पर है. मिस्र में एर्दोवान रुढ़िवादी मुस्लिम ब्रदरहुड को बढ़ावा दे चुके हैं. यूएई और सऊदी को बौराने के लिए वह, कतर के साथ कंधे से कंधा मिलाए खड़े रहते हैं. चाहे न्यूजीलैंड की मस्जिद में दक्षिणपंथी आतंकी हमले पर प्रतिक्रिया हो या कश्मीर में भारत के रुख की आलोचना, एर्दोवान, इन मुद्दों पर मुखर होकर बोलने वाले दूर देश के नेता होते हैं.
इस्लाम का पालन कैसे किया जाता है, अब एर्दोवान इसकी भी मिसाल पेश करना चाहते हैं. हागिया सोफिया में दोबारा नमाज शुरू करवाकर वह इसका संकेत दे चुके हैं. वेश भूषा को लेकर बेहद उदार तुर्की में बीते एक दशक धार्मिक तरीके के पहनावे का फैशन लौटा है.
सऊदी अरब की आलोचना करते समय एर्दोवान इस्लाम का हवाला भी देते हैं. सितंबर 2019 में जब सऊदी अरब ने साइप्रस के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए तो एर्दोवान के वरिष्ठ सलाहकार और पार्टी मेम्बर ने कहा कि सऊदी अरब, तुर्की और अन्य मुस्लिम देशों को दरकिनार कर "यूरोपियनों और गैर मुसलमानों को फायदा” पहुंचा रहा है.
रोकड़े के बिना रौनक कैसे आएगी
प्रभुत्व स्थापित करने का मतलब है कि अपने सहयोगियों की आर्थिक रूप से मदद भी करना. समृद्धि और चमकती अर्थव्यवस्था के बिना ऐसी मदद मुश्किल है, यह बात हर पक्ष जानता है. लंबे समय तक तेल की आय के कारण सऊदी अरब और यूएई इस ड्राइविंग सीट पर बैठे रहे. लेकिन नई खोजों ने दुनिया की तेल पर निर्भरता कम कर दी है. लिहाजा अब वैकल्पिक मॉडल खड़े किए जा रहे हैं. पश्चिम के पहले से ही साझेदार रहे सऊदी अरब और यूएई अब इस सहयोग को पर्यटन, मेडिकल और बैंकिंग सेक्टरों तक ले जा रहे हैं.
सऊदी अरब और यूएई के बहिष्कार के बीच तुर्की ने अपनी सेना को कतर में तैनात कर दोहा को भरोसा दिलाया कि वह निडर रहे. इसके बदले कतर ने तुर्की में करीब 15 अरब डॉलर का निवेश किया. लंबे वक्त तक आर्थिक समृद्धि के लिए यूरोप पर निर्भर रहा तुर्की अब चीन से भी उम्मीदें लगाए बैठा है. फलीस्तीन, कश्मीर और रोहिंग्याओं के मुद्दे पर गरजने वाले एर्दोवान उइगुर मुसलमानों के मुद्दे पर संतुलित आलोचना करते हैं और फिर डैमेज कंट्रोल के लिए चीन के दौरा भी करते हैं.
चीन के शिनजियांग प्रांत में तुर्क मूल के उइगुर मुसलमान रहते हैं. कभी वे प्रांत में बहुसंख्यक थे, लेकिन अब अल्पसंख्यक हैं. चीन पर आरोप लगते हैं कि वह उगुइरों को हिरासत कैंपों में रखकर उनका ब्रेनवॉश कर रहा है. बीजिंग ऐसे आरोपों से इनकार करता है.
ओटोमन साम्राज्य की महान गाथा के जरिए तुर्की फिर से राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहा है. वहीं उसका पार्टनर कतर न्यूज चैनल अल जजीरा और कतर फाउंडेशन के जरिए दुनिया के सामने एक सॉफ्ट छवि तैयार करने में जुटा रहता है. विदेशों में निवेश और फुटबॉल वर्ल्ड कप की मेजबानी पाना इस नीति की हिस्सा हैं.
तीसरे देशों में छद्म युद्ध
दबदबे की इस लड़ाई में सीरिया, लीबिया, इराक और यमन जैसे देश पिस रहे हैं. यमन में 2015 से गृहयुद्ध छिड़ा है, एक तरफ यमन की सेना है तो दूसरी तरफ विद्रोही. लेकिन इन दोनों पक्षों की आड़ में वहां सऊदी अरब और ईरान लड़ रहे हैं. सीरिया में भी ईरान और असद, सुन्नी विद्रोहियों को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं. वहां उन्हें रूस का समर्थन हासिल है. वहीं तुर्की असद के विरोधियों की मदद करता है. अरब जगत में कुर्दों के खिलाफ कार्रवाई कर अंकारा खुद को रहनुमा के तौर पर भी पेश करता है.
ईरान का एंगल
इस्लामिक जगत में ईरान भी एक बड़ी मजबूत धुरी है. शिया बहुल ईरान भी चाहता है कि वह मुस्लिम जगत का नेतृत्व करे. इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए तेहरान इस्राएल के साथ सबसे ज्यादा तीखे ढंग से उलझा रहता है. ईरान के परमाणु कार्यक्रम के जवाब में सऊदी अरब कह चुका है कि अगर तेहरान एटम बम विकसित करने की तरफ बढ़ा तो वह भी ऐसा करने के लिए मजबूर होगा. वहीं, इस्राएल भी नहीं चाहता कि ईरान एटमी ताकत बने.
इराक और अफगानिस्तान की खर्चीली और नुकसानदेह जंग झेल चुका पश्चिम बिल्कुल नहीं चाहता कि वह मध्य पूर्व में सैन्य रूप से कोई दखल दे. 2011 के अरब वसंत के बाद पैदा हुए हालात और उससे उभरा आतंकवाद अब मध्य पूर्व की हकीकत है. वक्त के साथ इसके ज्यादा विस्फोटक होने का खतरा है.
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